आज 31 अक्टूबर 1875 को भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जी का जन्म हुआ था। सरदार पटेल केवल स्वतंत्रता सेनानी या प्रशासक नहीं थे, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद के स्वरूप को सभ्यतागत दृष्टि से समझने वाले गहन चिंतक थे। उन्होंने यह सिद्ध किया कि भारत कोई नया राष्ट्र नहीं, बल्कि हजारों वर्षों से अस्तित्व में रही एक जीवंत सभ्यता का आधुनिक रूप है। 560 से अधिक रियासतों का एकीकरण कर उन्होंने भारत को संभावित विखंडन से बचाया और राष्ट्रीय एकता की भावना को मजबूत किया।
राष्ट्रवाद कोई पश्चिमी विचार नहीं, बल्कि समाज के हजारों वर्षों के अनुभव, चिंतन और साझा सांस्कृतिक विरासत का प्रतिफल है। चाणक्य के समय में भी राष्ट्र की अवधारणा स्पष्ट थी। पटेल ने भारत की सभ्यतागत एकता को ही उसकी राष्ट्रीय पहचान के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने भारत को केवल भौगोलिक इकाई के रूप में नहीं, बल्कि एक पवित्र भूमि के रूप में देखा, जिसने दर्शन, धर्म, भाषाओं और ज्ञान की परंपराओं को जन्म दिया। उनका राष्ट्रवाद पश्चिमी आधुनिकता का अंधानुकरण नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की आत्मा के अनुरूप आधुनिकता का अपनत्व था।
पटेल के अनुसार, भारत राजनीतिक सीमाओं से नहीं, बल्कि साझा सभ्यतागत मूल्यों से एकजुट रहा है। धार्मिक स्थलों, पुण्य तीर्थों, महाकाव्यों, त्योहारों और सांस्कृतिक प्रतीकों ने भारत को एक इकाई के रूप में जोड़ा। उन्होंने कहा था, “India was not born with independence, it was only reawakened” अर्थात 1947 की स्वतंत्रता भारत के पुनर्जागरण का क्षण था, उसका जन्म नहीं। उनका राष्ट्रवाद शासन की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि भारत की प्राचीन पहचान का पुनर्पुष्टिकरण था।
पटेल ने राष्ट्र को सर्वोच्च माना। वे समावेशी थे, किन्तु स्पष्ट थे कि कोई भी समूह विशेषाधिकारों के नाम पर राष्ट्रीय एकता को कमजोर नहीं कर सकता। उनके लिए विविधता एकता की आधारशिला थी, विभाजन का कारण नहीं। उन्होंने चेताया था कि राष्ट्रीय एकता के कमजोर पड़ने से भारत की सभ्यतागत विरासत फिर से खतरे में पड़ सकती है।
इसके विपरीत, मार्क्सवादी विचारधारा राष्ट्रवाद को वर्ग संघर्ष की उपज मानती है। मार्क्स के अनुसार, राष्ट्र-राज्य पूंजीवाद की जरूरत है और यह मजदूर वर्ग को विभाजित करती है। उनका नारा था, “दुनिया के मजदूरों, एक हो!” इस विचारधारा में राष्ट्रीय सीमा, सांस्कृतिक पहचान, परंपराएं सब अप्रासंगिक हैं। भारत के संदर्भ में, यह दृष्टि हमारी सभ्यतागत जड़ों को नकारती है और सांस्कृतिक विविधता को अवहेलित करती है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारत को सभ्यता के रूप में नहीं, बल्कि केवल वर्ग संघर्ष के रूप में देखा, जो हमारी ऐतिहासिक वास्तविकता से मेल नहीं खाता।
आज जब क्षेत्रवाद, पहचान की राजनीति और वैचारिक विभाजन के दौर में हैं, पटेल का सभ्यतागत एकता का संदेश और भी सार्थक हो जाता है। उनका मानना था कि आज़ादी के बाद भारत को अपनी प्राचीन विरासत से शक्ति लेनी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकीकरण और संस्थागत मजबूती पर उनका जोर भारत की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी वास्तविकता को पहचानने का दृष्टिकोण था। “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” केवल एक प्रतिमा नहीं, पटेल के आदर्शों की प्रतीक है, जो भारत की एकता और सामूहिक चेतना को दर्शाती है।

पटेल ने कम्युनिस्ट विचारधारा को राष्ट्र-विरोधी माना। उनकी पुत्री मणिबेन पटेल की डायरी “Inside Story of Sardar Patel” में दर्ज है कि 13 सितंबर 1948 को उन्होंने कहा, “If we have to build up the nation, Communists would have no place there.” उन्होंने 7 नवंबर 1950 को नेहरू को पत्र में लिखा, “Communism is no shield against imperialism.” दूसरी ओर, कम्युनिस्टों ने पटेल पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश का आरोप लगाया। 1948 में मार्क्सवादी नेता पी. सुंदरैया ने पटेल पर फासिस्ट शासन कायम करने का आरोप लगाया। पटेल के निधन के दो दशक बाद भी कम्युनिस्ट पत्रिकाओं ने उन्हें “प्रतिक्रियावादी” और “सांप्रदायिक” करार दिया।
भारत के संदर्भ में सरदार पटेल के विचार ही सामयिक और यथार्थवादी हैं। उन्होंने राष्ट्र को सर्वोपरि रखा और उसकी एकता के लिए जीवनभर संघर्ष किया। उनका राष्ट्रवाद भारतीय सभ्यता, विविधता और लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा था। मार्क्सवाद भारत की जड़ों को काटने का प्रयास करता है और भारतीय समाज के लिए अप्रासंगिक है। इसलिए, जब प्रश्न उठता है, “किसको मानें – पटेल या मार्क्स?”, उत्तर स्पष्ट है – हमें पटेल का मार्ग चुनना चाहिए, क्योंकि उन्होंने भारत को जोड़ा, जबकि मार्क्स का दर्शन इसे तोड़ना चाहता है।
लेख
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी