26 फरवरी : स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर की पुण्यतिथि

15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने पर सावरकर जी ने भारतीय ध्वज तिरंगा एवं भगवा, दोनों एक साथ फहराये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि "मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु भारत के खण्डित होने का दु:ख है"

The Narrative World    26-Feb-2024
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स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर अकेले ऐसे बलिदानी क्राँतिकारी हैं जिन्हें दो बार आजीवन कारावास हुआ, उनका पूरा जीवन तिहरे संघर्ष से भरा है। एक संघर्ष राष्ट्र की संस्कृति और परंपरा की पुनर्स्थापना के लिये किया दूसरा संघर्ष अंग्रेजों से मुक्ति केलिये। और तीसरा संघर्ष भारत के अपने ही बंधुओं के लांछन के झाँछन झेलने का।

भारत यदि आक्रांताओं से पराजित हुआ और दासों का दास बना तो यह विदेशियों की शक्ति सामर्थ्य से नहीं अपितु अपने ही लोगों के असहयोग और ईष्या से बना। ये दोनों बातें सावरकर जी ने जीवन भर झेली। उनका संघर्ष सत्ता के लिये नहीं था, राजनीति के लिये नहीं था अपितु भारत राष्ट्र की अस्मिता और हिन्दु समाज के जागरण के लिये था। उनका और उनके परिवार का पूरा जीवन भारत के स्वत्व की प्रतिष्ठापना के लिये समर्पित रहा।


उनका जन्म महाराष्ट्र प्रांत के पुणे जिला अंतर्गत भागुर ग्राम में 28 मई 1883 को हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई और पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई और थे। एक गणेश दामोदर सावरकर और दूसरे नारायण दामोदर सावरकर थे गणेश सालरकर उनसे बड़े थे और नारायण छोटे। एक बहन नैनाबाई थीं।


जब विनायक केवल नौ वर्ष के ही थे तब ही हैजे की महामारी ने माता जी को छीन लिया था। सात वर्ष बाद सन् 1899 में इसी महामारी के चलते उनके पिता भी स्वर्ग सिधार गये बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में अग्रज गणेश सावरकर के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें लगा कि जिस प्रकार बड़े भाई न केवल अपने पैरों पर स्वयं खड़े हैं और परिवार संभाल रहे हैं तो क्योँ न वे भी अपने पैरों पर खड़े हों और समाज की सेवा करें।


कुछ विभूतियाँ साधारण नहीं होतीं वे प्रकृति की अतिरिक्त ऊर्जा के साथ संसार में आतीं हैं। ऐसी विशिष्ट विभूतियाँ अपने आसपास की एक एक घटना से सीखतीं हैं और समाज को सिखाने का प्रयास करतीं हैं। विनायक सावरकर ऐसे ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने एक साथ विभिन्न दिशाओं में चिंतन आरंभ किया महामारी में केवल उनके माता पिता को ही नहीं छीना था बल्कि देश के लाखों करोड़ो लोगों के भी प्राण लिये थे। इसके अंग्रेजी सिपाहियों का शोषण। भारतीय समाज जीवन इन दोनों विभीषिकाओं को झेल रहा था। विनायक जी ने इन दोनो आपदाओं से भारतीय समाज को जाग्रत करने का संकल्प लिया।


उन्होंने अपनी पढ़ाई के साथ नवयुवकों की टोली बनाई और समाज संस्कृति का जागरण का कार्य आरंभ किया। इसके साथ शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। पढ़ने में उनकी रूचि तो बहुत थी वे पढ़ने के साथ वे लेखन कार्य भी करते थे। सामयिक विषयों पर टिप्पणियां और कविताएँ लिखने का अद्भुत कौशल था विनायक जी में उन्होंने मित्र मेलों का आयोजन करना आरंभ किया। इन मेलों में राष्ट्र और संस्कृति की बात होती और यह भी कि भारत माता पर कितना संकट है कैसे वह संकट दूर होगा। इन मेलों के माध्यम से नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होने लगी। सत्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ। पत्नि का नाम यमुना देवी था। ससुर रामचन्द्र जी ने सावरकर जी की उच्च शिक्षा का भार उठाया। 1902 में वे फर्ग्युसन कालेज पुणे में बी॰ए॰ करने पहुंचे। समय के साथ विनायक जी को दो संतानों ने जन्म लिया विश्वास सावरकर और पुत्री प्रभात सावरकर। जो बाद में चिपलूनकर बनीं।


पुणे में ही उन्होंने 1904 में एक संस्था का गठन किया जिसका नाम "अभिनव भारत" रखा। यह एक क्राँतिकारी संगठन था जिस पर बाद में अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया था। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद इस संगठन ने पुणे और आसपास के क्षेत्रों में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। विनायक सावरकर और अभिनव भारत के कार्यकर्ता घूम घूम कर राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। इस पूरी टीम को बाल गंगाधर तिलक जी का आशीर्वाद मिला। तिलक जी के प्रयास से विनायक दामोदर सावरकर जी को छात्रवृत्ति मिली। उनके आलेख :इंडियन सोशियोलाजिस्ट" नामक पत्रिका में और फिर कलकत्ता के युगान्तर में भी छपे।


महाविद्यालयीन पढ़ाई के बाद वकालत पढ़ने लंदन चले गये। वहां संग्रहालय में वे विवरण पढ़े कि कैसै 1857 की क्रांति की शुरुआत हुई और कैसै अंग्रेजों ने उसका दमन किया गया। इन्हे पढ़ने के बाद सावरकर जी ने 10 मई, 1907 को लंदन के इंडिया हाउस में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती का आयोजन किया और अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संघर्ष को भारत का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। इसके साथ उन्होंने एक पुस्तक भी लिख डाली।


