देव पूजा और गंगा की आस्‍था ले आई भारत, शरणार्थी जीवन जीते चार पीढ़ी बीतीं, तब देखने को मिला ये दिन

महात्‍मा गांधी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस हिन्‍दू-मुस्‍लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए वे जिस खिलाफत आन्‍दोलन का समर्थन कर रहे हैं, उनकी यह सोच यथार्थ में इससे ठीक विपरीत साबित होगी।

The Narrative World    14-Mar-2024
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जिस मिट्टी में पैदा हुए, खेले, खाए बड़े हुए उस स्‍थान और मिट्टी से किसे प्रेम नहीं होता? कौन चाहेगा अपने हाथों से या अपने पूर्वजों के बनाए भवनों को छोड़कर चले जाना! अपने खेत-खलियानों को छोड़ दूर हमेशा के लिए पलायन कर जाना और अपना सब कुछ, जीवन भर का संपर्क, रुपया, सोना-चांदी, हर वह सुख की वस्‍तु पीछे छोड़ देना, जिसे पीढ़‍ियों ने अपने अथक पुरुषार्थ से अर्जित किया था।


दरअसल, 1947 भारत विभाजन के बाद नए बने पाकिस्‍तान में जो दृष्‍य उभरा, वह कुछ ऐसा ही था, जहां गैर मुसलमानों के साथ बर्बरता की जा रही थी, लोग जीवन की खातिर पलायन के लिए मजबूर हो उठे। इतिहास के पन्‍नों में दर्ज ऐसी अनेकों कहानियां है, जो आज भी सिसकियां भरने को मजबूर कर देती हैं! आप भरसक प्रयास करें, किंतु अपनी आंखों से पानी गिरने को रोक नहीं सकते। कल तक जो भारतवासी थे, अब उनकी पहचान किसी अन्‍य मुल्‍क के साथ जुड़ चुकी थी। जिस इस्‍लामिक मजहब की सनातन धर्म को माननेवाले हिन्‍दुओं साथ नहीं रहने की जिद के चलते अखण्‍ड भारत दो टुकड़ों में बंटा, वह भी जूठा साबित हुआ। अंग्रेज जा चुके थे, दोनों ओर नई सरकारों का गठन हो चुका था किंतु गैर मुसलमान अपने आप को फिर से ठगा हुआ पा रहे थे।


जैसे, खिलाफत आन्‍दोलन को कांग्रेस का समर्थन और उसके बाद इसकी असफलता से उपजे संकट में हिन्‍दुओं का कत्‍लेआम। वामपंथी इतिहासकार और स्‍वाधीन भारत में कांग्रेस द्वारा लिखवाए गए इतिहास में भले ही खिलाफत आन्‍दोलन के असफल हो जाने के बाद मुसलमानों के गुस्‍से का हिन्‍दुओं पर फूटने को एक कृषि विद्रोह या इसे मजदूरों का विद्रोह कहा जाता रहा हो लेकिन सच, फिर भी छिपा नहीं रह सका इतिहास में कई पन्‍नों में इस खिलाफत आन्‍दोलन के परिणामों में दर्ज वह हिन्‍दू नरसंहार भी है, जो आज भी सभ्‍य समाज के ऊपर किसी बड़े मानव कलंक से कम नहीं है।


तब महात्‍मा गांधी भी गलत साबित हुए !


महात्‍मा गांधी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस हिन्‍दू-मुस्‍लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए वे जिस खिलाफत आन्‍दोलन का समर्थन कर रहे हैं, उनकी यह सोच यथार्थ में इससे ठीक विपरीत साबित होगी। वे अपनी सोच को लेकर कितने आश्‍वस्‍त थे, वह इससे पता चलता है ; वस्‍तुत: गांधीजी के प्रयोग के तर्क पर संदेह करने वालों में से एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भी थे। एक बार वह गांधीजी से भी मिले और उनसे पूछा: “वास्तव में, हमारे भारत में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म जैसे विभिन्न धर्मों के लोग हैं। तो इन सभी लोगों की एकता की बात करने के बजाय केवल हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करने का क्या औचित्य है?'' गांधीजी ने जवाब दिया, "इसके माध्यम से, मेरा विचार यहां के मुसलमानों के मन में इस देश के लिए प्यार पैदा करना है, और क्या आप भारत की आजादी के लिए दूसरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने का तमाशा नहीं देखते हैं?" डॉक्टरजी, जो इस उत्तर से संतुष्ट नहीं थे, फिर बोले, “यह नारा लगने से पहले भी, स्वतंत्रता आंदोलन में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में बैरिस्टर जिन्ना, अंसारी, हकीम अजमल खान आदि कई मुसलमान सक्रिय थे। और मुझे डर है कि यह नारा मुसलमानों के मन में विभाजनकारी प्रवृत्ति पैदा करेगा।गांधीजी ने यह कहते हुए अचानक बैठक समाप्त कर दी कि "मुझे ऐसा कोई डर नहीं है।" (डॉ. हेडगेवार चरित, ना. . पालकर: पृष्ठ 99)


फिर हुआ 'महात्‍मा' को अपने निर्णय पर पछतावा


डॉ. एम.जी.एस. नारायणन, पूर्व अध्यक्ष, आईसीएचआर, नई दिल्ली लिखते हैं, “गांधीजी उस समय ब्रिटिश भारत के संदर्भ में यह मानने के लिए राजनीतिक रूप से निर्दोष थे कि भारत में गरीब और अशिक्षित मुस्लिम समुदाय को आसानी से ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सक्रिय राजनीतिक संघर्ष में शामिल किया जा सकता है। मुसलमानों को खुश करने के लिए, उन्होंने मरणासन्न खिलाफत के मामले का समर्थन किया, जिसे अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर तुर्की में ख़त्म कर दिया था। बाद में महात्मा गांधी को खिलाफत को प्रायोजित करने की इस मूर्खता पर पछतावा हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी-नुकसान हो चुका था। मुसलमानों को सामाजिक सुधार और आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करने के बजाय, खिलाफत ने उनकी रूढ़िवादी धार्मिक प्रवृत्ति को वैध बना दिया था और बाहरी दुनिया के बारे में उनके डर और संदेह को जगाया था। इसने उनकी सांप्रदायिकता को मजबूत किया, जो अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब के दिनों से निष्क्रिय पड़ी हिंदू काफिरों के खिलाफ नफरत पर आधारित थी।” (चेट्टूर शंकरन नायर की पुस्तक गांधी एंड एनार्की की प्रस्तावना में, पृष्ठ 2)


संविधान निर्माता डॉ. अम्‍बेडकर ने चेताया था


डॉ. भीमराव अम्बेडकर लिखते हैं, “(खिलाफत) आंदोलन मुसलमानों द्वारा शुरू किया गया था। इसे श्री गांधी ने दृढ़ता और विश्वास के साथ उठाया, जिसने स्वयं कई मुसलमानों को आश्चर्यचकित कर दिया होगा। ऐसे कई लोग थे जिन्होंने खिलाफत आंदोलन के नैतिक आधार पर संदेह किया और श्री गांधी को आंदोलन में भाग लेने से रोकने की कोशिश की, जिसका नैतिक आधार बहुत संदिग्ध था। (पाकिस्तान या भारत का विभाजन, पृष्ठ 146,147)


वास्‍तव में डॉ. अम्‍बेडकर जिस आन्‍दोलन को नैतिक आधार पर संदिग्‍ध मान रहे हैं, भविष्‍य में वह सच ही निकला। इस आन्‍दोलन का मूल परिणाम यह हुआ कि हजारों हिन्‍दुओं को इस खिलाफत आन्‍दोलन की असफलता के साथ ही मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया गया था। अम्‍बेडकर आगे इस बात को और अधिक स्‍पष्‍ट भी करते हैं, उन्होंने लिखा, 'बहादुर और अल्‍लाह से डरने वाले मोपला अपने मजहबी सिद्धांतों के अनुसार अपने धर्म के लिए लड़ रहे थे जैसा कि वे उन्हें समझते थे।' (डॉ. अम्बेडकर, पाकिस्तान या भारत का विभाजन, पृष्ठ 148)


डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं, “मोपला मुस्लिमों ने मालाबार के हिन्दुओं के साथ जो किया वो विस्मित कर देने वाला है। मोपला के हाथों मालाबार के हिन्दुओं का भयानक अंजाम हुआ। नरसंहार, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों को ध्वस्त करना, महिलाओं के साथ अपराध, गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना, ये सब हुआ। हिन्दुओं के साथ सारी क्रूर और असंयमित बर्बरता हुई। मोपला ने हिन्दुओं के साथ ये सब खुलेआम किया, जब तक वहाँ सेना न पहुँच गई।बाबासाहब डॉ. भीमराव ने इसे हिन्दू-मुस्लिम दंगा मानने से इनकार करते हुए कहा था कि हिन्दुओं की मौत का कोई आँकड़ा नहीं है, लेकिन ये संख्या बहुत बड़ी है।


इस एक ही घटना से समझे; हिन्‍दू नरसंहार कितना भयंकर था, ऐसी अनेक घटनाएं हुईं


इस समय की एक वीभत्स घटना का यहां जिक्र किया जा सकता है, जोकि 25 सितंबर 1921 को, उत्तरी केरल में थुवूर और करुवायाकांडी के बीच बंजर पहाड़ी पर घटित हुई, जहां खिलाफत नेताओं में से एक चैम्बरसेरी इम्बिची कोइथंगल ने अपने 4,000 से अधिक अनुयायियों के साथ एक रैली निकाली और इस दौरान 40 से अधिक हिंदुओं को पकड़ लिया गया। उनके हाथ पीछे बांध कर उनके पास ले जाया गया, जहां 38 की हत्या कर दी गई। इन 38 में से 3 को गोली मारी गई थी और अन्‍यों के सिर काटकर थुवूर कुएं में फेंक दिया गया था। इन सभी हिन्‍दुओं पर आरोप यह लगाया गया था कि इन्‍होंने मोपला कट्टरपंथी जिहादियों के खिलाफ सेना की मदद की थी दीवान बहादुर सी. गोपालन नायर, जोकि कालीकट, मालाबार के डिप्टी कलेक्टर थे, इनके द्वारा लिखित पुस्तक द मोपला रिबेलियन, 1921 में 25 सितंबर के उस घातक दिन का विस्तृत विवरण मौजूद है। पुस्तक के पृष्ठ 56 पर गोपालन ने इस पूरी घटना को विस्‍तार से लिखा है।


अपनी इस पुस्‍तक में सी. गोपालन नायर लिखते हैं, जिन लोगों को इस प्रकार फेंका गया उनमें से कई लोग मरे नहीं थे। लेकिन बचना असंभव था। कुएं से बाहर निकलने के लिए कोई सीढ़ियां नहीं हैं। बताया जाता है कि हत्याकांड के तीसरे दिन भी कुछ लोग कुएं से चिल्ला रहे थे। वे अवश्य ही एक विशेष रूप से भयानक मौत मरे होंगे। जिस समय यह नरसंहार किया गया, उस समय बरसात का मौसम था और सप्ताह में कुछ पानी रहता था, लेकिन अब सूखा है। और कोई भी आगंतुक इस भयानक दृश्य को देख सकता है। इसका निचला हिस्सा पूरी तरह से मानव हड्डियों से भरा हुआ है। आर्य समाज मिशनरी के पंडित ऋषि राम, जो मेरे पास खड़े थे, उन्होंने 30 खोपड़ियाँ गिनाईं। एक खोपड़ी विशेष उल्लेख की पात्र है। यह ऐसा कहा जाता है कि यह कुमारा पणिक्कर नाम के एक बूढ़े व्यक्ति की खोपड़ी है, जिसके सिर को आरी से धीरे-धीरे दो हिस्सों में काट दिया गया था। इतनी भयंकर थी इस मोपला विद्रोह की वीभत्‍सता।


विदेशी इतिहासकारों ने भी माना, कितना दुखदायी रहा हिन्‍दुओं के लिए ये समय


कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिल्स (यूसीएलए) एवं अन्‍य विश्‍वविद्यालयों में प्रोफेसर रहे इतिहासकार स्टैनले वोलपार्ट ने अपनी पुस्तकजिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ (1984) में लिखा है कि 'खिलाफत के खात्मे पर पूरे भारत में जहां-तहां मुसलमानों ने हिंदुओं पर गुस्सा उतारा, वहां उन्‍होंने हत्या, दुष्कर्म, जबरन धर्मांतरण, अंग-भंग और क्रूर अत्याचार किए।' आधिकारिक तौर पर, मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा 10,000 से अधिक हिंदुओं की हत्या कर दी गई थी। यह तो तत्‍कालीन ब्रिटिश गवर्नमेंट का आंकड़ा है, किंतु हकीकत में यह संख्‍या बहुत अधिक रही है।


