धर्मांतरण के विषय पर सुप्रीम कोर्ट का रुख उठा रहा है न्याय व्यवस्था पर प्रश्न

ईसाई पक्ष के सुरेश कार्लटन ने याचिका क्रमांक WP/9462/24 प्रविष्ट की। लेकिन हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कार्यक्रम की अनुमति नहीं दी। इसके बाद भी ईसाई पक्ष ने अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ी। स्थानीय प्रशासन और हाईकोर्ट से अनुमति निरस्त होने के बाद ईसाई पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट का रास्ता अपनाया।

The Narrative World    13-Apr-2024   
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16 मार्च 2024 को लोकसभा चुनावों की आचार संहिता लागू हुई। आचार संहिता में किसी भी प्रकार का सामाजिक कार्यक्रम, सभा, यात्रा आदि करने के लिए अनुमति ली जाती है तथा प्रशासन की निगरानी में उसे क्रियान्वित किया जा सकता है। लेकिन मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में कुछ अलग ही घटित हुआ।


शहर में 10 अप्रेल को ईसाई प्रार्थना सभा द्वारा ली गई अनुमति के आधार पर ईसाई रिलीजन के प्रचारक पॉल दिनाकरण की सभा आयोजित की जानी थी। कुछ सामाजिक संगठनों ने इसका विरोध किया और आरोप लगाया कि यह कार्यक्रम मतांतरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जा रहा है, जिसमें अनुसूचित वर्ग और जनजाति वर्ग के लोगों को भी बुलाया जा रहा है।


इन संगठनों ने प्रदर्शन करके ज्ञापन दिया तथा प्रशासन से शिकायत की, जिसके आधार पर प्रशासन ने कार्यक्रम की अनुमति निरस्त कर दी। इसके बाद ईसाई पक्ष ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।


ईसाई पक्ष के सुरेश कार्लटन ने याचिका क्रमांक WP/9462/24 प्रविष्ट की। लेकिन हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कार्यक्रम की अनुमति नहीं दी। इसके बाद भी ईसाई पक्ष ने अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ी। स्थानीय प्रशासन और हाईकोर्ट से अनुमति निरस्त होने के बाद ईसाई पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट का रास्ता अपनाया।


“सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई मत का पक्ष लिया और उन्हें अनुमति दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार और इंदौर के कलेक्टर को समन्वय बैठाने और कार्यक्रम की व्यवस्था का आदेश भी दिया। इस जीत के बाद ईसाई पक्ष ने इंदौर में प्रेसवार्ता की और कार्यक्रम की नई दिनांक शीघ्र बताने की घोषणा भी की।”


सुप्रीम कोर्ट की यह अनुमति न्याय व्यवस्था पर प्रश्न खड़े करती है। प्रश्न उठते हैं कि जब सुप्रीम कोर्ट पूर्व में यह मान चुका है कि धर्मांतरण एक गंभीर समस्या है, तो किस आधार पर ऐसी संदेहास्पद सभा की अनुमति दी ?


दूसरा प्रश्न यह उठता है कि ईसाई कार्यक्रम का विरोध करने वाले पक्ष के मत का सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान क्यों नहीं लिया जबकि वह इस कार्यक्रम में जनजाति समाज को मतांतरित करने के लिए भ्रमित करने के आरोप लगा रहा हैतीसरा प्रश्न यह उठता है कि पॉल दिनाकरण जैसे व्यक्ति के बारे में जाने बिना सुप्रीम कोर्ट ने अनुमति कैसे दी ?


विदित हो कि तमिलनाडु के पॉल दिनाकरण की छवि आपराधिक रही है। 23 जनवरी 2023 में 'द हिंदु' समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार पत्र के अनुसार आयकर विभाग द्वारा उनकी संपत्तियों पर डाले गए छापों में 4 किलो से अधिक सोना और 120 करोड़ की बेहिसाब संपत्ति जब्त की थी। आयकर विभाग के अनुसार पॉल की कंपनियां और ट्रस्ट 12 से अधिक देशों में फैले हैं तथा इनके पास लगभग 200 बैंक खाते हैं।


वहीं राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने 3/11/2023 को फाइल संख्या AR/ND/ 1208/2023-23/ NE CELL/DD10949 के आधार पर केस भी दर्ज किया है।


जैसा कार्यक्रम इंदौर शहर में किया जाना था, उसी प्रकार का तीन दिवसीय कार्यक्रम 27 ऑक्टोबर 2023 को अरुणाचल प्रदेश के इटानगर में भी किया गया था। NCPCR के आधिकारिक वक्तव्य के अनुसार पॉल दिनाकरण पर उनके परिवार सहित प्रकरण प्रविष्ट किया गया क्योंकि उन्होंने अपनी सभी में कथित जादुई शक्तियों से इलाज करने के कार्यक्रम में नाबालिग बच्चों का दुरुपयोग किया था।


उन्होंने जनजाति समाज के नाबालिग बच्चों का प्रयोग कर के कथित रूप से उन्हें जादू से ठीक करके का स्वांग किया था जिसके अंतर्गत आयोग ने cpcr एक्ट, 2005 की धारा 13() के आधार पर पॉल को अभियुक्त बनाया था।


यह सोचने योग्य है कि पॉल दिनाकरण, जो स्वयं अपराधी भी है तथा उसकी संदेहास्पद गतिविधियों से उस पर आरोप लगते हैं कि वह जनजाति समाज का धर्मांतरण करता है, तो उसका ट्रैक रिकॉर्ड देखने की बजाय सुप्रीम कोर्ट ने सीधे कार्यक्रम करने की अनुमति कैसे दी ?


इस प्रकार की घटनाएं पहले भी हो चुकी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से ईसाई मिशनरियों का पक्ष लिया तथा धर्मांतरण जैसी समस्या पर निराकरण ना करके याचिकाकर्ता पर फटकार ही लगाई। इससे सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों पर संदेह बढ़ता जाता है कि शायद वे धर्मांतरण करने वालों को संरक्षण दे रहे हैं।


6 सितंबर 2023 को डी वाई चंद्रचूड़, जे बी परदवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने कर्नाटक के याचिककर्ता द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिसमें केंद्र सरकार को धोखे से किए जाने वाले धर्मांतरण को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की अपील की गई थी।


सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस विषय में कहा था किअदालत को इन सब में क्यों पड़ना चाहिए। कोर्ट सरकार को परामर्श कैसे दे सकती है।कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा था किसलाह देना हमारे क्षेत्राधिकार में नहीं, याचिका खारिज की जाती है।


“आश्चर्य की बात है कि यही सुप्रीम कोर्ट आए दिन केंद्र सरकार को परामर्श देती है। समलैंगिक विवाह जैसे सांस्कृतिक विषयों पर सुप्रीम कोर्ट स्वयं रुचि लेता है । यही सुप्रीम कोर्ट ने तब क्यों कहा कि यह केंद्र को सलाह देने के क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं ? कुछ समय पहले उठा एलेक्टोरल बॉन्ड का विषय भी सुप्रीम कोर्ट के परामर्श पर ही उठाया गया था।”


सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय में स्वयं रुचि ली थी तथा केंद्र-सरकार को दिशा-निर्देश भी दिए थे। लेकिन जब बात धर्मांतरण पर केंद्र सरकार को सलाह देने की आई तो सुप्रीम कोर्ट ने बहाना बनाते हुए पल्ला झाड़ लिया कि वह केंद्र को सलाह नहीं दे सकते। न्यायमूर्तियों की ऐसी गतिविधियां यह संदेह उत्पन्न करती है कि वे wokeism और christianity की मानसिकता से ग्रस्त हैं।


सुप्रीम कोर्ट के ऐसे प्रकरण लगातार सामने आ रहे हैं जहां वह ईसाई मिशनरियों और उनके द्वारा किए जा रहे धर्मांतरण को न्यायिक ढंग से बचाकर उन्हें संरक्षण दे रहा है। इसी वर्ष 5 जनवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया जो उनके एकतरफा अन्याय को सिद्ध कर देगा।


मध्यप्रदेश की एक महिला ने यह दावा किया था कि उसे, उसके पति और उसके बच्चों को पैसों का प्रलोभन देकर ईसाई धर्म में मतांतरित होने का दबाव बनाया गया और उसे परेशान भी किया जा रहा है। इसलिए उसने चर्च जाना भी बंद कर दिया है। महिला की शिकायत पर निचली अदालत में ईसाई मिशनरी अजय लाल के खिलाफ काईवाई लंबित थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई मिशनरी अजय लाल के खिलाफ लंबित कार्रवाई होने पर रोक लगा दी। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यहाँ भी पीठ डी वाई चंद्रचूड़, जे बी परदवाला और मनोज मिश्रा की ही थी।


इन प्रकरणों से प्रथम दृष्ट्या यही सिद्ध हो रहा है कि कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में न्याय व्यवस्था को ताक पर रखकर खुलेआम धर्मांतरण करवाने वाली शक्तियों को संरक्षण दे रहे हैं। धर्मांतरण एक गंभीर विषय है।


वर्ष 1956 में जस्टिस नियोगी के नेतृत्व में कमेटी हुई थी जिसने मध्यप्रदेश में ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे धर्मांतरण पर विस्तृत विवरण किया था। उसमें स्पष्ट लिखा गया था कि ईसाई मिशनरियाँ शिक्षा, सेवाएं, उपचार आदि के माध्यम से ईसाई धर्मांतरण करती है। मध्यप्रदेश, जहां जनजाति समाज का एक बड़ा तबका रहता है। वह ईसाई मिशनरियों की रडार पर है।


धर्मांतरित करने के बाद मिशनरियाँ व्यक्ति से उसका नाम, पूर्वज, भगवान और संस्कृति सभी छीन लेती है जो कि संवैधानिक दृष्टि से एक अपराध है तथा धार्मिक स्वतंत्रता का भी उल्लंघन है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट इन मानबिन्दुओं को पूरी तरह नकार कर ईसाई मिशनरियों को एकतरफा संरक्षण दे रहा है।


जिस सुप्रीम कोर्ट को धर्मांतरण रोकने के लिए उत्प्रेरक बनना चाहिए था वह इससे पल्ला झाड़कर उल्टा धर्मांतरण करने वालों की न्यायिक सहायता कर रहा है। यह स्थिति चिंतनीय है क्योंकि जिस संस्थान के न्याय को भारत की जनता सर्वोच्च मानकर उसपर विश्वास करती है, वह आज भूरे साहेबों के हाथों का खिलौना बनकर भारत के मूलनिवासी हिंदुओं को ही न्याय से छल रहा है।


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नोट - यह लेखक के निजी विचार हैं