मार्च 2007 : नंदीग्राम में कम्युनिस्टों ने किया था किसानों का नरसंहार और उनके परिवार की महिलाओं का बलात्कार

अपने 4 दशक के शासनकाल में कम्युनिस्ट नीतियों के चलते पश्चिम बंगाल जैसे समृद्ध राज्य को कम्युनिस्टों ने गर्त में ला दिया था। राज्य की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी, वहीं राजनीतिक हिंसा अपने चरम पर थी। कम्युनिस्टों की शासन प्रणाली के चलते पूरे प्रदेश में गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी और अभाव देखा जा सकता था।

The Narrative World    15-Mar-2024   
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पश्चिम बंगाल के पूर्वी मेदिनीपुर में एक नगर है नंदीग्राम
, जहां 14 मार्च 2007 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के कैडर ने राज्य की कम्युनिस्ट सरकार की पुलिस के साथ मिलकर स्थानीय किसानों का नरसंहार कर दिया था। इस नरसंहार को नंदीग्राम नरसंहार के नाम से जाना जाता है। यदि इस नरसंहार की तुलना जलियांवाला बाग नरसंहार और स्टालिन द्वारा किए गए नरसंहारों से भी करें, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।


भारत के लोकतंत्र में नंदीग्राम का नरसंहार एक ऐसा काला अध्याय है, जिसे वामपंथी मीडिया, कम्युनिस्ट विचारकों एवं एजेंडाधारी समूहों ने देश से छिपाने का प्रयास किया, हालांकि वो काफी हद तक कामयाब भी हुए, क्योंकि वास्तविकता में इस घटना को लेकर समाज में कोई व्यापक विमर्श और चर्चा कभी नहीं देखी गई। इस घटना को अंजाम देने के लिए तो कम्युनिस्ट पार्टी जिम्मेदार थी ही, लेकिन इस नरसंहार को छिपाने और दबाने के लिए कांग्रेस ने भी पर्याप्त भूमिका निभाई है।


दरअसल अपने 4 दशक के शासनकाल में कम्युनिस्ट नीतियों के चलते पश्चिम बंगाल जैसे समृद्ध राज्य को कम्युनिस्टों ने गर्त में ला दिया था। राज्य की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी, वहीं राजनीतिक हिंसा अपने चरम पर थी। कम्युनिस्टों की शासन प्रणाली के चलते पूरे प्रदेश में गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी और अभाव देखा जा सकता था।


इस बीच कम्युनिस्ट सरकार ने कुछ विदेशी उद्योगपतियों के साथ मिलकर रासायनिक कारखाने स्थापित करने हेतु विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण शुरू किया। इस बीच यह जानना भी जरूरी है कि यह औद्योगिक घराना, जिसके लिए यह सब किया जा रहा था, वह इंडोनेशिया का 'सलीम समूह' था, जिसका रासायनिक उद्योग यहां प्रस्तावित था।


इस उद्योग के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) अर्थात सीपीआईएम ने किसानों को बिना विश्वास में लिए उनके भूमि का अधिग्रहण करना शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट सरकार नंदीग्राम की 10,000 एकड़ जमीन पर कब्जा करना चाहती थी, जो स्थानीय गरीब किसानों की थी। स्थानीय किसान इस भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध थे और उन्होंने इसका विरोध करने के लिए भूमि रक्षा कमिटी बनाई है।


किसानों के समूह ने विरोध स्वरूप जनवरी से मार्च 2007 के बीच पूरे क्षेत्र की सड़कों को ब्लॉक कर दिया। इस दौरान कई कम्युनिस्ट नेताओं को यहां भगाया गया, वहीं कम्युनिस्ट सरकार द्वारा किसानों पर अंधाधुंध एफआईआर दर्ज किए गए।


कम्युनिस्ट सरकार की नाकामी और विदेशी उद्योग को किसानों की जमीन देने की जिद ने पूरे क्षेत्र में हिंसा का वातावरण पैदा कर दिया था। इस बीच किसानों की मजबूरी का फायदा उठाने माओवादी-नक्सली भी मौका तलाश रहे थे।


14 मार्च, 2007 को प्रशासन ने नंदीग्राम से किसानों की एकता को तोड़ने के लिए ऑपरेशन चलाना शुरू किया। 3000 से अधिक पुलिसकर्मियों को नंदीग्राम भेजा गया, जो किसानों को खत्म करने का आदेश लेकर निकले थे।


इस बीच कम्युनिस्ट सरकार के निर्देश पर पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी, जिससे किसान एक के बाद एक मरते गए। घटना के बाद कम्युनिस्ट सरकार ने तो मरने वालों के आधिकारिक आंकड़ें केवल 14 ही बताएं, लेकिन कुछ अपुष्ट खबरों एवं रिपोर्टों में कहा गया कि 100 से अधिक किसान इस नरसंहार के बाद 'लापता' हैं। 200 से अधिक किसान इस गोलीबारी के दौरान घायल हुए थे।


इस नरसंहार को पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने अंजाम दिया था। हालांकि इस बर्बरता पूर्वक किए गए नरसंहार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार अकेली नहीं थी, बल्कि परोक्ष रूप से उन्हें कांग्रेस का भी मौन समर्थन प्राप्त था। केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार को समर्थन देने की एवज में, उन्होंने इस मामले की कभी कड़ी केंद्रीय जांच होने ही नहीं दी।


“नंदीग्राम में हुए इस नरसंहार का मामला केवल किसानों की हत्या करने या पुलिस द्वारा गोली चलाने तक ही सीमित नहीं है, दरअसल यह इससे भी अधिक भयावह और नृशंस है। कुछ रिपोर्ट्स से यह जानकारी आई थी कि पुलिस बलों के साथ जो लोग फायरिंग कर रहे थे, उनमें कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता-नेता भी शामिल थे।”


इसके अलावा यह भी पता चला था कि घटनास्थल से जो गोलियां प्राप्त हुई हैं, उन्हें पुलिस के द्वारा उपयोग ही नहीं किया जाता है, बल्कि इसे अपराधियों द्वारा उपयोग किया जाता है। इसका स्पष्ट संकेत था कि पुलिस के भेष में कुछ कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और नेता भी थे जो अनाधिकृत रूप से किसानों का नरसंहार कर रहे थे।


यह घटना इतनी नृशंस थी कि एक पीड़ित ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा था कि पुलिस की गोली ने उसके किसान भाई के चिथड़े-चिथड़े कर दिए थे। जब उस मृत व्यक्ति के शरीर को परिजन ले जाने लगे तब कम्युनिस्ट सरकार की पुलिस ने शव को भी जबरन छीन लिया था।


वहीं किसान परिवार की महिलाओं ने यह भी बताया कि पुलिस की वर्दी में आए लोगों ने किसान परिवार की महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाओं को भी अंजाम दिया था। एक बुजुर्ग महिला ने बताया था कि उसके सामने पुलिस की वर्दी पहने लोगों ने दो युवतियों से दुष्कर्म किया था।


साथ ही एक अन्य पीड़ित महिला ने बताया था कि उसके साथ इतनी बेरहमी से ज्यादती की गई कि वो घंटों तक बेहोश पड़ी थी। इन महिलाओं की शिकायत पर ना कोई एफआईआर की गई, ना ही कोई स्वास्थ्य परीक्षण हो पाया।


“अब कल्पना कीजिए क्या पुलिस की वर्दी में इस हद तक किसानों के साथ हिंसा और दुष्कर्म करना बिना कम्युनिस्ट सरकार के समर्थन हो सकता है क्या ? इस पुलिस की वर्दी में जो कम्युनिस्ट कैडर गोली चला रहे थे, क्या वही दुष्कर्म भी कर रहे थे ? ”


इन सवालों के जवाब हमें कभी नहीं मिल पाए, ना ही पीड़ितों को कभी उचित न्याय मिल पाया, क्योंकि राज्य की कम्युनिस्ट सरकार और केंद्र की कांग्रेस सरकार ने इस पूरे मामले को दबा दिया।


हालांकि आज जो कम्युनिस्ट समूह, विचारक, तथाकथित बुद्धिजीवी और पार्टियां किसानों के हित की बात करती हैं, उनकी सच्चाई यही है कि उन्होंने अपने शासनकाल में किसानों का ना सिर्फ बर्बरता से नरसंहार किया, बल्कि उनके घर की महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाओं को भी अंजाम दिया।

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