बोल रहा था जिहादियों के सिर चढ़कर गजवा--हिंद का पागलपन


देखा जाए तो ऐसी अनगिनत घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं। मुस्‍लिम लीग का डारेक्‍ट एक्‍शन का आह्वान और उसके बाद हिन्‍दुओं के सामूहिक नरसंहार, धर्मान्‍तरण, महिला अत्‍याचार यहां तक कि इन जिहादियों ने बच्‍चों तक को नहीं बख्‍शा। कई पुस्‍तकें और ढेरों प्रसंग इतिहास में मौजूद हैं। अखण्‍ड भारत में तत्‍कालीन समय के अंग्रेज अत्‍याचार भी इस वीभत्‍सता के सामने गौण हो चुके थे। गजवा--हिंद का पागलपन तत्‍कालीन इस्‍लामवादियों के सिर पर इस तरह चढ़ा था कि जहां भी उनकी बहुसंख्‍यक संख्‍या थी, वहां कहीं भी गैर मुसलमान सुरक्षित नहीं था। नोआखाली में हजारों-हजार हिन्‍दू हत्‍याएं इसका एक सशक्‍त उदाहरण है।


इसी का परिणाम रहा जोकि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (Indian Independence Act 1947) युनाइटेड किंगडम की पार्लियामेंट द्वारा पारित किया गया। जिसके अनुसार ब्रिटेन शासित भारत को दो भागों (भारत तथा पाकिस्तान) में विभाजन किया गया था। यह अधिनियम 4 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद में प्रस्‍तुत हुआ और 18 जुलाई 1947 को स्वीकृत हुआ और 15 अगस्त 1947 को भारत दो भागों में बंट गया।


तब विभाजित भारत ने अपने लिए चुना पंथ निरपेक्षता का रास्‍ता


इसमें खास बात यह है कि धर्म के आधार पर बंटवारा अविभाजित भारत में रहनेवाले मुस्‍लिम नेताओं (मुस्‍लिम लीग) ने चाहा था। वह उन्‍हें मिल गया। विभाजन में पाकिस्‍तान मुस्‍लिम राष्‍ट्र बना। किंतु शेष भारत ने फिर भी बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं की संख्‍या होने के बाद भी अपने लिए हिन्‍दू राष्‍ट्र बनना स्‍वीकार्य नहीं किया। भारत ने पंथ निरपेक्षता का रास्‍ता चुना। वह पाकिस्‍तान की तरह एक मजहबी राज्‍य नहीं बना। इसीलिए ही जब भारत विभाजन के समय भारत में हिन्‍दू बस्‍तियों के बीच में रह रहे मुसलमान भविष्‍य का भय सोचकर नए बने पाकिस्‍तान में जा रहे थे, उन्‍हें भारत के बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं ने रोका और कहा कि क्‍या फर्क पड़ता है तुम्‍हारी पूजा पद्धति अलग है। तुम्‍हें कहीं जाने की जरूरत नहीं। यह देश उतना ही तुम्‍हारा है जितना कि हमारा; और इस तरह एक बड़ी संख्‍या मुसलमानों की बहुसंख्‍यक हिन्‍दुओं के बीच रहती रही। वह भी भारत के अन्‍य हिन्‍दुओं की तरह ही यहां के आम नागरिक हैं। किंतु पाकिस्‍तान,अफगानिस्‍तान में ऐसा नहीं हुआ। भारत विभाजन के वक्‍त 44 लाख हिंदू और सिख अपना सब कुछ छोड़कर, लुटपिटकर भारत में आए थे।


आंकड़े गवाही दे रहे पाकिस्‍तान-बांग्‍लादेश में कितनी घटी हिन्‍दू संख्‍या


इतने पर भी पाकिस्‍तान में जो बड़ी हिन्‍दू और सिख बस्‍तियां थीं, जहां वे बड़ी संख्‍या में रहते थे, वे भी इस्‍लामिक प्रशासन की प्रताड़ना के शिकार बनाए जाते रहे और आज भी बनाए जा रहे हैं शरिया कानून लागू है। जबरन धर्मांतरण और लड़कियों को उठाकर इस्‍लामवादी ले जाते हैं। विरोध करने पर मौत के घाट उतार दिया जाता है। नहीं तो ईश निंदा, (कुरान-प्रोफेट मोहम्‍मद का अपमान) करने के नाम पर सजा दिलवाने और आजीवन कारावास में रखने का काम किया जाता है। हिन्‍दू एवं सिख उपासना स्‍थलों पर लगातार आक्रमण, उन्‍हें नष्‍ट किए जाने के प्रयास, यहां तक कि हजारों हजार साल पुरानी सांस्‍कृतिक हिन्‍दू विरासत तक को नष्‍ट कर दिया गया है और यह अभी भी किया जा रहा है।


