दंड नीति (भाग 1): अंत का आरंभ - नक्सलवाद के ढहते गढ़

गढ़चिरौली से सुकमा तक नक्सलवाद की कमर टूट चुकी है। बसवराज की मौत और भूपति का आत्मसमर्पण इस सशस्त्र आतंकवाद की अंतिम घड़ी साबित हो रहे हैं। भारत सरकार की बहुआयामी दंडनीति, सुरक्षा, विकास और पुनर्वास ने जंगलों की बंदूकें झुकवा दी हैं। यह भारत के भीतर की सबसे बड़ी जंग की निर्णायक जीत है।

The Narrative World    16-Oct-2025   
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गढ़चिरौली के घने जंगलों में जब मल्लोजुला वेणुगोपाल राव उर्फ भूपति उर्फ सोनू दादा ने 60 साथियों के साथ मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के सामने हथियार रखे, तो यह केवल एक आत्मसमर्पण नहीं था, यह एक विचारधारा की हार थी।


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वही भूपति, जो चार दशकों से देश के सबसे घातक माओवादी अभियानों का हिस्सा रहा, जिसने छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के जंगलों को आतंक की छाया में ढकेल दिया था, अब उसी राज्य की पुनर्वास नीति के सामने नतमस्तक था। इस दृश्य ने भारत के सबसे लंबे सशस्त्र विद्रोह नक्सलवाद के अंत की शुरुआत को प्रतीकात्मक रूप में दर्ज किया।

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एक समय था जब नक्सलवाद को भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिएसबसे बड़ी चुनौतीकहा गया था। 2010 में हिंसा की 1,936 घटनाएँ दर्ज हुईं; 1,005 लोग मारे गए। लेकिन 2024 आते-आते यह आँकड़ा घटकर 374 घटनाओं और 150 मौतों तक सिमट गया।


“यह गिरावट संयोग नहीं, बल्कि एक सुनियोजित “दंडनीति” का परिणाम थी, जिसमें सरकार ने कठोर सुरक्षा अभियानों, वैचारिक प्रतिकार और विकास आधारित पुनर्निर्माण को एक साथ साधा।”

 


गृह मंत्रालय के अनुसार, 2025 में 312 माओवादियों को मारा गया, 836 गिरफ्तार किए गए और 1,639 ने आत्मसमर्पण किया। यह आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि लाल गलियारा अब सिकुड़कर कुछ जिलों तक सीमित रह गया है।


छत्तीसगढ़ में केवल बीजापुर, सुकमा और नारायणपुर हीअत्यधिक प्रभावितजिलों की श्रेणी में बचे हैं। 2013 में जहाँ 126 जिले नक्सल हिंसा की चपेट में थे, 2025 में वह संख्या घटकर 18 और अब मात्र 11 रह गई है।


इस विजय यात्रा का निर्णायक मोड़ आया मई 2025 में, जब सुरक्षा बलों ने अबूझमाड़ के दुर्गम जंगलों में माओवादी आतंकी संगठन के महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू को ढेर किया। यह वही इलाका था जिसे दशकों सेमाओवादी गढ़कहा जाता था।


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कर्रेगुट्टा पहाड़ी अभियान में सुरक्षा बलों ने पहली बार उन स्थलों तक पहुँच बनाई, जिन्हें कभी असंभव माना जाता था। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसेनक्सलवाद के खिलाफ सबसे बड़ा ऑपरेशन और ऐतिहासिक सफलताकहा था।


बसवराजू की मौत ने माओवादी संगठन की रीढ़ तोड़ दी, और उसके ठीक पाँच महीने बाद भूपति का आत्मसमर्पण उस विचारधारा के ताबूत पर अंतिम कील साबित होने वाला है।


पूर्व डीजी आर.के. विज के शब्दों में, “बसवराजू की सुरक्षा परिधि टूटना नक्सल आंदोलन के लिए वैचारिक और सामरिक दोनों स्तरों पर झटका था। अब जंगलों में भय नहीं, आत्मसमर्पण का माहौल है।


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भारत सरकार की नीति स्पष्ट रही है कि "हिंसा के प्रति शून्य सहनशीलता और सुधार के प्रति पूर्ण अवसर।" नक्सलवाद को अबवामपंथी उग्रवादनहीं, बल्किसशस्त्र आतंकवादकी श्रेणी में देखा जा रहा है।


संवेदना नहीं, समर्पण”, यही वह सूत्र है जिसने छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और महाराष्ट्र में एक-एक कर जंगलों की हिंसक विरासत को खत्म किया।


कांकेर जिले में हाल ही में सौ नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें टॉप लीडर राजू सलाम, कमांडर प्रसाद और मीना जैसे माओवादी शामिल हैं। राजू सलाम पिछले दो दशकों में जिले की लगभग हर बड़ी वारदात का सूत्रधार रहा।


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अब वही व्यक्ति बीएसएफ कैंप में खड़ा होकर राष्ट्रगान के बाद सरकार के पुनर्वास कार्यक्रम का लाभ लेने जा रहा है, यह दृश्य इस युद्ध की वैचारिक जीत का साक्ष्य है।


कथित रूप सेक्रांतिकारी संघर्षकहे जाने वाले इस आंदोलन का ढाँचा अब अंदर से बिखर चुका है। माओवादी पोलित ब्यूरो के सक्रिय सदस्य अब गिने-चुने रह गए हैं, और संगठन की निचली इकाइयों में वैचारिक दरारें खुलकर सामने आ चुकी हैं।


भूपति के पत्रों में हिंसा कोराजनीतिक उपकरणके रूप में त्यागने की बात ने पार्टी के भीतर तीखा मतभेद पैदा किया। यह पहली बार है जब माओवादी नेतृत्व नेसशस्त्र संघर्ष समाप्त करनेका आह्वान किया है, जो इस विचारधारा की आत्मघोषित असफलता का प्रमाण है।


लाल गलियारा”, जो कभी नेपाल के पशुपति से लेकर आंध्र के तिरुपति तक फैलने का स्वप्न देखता था वह अब तीन जिलों तक सिमट चुका है। सरकार ने इस पूरी लड़ाई कोकानून और विकासदोनों मोर्चों पर लड़ा।


“2014 से 2024 के बीच सैकड़ों किलोमीटर सड़कें बिछीं, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र खुले, मोबाइल नेटवर्क पहुँचा, और स्थानीय युवाओं के लिए “लिवलीहुड कॉलेज” तथा “युवा कौशल मिशन” शुरू किए गए। इन्हीं पहलों ने माओवाद की स्थानीय समर्थन की सबसे बड़ी ताकत को खत्म कर दिया। अब वही युवा हथियार की जगह टैबलेट या मोबाइल लेकर भविष्य की योजना बना रहा है।”

 


नक्सलवाद की हार केवल जंगलों में नहीं हुई, यह वैचारिक मोर्चे पर भी निर्णायक रही। वर्षों तक विश्वविद्यालयों, साहित्यिक समूहों और तथाकथित मानवाधिकार मंचों ने इस आंदोलन कोजनसंघर्षकहकर नैतिक वैधता दी।


लेकिन अब जब उन्हीं जंगलों में हजारों माओवादी स्वयं आत्मसमर्पण कर रहे हैं, यह मिथक भी ध्वस्त हो चुका है। भारत सरकार ने इस वैचारिक युद्ध कोविकास और न्यायके हथियारों से जीता है, न कि माओवाद के तर्कों से।


जिस दृढ़ निश्चय से केंद्र सरकार ने मार्च 2026 तकनक्सलवाद के पूर्ण उन्मूलनका लक्ष्य तय किया है, और आज जब बीजापुर, सुकमा और नारायणपुर जैसे जिले ही सबसे अधिक प्रभावित बचे हैं, यह उसी विश्वास का परिणाम है कि भारत नक्सलवाद के अंत के द्वार पर खड़ा है।


अब यह लड़ाई केवल सुरक्षा बलों की नहीं, बल्कि समाज की है, ताकि आने वाली पीढ़ी नक्सलवाद को किसीसामाजिक न्यायके आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि एक हिंसक, असफल और आतंकवादी परियोजना के रूप में याद करे।