बाबा कार्तिक उरांव: वह आवाज़ जिसने जनजातीय हक़ को इतिहास में दर्ज किया

झारखंड के गुमला से निकले बाबा कार्तिक उरांव ने जनजातीय अस्मिता को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया, हर नीति में न्याय और समानता का स्वर भरा।

The Narrative World    28-Oct-2025
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बाबा कार्तिक उरांव ने जनजाति समाज के अधिकार, अस्मिता और विकास के लिए आजीवन संघर्ष किया। उनका जीवन सामाजिक न्याय, शिक्षा और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गया।
 
भारत के जननायक बाबा कार्तिक उरांव का नाम जनजाति समाज के गौरव और संघर्ष की पहचान है। उन्होंने उस दौर में आवाज उठाई जब जनजाति समुदाय के हक और अस्तित्व को अक्सर अनदेखा किया जाता था।
 
29 अक्टूबर 1924 को झारखंड के गुमला जिले के करौंदा लिटाटोली गांव में जन्मे बाबा कार्तिक उरांव ने बचपन से ही समाज की बेहतरी का संकल्प लिया। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की और देश के पहले जनजातीय इंजीनियरों में शामिल हुए। उनकी सोच थी कि शिक्षा ही समाज को सशक्त बना सकती है, और इसी विचार ने उन्हें राष्ट्र स्तर का नेता बनाया।
 
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बाबा कार्तिक उरांव ने जनजातियों की जमीन की सुरक्षा को जीवन का मिशन बनाया। उन्होंने भूदान आंदोलन के दौरान लूटी गई जमीनें वापस दिलाने के लिए “भूमि वापसी अधिनियम” बनवाया। यह कदम जनजाति समाज के लिए ऐतिहासिक साबित हुआ। उनके प्रयासों से हजारों लोगों को उनकी जमीन दोबारा मिली और आत्मनिर्भरता की राह खुली।
 
वे जानते थे कि बिना जमीन और शिक्षा के समाज का भविष्य नहीं बन सकता। इसलिए उन्होंने बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। इस संस्था ने क्षेत्र के किसानों और युवाओं को आधुनिक कृषि तकनीक से जोड़ा।
 
बाबा कार्तिक उरांव ने न्याय व्यवस्था और प्रशासनिक भागीदारी में जनजातीय प्रतिनिधित्व की लड़ाई लड़ी। उन्होंने 1972 में रांची में पटना हाईकोर्ट की अस्थायी खंडपीठ के गठन के लिए प्रयास शुरू किए, जो 1976 में स्थायी रूप से स्थापित हुई।
 
उन्होंने छोटानागपुर और संताल परगना विकास प्राधिकरण के गठन की भी पहल की और इसके पहले उपाध्यक्ष बने। इससे जनजातीय समाज को शासन और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी का अवसर मिला।
 
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उनकी दूरदर्शिता से “ट्राईबल सब प्लान” नीति अस्तित्व में आई। इस योजना ने जनजाति बहुल क्षेत्रों के विकास को नीति निर्धारण के केंद्र में लाने का काम किया। इसके अलावा, उन्होंने 1968 में “अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद” की स्थापना की, जो शिक्षा, रोजगार और सामाजिक जागरूकता के क्षेत्र में काम करती रही।
 
बाबा कार्तिक उरांव ने कन्वर्जन के खिलाफ ठोस रुख अपनाया। उन्होंने संसद में कहा था कि जो लोग धर्म बदल चुके हैं, उन्हें जनजातीय आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। उनका मानना था कि जनजाति समाज की सांस्कृतिक जड़ें भारतीय सनातन परंपरा से जुड़ी हैं। उन्होंने जनजातियों को अपनी पहचान, परंपरा और आस्था पर गर्व करने का संदेश दिया।
 
 
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बाबा कार्तिक उरांव का जीवन समाज के हर वर्ग के लिए प्रेरणा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई राष्ट्रीय नेताओं ने उन्हें जनजाति सशक्तिकरण का प्रतीक बताया है। उनकी नीतियों और विचारों ने आने वाली पीढ़ियों को आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की राह दिखाई।
उनकी सोच थी कि “विकास तभी सार्थक है जब समाज का सबसे पिछड़ा व्यक्ति भी उसमें शामिल हो।” यही सोच आज भी देश के विकास के केंद्र में बनी हुई है।
 
बाबा कार्तिक उरांव ने अपने कर्म, नीतियों और साहस से दिखा दिया कि संघर्ष की राह कठिन जरूर होती है, लेकिन न्याय और आत्मसम्मान की जीत निश्चित होती है। उनका जीवन आज भी हर उस व्यक्ति के लिए प्रकाशस्तंभ है जो अपने समाज के अधिकारों के लिए खड़ा होना चाहता है।
 
लेख
शोमेन चंद्र