आंकड़े गवाही दे रहे हैं तत्‍कालीन समय के अकेले पश्चिमी पाकिस्तान में हिन्‍दुओं की संख्‍या 15 फीसदी थी, वह आज महज 1.6 फीसदी रह गई है। यही हाल बांग्‍लादेश का है बांग्लादेश की पहली जनगणना में हिंदुओं की आबादी जहां 9,673,048 थी और इस लिहाज से अगले 5 दशकों में यह संख्या बढ़कर 2 करोड़ के पार यानी 20,219,000 तक हो जानी चाहिए थी, लेकिन इनकी संख्या में गिरावट आती चली गई और इनकी संख्या महज 12,730,650 तक सिमट कर रह गई है।


हिन्‍दुओं की मूल एवं पितृभूमि हमेशा से भारत


ऐसे में अपनी संस्‍कृति को बचाने के लिए कई लोग पाकिस्‍तान और बाद में बने बांग्‍लादेश से भाग कर भारत में शरण लेने आते रहे। वे भारत सरकार से गुहार लगाते रहे, पीढ़‍ियां बदल गईं। कई परिवारों में चौथी पीढ़ी आ गई, लेकिन वे अब भी भारत में शरणार्थी थे। वे बार-बार यही कह रहे हैं, उनकी मूल एवं पितृभूमि हमेशा से भारत है। अपनी परम्‍परा और संस्‍कृति की रक्षा के लिए वे मुस्‍लिम नहीं बने, हमें मानवता के लिए संरक्षण दो। भारत का विभाजन उनके पूर्वजों ने नहीं चाहा था। जिन्‍होंने चाहा, उन्‍हें मिला। फिर हमें क्‍यों सजा दी जा रही है। भारत हमें अपने नागरिक के रूप में स्‍वीकार करे।


67 साल का लम्‍बा संघर्ष, फिर मोदी सरकार ने ली सभी शरणार्थ‍ियों की सुध


वर्षों गुजर गए, सरकार आईं और गईं, किंतु किसी ने उन लाखों शरणार्थ‍ियों के दर्द को महसूस नहीं किया। फिर जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार 2014 में आई, तब जाकर इन सभी शरणार्थ‍ियों की सुध लेना शुरू हुआ। लगातार इस पर कानूनी रास्‍ता क्‍या निकाला जा सकता है, इसके लिए मंथन आरंभ हुआ, जिसका परिणाम अब जाकर नागरिकता संशोधन कानून (सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट) यानी कि सीएए के रूप में सामने आया है।


अच्‍छा है अब 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से धार्मिक आधार पर प्रताड़ित होकर भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता दी जा सकेगी वे भी भारत के आम नागरिक की तरह अब स्‍वाभिमान के साथ खुली हवा में सांस ले सकेंगे। अब यह सभी भारत में शरणार्थी नहीं रहेंगे। अवैध नहीं कहलाएंगे।


इन सभी की तिलक, माला, देव पूजा, गंगा, गायत्री, कृपाण, गुरुग्रंथ साहेब पूजा बौद्ध धर्म की अभ्यास पूजा और अनुष्ठान जैन धर्म 24 तीर्थंकर पूजा, गृहस्थों के छह आर्यकर्मइज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। अरहंत भगवान् की पूजा। पारसियों की अग्नि को अत्यन्त पवित्र मानते हुए अहुरा मज़्दा की पूजा और ईसाई गिरिजा घरों में ईशू प्रार्थनाएं पंथ निरपेक्ष भारत से समान रूप से आगे भी गूंजती रहेंगी। जो हिन्‍दू, मुस्‍लिम, सिख, ईसाई एवं अन्‍य मत, पंथ, धर्म को माननेवाले भारत में पूर्व से रह रहे हैं, उनकी नागरिकता के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं है, वह तो सदैव ही भारत वासी हैं।

 
लेख

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

वरिष्ठ पत्रकार