"द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस" नामक यह पुस्तक जून 1908 में तैयार हो गयी थी। परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या सामने आयी। इसके लिये बहुत प्रयास हुये। अंततः यह पुस्तक हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। यह संसार की उन विरली पुस्तकों में से एक है जिस पर उसके प्रकाशन के पहले प्रतिबंध लगा।

मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला परीक्षा उत्तीर्ण की लेकिन उन्हें वकालत करने की अनुमति नहीं मिली इसका कारण यह था कि सावरकर जी ने ब्रिटिश क्राउन के प्रति वफादारी की शपथ लेने से इंकार कर दिया था।


इण्डिया हाउस की गतिविधियाँ


सावरकर ने लन्दन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इण्डिया हाउस में रहना आरम्भ कर दिया था इण्डिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया था जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे वहां रहते हुये सावरकर जी के उन सभी लोगों से संपर्क बढ़ गये जो मन ही मन भारतीय स्वतंत्रता कै पक्षधर रहे हैं।


लन्दन में ही उनकी भेंट लाला हरदयाल से हुई। लालाजी उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। एक जुलाई 1909 को क्राँतिकारी मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दी थी। इस घटना पर सावरकर जी ने लन्दन टाइम्स में एक लेख लिखा था। इस लेख कै कारण गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ। 10 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया, परन्तु 8 जुलाई 1910 को एम॰एस॰ मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले। उन्होंने तैर कर इंग्लिश चैनल पार की, किंतु गिरफ्तार कर लिये गये। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर जी को दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी गयी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी घटना थी।

पर सावरकर जी ने तो स्वयं को मातृ भूमि को अर्पित कर दिया था इसलिये उन्होंने इन सजाओ को स्वीकार कर लिया। समय के साथ कड़ी सुरक्षा के बीच उन्हे भारत भेज दिया गया।


नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अन्तर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेज दिया गया। नासिक के क्रूर और अत्याचारी कलेक्टर को उनके भाई शामिल थे। इसमें पूरे परिवार का नाम जोड़ा गया और गिरफ्तारियां हुईं। यहां स्वतंत्रता सेनानियों पर कड़े अत्याचार होते थे।

कैदियों को यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। काम करते समय रुकने पर कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। सावरकर जी ने यह सब सहा। वे 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की इस जेल में रहे।


दया याचिका


1919 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर उन्होने दया याचिका लगाई। अंततः ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। सावरकर जी जानते थे कि जेल में रहकर जीवन समाप्त करने से बेहतर है भूमिगत रह कर राष्ट्र सेवा करना है। वे जीवन की क्षण भंगुरता से परिचित थे इसलिए चाहते थे कि काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। तिलक जी ने संदेश भेजा था कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे जो कि अण्डमान निकोबार की जेल में रहकर संभव नहीं था।


1921 में मुक्त होने पर उन्होंने हिन्दुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा हेडगेवार से भेंट हुई। फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। 25 फरवरी 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1937 में अहमदाबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। वे सात वर्षों तक अध्यक्ष रहे। अप्रैल 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। जून 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जी जीवन भर भारत विभाजन के विरूद्ध और अखण्ड भारत के पक्ष में रहे 1943 के बाद सावरकर जी मुम्बई आकर रहने लगे।


मार्च 1945 को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। अप्रैल 1945 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष 8 मई को उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। उनका कहना था कि भारत विभाजन नहीं होना चाहिए और यदि होता है तो कम्प्लीट विभाजन होना चाहिए। सारी हिन्दू आबादी यहाँ और सारी मुस्लिम आबादी वहाँ। उनका यह तर्क इतना प्रबल था कि सरदार पटेल जैसे अनेक काँग्रेस नेता भी सैद्धांतिक सहमत होने लगे। इससे अंग्रेज सरकार और मुस्लिम लीग दोनों बौखलाए। कांग्रेस में भी कुछ नेता उनके विरोधी हो गये। विशेषकर गाँधी जी ने विभाजन तो स्वीकार कर लिया था पर वे स्वेच्छा के पक्षधर थे। गाँधी जी कहना था कि सबको अपनी जन्म भूमि पर रहना चाहिए। विभाजन की तैयारी के साथ बंगाल और पंजाब में भारी हिंसा आरंभ हो गई। सावरकर जी को गाँधी जी से बहुत उम्मीद थी। किन्तु जब भारत विभाजन न रूक सका और भारी हिंसा आरंभ हुई तो सावरकर जी ने खुलकर गाँधी जी की आलोचना की।


15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिलने पर सावरकर जी ने भारतीय ध्वज तिरंगा एवं भगवा, दोनों एक साथ फहराये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि "मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु भारत के खण्डित होने का दु:ख है" उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं। इसी बीच गाँधी जी की हत्या हो गयी। 5 फरवरी 1948 को सावरकर जी "प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट" धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिये गये। किन्तु गाँधी जी की हत्या के षड्यंत्र में सम्मिलित होने का कोई आरोप सिद्ध न हो सका रिहाई के आदेश हुये। 4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तान के प्रथम प्रधान मन्त्री लियाकत अली भारत आये। उनके दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर सावरकर जी को बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया। लियाकत अली के जाने के बाद सावरकरजी की रिहाई हुई। नवम्बर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे।


8 अक्टूबर 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 8 नवम्बर 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर, 1965 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, इसके बाद इनका स्वास्थ्य निरंतर गिरने लगा। 1 फ़रवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी 1966 को मुम्बई उन्होंने संसार से विदा ले ली।


लेख


रमेश शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार