संघ के सौ वर्ष: शीर्ष से तल तक संघर्ष, जो सकारात्मकता न छोड़े उसका नाम स्वयंसेवक

संघर्षों से भरा सौ साल का सफर, स्वयंसेवक हर परिस्थिति में सकारात्मकता नहीं छोड़ते।

The Narrative World    04-Oct-2025
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बिना बाड़ का खलिहान। 'दुल्हन' (आईफोमिया) की लकड़ी पर टंगी झंडेनुमा एक पन्नी (प्लास्टिक बैग), सामने खड़े छाती पर दाहिने हाथ का अंगूठा लगाकर 'नमस्ते सदा वत्सले' गाते ग्रामीण बच्चे। गोल घेरा बनाकर एक हाथ में दुल्हन की लकड़ी लेकर एक दूसरे को तेजी से थमाते हुए बच्चे। कोने में खड़ा 17 साल का किशोर आँख बंद करके मुँह से आवाज निकाल रहा है... किररररररर और एकदम से वह कहता है.... कट। कट कहते ही लकड़ी जिसके हाथ पाई जाती है वह गोल घेरे से बाहर। इस खेल का नाम था करंट। आप इसे म्यूजिकल चेयर कह सकते हैं। वही 17 साल का किशोर बीच में खड़ा है। चारों ओर बच्चे गोल घूम रहे हैं। वह चिल्लाता है, जय शिवाजी, बच्चे जोर से चिल्लाते हैं जय भवानी।
 
यह कोई अठासी नवासी का वक्त रहा होगा। यही सिलसिला था बच्चों का सुबह से। इस समय संघ की शाखाएँ गाँवों में आम बात नहीं थीं। लेकिन यह किशोर अपने जोश के साथ 50 से अधिक बच्चों के साथ खलिहान में शाखा लगाता था। सब जुटते, सूर्य नमस्कार करते, खेलते फिर लकड़ी पर पन्नी लटकाई जाती और सब एक साथ कतार में खड़े होकर प्रार्थना करते। 'नमस्ते सदा वत्सले...' एक सुर में गूँज उठता।
 
यह सिलसिला गाँव में चर्चा का विषय बन गया। 17 साल के इस किशोर का नाम था बाबू। बाबू गाँव के बच्चों को इकट्ठा करके कभी रामलीला करवाता, कभी नवरात्रि के पर्व में झाँकियों में देवी देवता बनाकर बिठाता, गणेशोत्सव पर खुद हाथों से मिट्टी के गणेश बनाकर, घर की वेस्टेज सामग्री से झाँकी सजाता। ये झाँकियाँ अत्याधुनिक जागृत झाँकियों से कम नहीं लगती थीं। दुर्गा की झाँकी में चाय की पत्ती के पैकेट में निकलने वाला चमकीला कागज मुकुट बनाने के काम आता तो चिमनी से आले में उतर आई कालिख राक्षसों की मूँछ बनाने के काम आती। बाबू ने बच्चों को एक साथ जोड़े रखने और संघ की शाखाओं में नियमित बनाने के लिए और भी कई चीजें कीं, जैसे कि जो भी एक महीने लगातार शाखा में आएगा तो उसे 'हैलो नहीं जय श्रीराम कहो' वाला स्टीकर मिलेगा। ऐसे ही नियमित शाखा में शामिल होने वालों को एक छोटी डायरी मिलती।
 
बीड़ी पीना, पैसा खेलना (एक प्रकार का जुआ) गाँव के बच्चों के लिए आम बात थी। लेकिन बाबू इन बच्चों को क्रिएटिविटी में लगाता। गणेशोत्सव हो, दुर्गोत्सव, गणतंत्र या स्वतंत्रता पर बाबू की सेना सदा रचनात्मकता के लिए तैयार रहती।
 
एक बार बाबू के आग्रह पर उदयपुरा के संघ से जुड़े दायित्वों वाले राजेश कटारे, एलआईसी वाले शर्माजी अपनी स्कूटर से गाँव पहुँचे। वे देखकर दंग रह गए कि किसी दूर दराज गाँव में भी ऐसी शाखाएँ लग सकती हैं। अनुशासित बच्चे खलिहान में घास साफ करते, झाड़ू लगाते, बेरी के पेड़ के नीचे गिरे बेर बीनकर सुखाने डालते, कबड्डी, कुश्ती, अखाड़े के लिए जमीन को गोड़ते और भी कई सारे काम करते।
 
संघ की रचनात्मकता को नया रंग देते बाबू अपने काम में मशरूफ थे। लेकिन संघ और संघर्ष का नाता बहुत करीबी है। हर समाज, वर्ग में एक वर्ग ऐसा होता है, जिसे एक आँख में शोषण और दूसरी आँख में वितंडा दिखाई देता है। एक दिन सुबह पूरे खलिहान में किसी ने मल त्याग करके फैला दिया। माहौल ऐसा कि बच्चे सूर्यनमस्कार तो क्या खड़े भी न हो पाएँ। बाबू और उसकी सेना कुछ समझ पाती इससे पहले बताया गया यह हरकत रंपू की है। रंपू ने स्कूल का कभी मुँह नहीं देखा, बस उसे किसी ने बता दिया कि बाबू इन बच्चों के बहाने अपना खलिहान साफ करवाता है। घास छिलवाता है और बेर बिनवाता है। रंपू यहीं नहीं रुका, उसने यह भी बताया कि धमनी उस पार के बच्चों से ज्यादा काम कराया जाता है और धमनी इस पार वालों से नहीं। धमनी असल में गाँव का एक ऐसा रास्ता था जो गाँव को दो हिस्सों में बाँटता था। रंपू यह कहाँ से लेकर आया था, यह बहुत बाद में पता चलेगा। असल में बाबू गाँव के सर्वाधिक पढ़े लिखे, पैसे वाले कायस्थ परिवार का बच्चा था। इसलिए शोषण वाली थ्योरी चल निकली। बाबू परेशान हुआ। कई बच्चों को रंपू की बात पर यकीन होने लगा। बच्चों में मुहल्लावाद, जातिवाद, परिवारवाद जैसे सारे वाद एक साथ आ धमके। अगले दिन 20 25 बच्चों ने ही आमद दी। सबने मिलकर मल को झाड़ फेंका। उस दिन किसी तरह से शाखा लगी।
 
अगले दिन सुबह बच्चों ने अपने क्रम को दोहराया। थोड़ी ही देर में सारे बच्चे बुरी तरह से खुजलाने लगे। बाबू ने सबको गाय के गोबर को शरीर में लगाकर नर्मदा में नहाने को कहा। दरअसल मैदान में क्वोंच यानि एक खुजली वाली फल्ली फैलाई गई थी।
 
किसी तरह से ये सब संघर्ष तो चल ही रहे थे, लेकिन अब गाँव के बच्चों के बड़ों ने इसे नाक की लड़ाई मान लिया। गाँव का जातियों में बँटा समाज शोषण, उपेक्षा, अवसरों में असमानता जैसी शब्दावलियों में अभिव्यक्त होने लगा।
 
एक दिन खलिहान में बाबू अकेला खड़ा था। उसने कुछ बच्चों को घर जाकर बुलाया तो कोई पेट दर्द का बहाना बनाकर सोता रहा तो कोई भैंस लेकर चराने जा चुका था। यह क्रम अनेक दिन चला। बाबू अकेला पड़ता गया। अब बाबू इसी क्रम में बच्चों को नए सिरे से जोड़ता है। एक रामलीला तैयार की जाती है। बाबू के घर में ही इसकी प्रैक्टिस होती है। मंच सजता है। महीनों डायलॉग रटे जाते हैं। सीता, राम, लक्ष्मण, हनुमान सब तैयार हो जाते हैं। खलिहान में एक कोने पर कुछ लोहे की छड़ें गाड़कर, राहर के खडेरे (सूखे पेड़) के बंडल पर दरियाँ बिछाकर मंच बनाया गया। रावण का पुतला बनाया गया। घास भरकर एकदम जीवंत रावण।
 
शाम को रामलीला होनी थी। खलिहान में केरोसीन वाली गैस जलाकर उजाला किया गया। मैं राम के गेटअप में पहुँच गया। लेकिन लक्ष्मण, सीता गायब थे। बाबू उनके घर गया तो बाहर से ही आवाज आई, वो तो सो गए। अकेले राम क्या करते, तुरंत ही दूसरे पात्र तैयार किए गए, उन्हें डायलॉग बताए गए कि जो बने वो बोल देना। रामलीला शुरू हो रही थी, तभी पीछे से आवाज आई आग... आग। किसी ने रामलीला के मंच से ठीक सामने आदमकद रावण के पुतले में पीछे से आग लगा दी। तय था कि राम यहाँ बाण मारेंगे, इसके लिए एक धागा बाँधा गया था, जिसके सहारे करीब 20 मीटर दूर रावण जलते हुए बाण से आग लगाई जानी थी। लेकिन सारी योजना चौपट हो गई। पहले संघ की शाखा पर हमला हुआ, फिर दुर्गा की झाँकियों पर, फिर गणेश पर और अब रामलीला पर भी हमला हो गया। सारा मंच तहस नहस हो गया।
 
बाबू को समझ नहीं आ रहा था, इन सबके पीछे कौन है? रंपू में इतना न सोच है न विचार। वह अनपढ़ गँवार था। उसने अपने जीवन में कभी टीवी नहीं देखी, कभी बस नहीं देखी, कभी डामर का रोड नहीं देखा, कभी कस्बा नहीं देखा था। वह ऐसी शोषण शोषक, वंचित की भाषा कहाँ से लाता? बहुत बाद में समझ आया, इसके पीछे वो लोग शामिल थे, जो बाबू को अपना राजनीतिक प्रतिस्पर्धी मानने लगे थे।
 
बाबरी विध्वंस के बाद बाबू और उसका परिवार धीरे धीरे कस्बे में शिफ्ट होने लगा। गाँव सिर्फ पुस्तैनी खेती के लिए रहा। कस्बे में आकर बाबू कॉलेज चुनाव, हिंदू उत्सव समिति, बजरंग दल की हिंदूवादी गतिविधियों में लग गया। बाबू ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता आज 53 साल की उम्र में भी किसी दल के प्रति नहीं रखी। वह अब धर्म कर्म की गतिविधियों में ही शामिल रहता है। संघ और संघर्ष का नाता गहरा है। आज जब सौ वर्ष हो रहे हैं तो बाबू जैसों के बूते संघ के चमकते 100 वर्ष हुए हैं और लाखों वर्ष पूर्ण होंगे। बाबू हमें सिखाते हैं कि राजनीतिक प्रतिबद्धता ही संघ का होना नहीं है, आप किसी भी दल के समर्थक हों या किसी भी समुदाय से आते हों तब भी स्वयंसेवक हो सकते हैं। सिर्फ राष्ट्रप्रेमी, संस्कार, संस्कृति के पोषक होना ही संघ की इकलौती अपेक्षा है। 100 वर्षों में मौजूदा सरसंघचालक के लगभग सभी उद्गार सुने होंगे, इनके आधार पर यह माना जाना चाहिए कि संघ न तो किसी समुदाय को हिंद महासागर में डुबाने की योजना का नाम है न किसी राजनीतिक विद्वेष के लिए काम करने का प्रयास। संघ सिर्फ संपूर्ण भारत, भारतीय विचार, संस्कार और व्यवहार का विराट संगम है।
 
लेख
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार