वीरांगना रानी दुर्गावती: पराक्रम और बलिदान की अद्वितीय गाथा

बाल्यकाल से वीरता की मिसाल रानी दुर्गावती ने मुगल आक्रमण के सामने अडिग खड़े होकर मातृभूमि की रक्षा की।

The Narrative World    05-Oct-2025
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भारत भूमि वीरांगनाओं की कर्मभूमि रही है। यहाँ के कण कण में शौर्य और बलिदान की कहानियाँ बसी हैं। इन्हीं महान नारियों में एक नाम है गोंडवाना साम्राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती, जिनकी जयंती 5 अक्टूबर को पूरे देश में श्रद्धा और गर्व के साथ मनाई जाती है। रानी दुर्गावती केवल गोंडवाना की नहीं बल्कि पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की प्रतीक हैं।
 
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कन्नौज के चंदेल वंश में हुआ। उनके पिता कीर्ति सिंह चंदेल स्वयं एक पराक्रमी राजा थे। बचपन से ही दुर्गावती ने अस्त्र शस्त्र की शिक्षा ली और घुड़सवारी व युद्धकला में दक्ष हो गईं। उनकी वीरता और अद्वितीय नेतृत्व क्षमता देखते हुए उनका विवाह गोंडवाना के राजा दलपत शाह गोंड से हुआ। विवाह के पश्चात वे गोंडवाना की महारानी बनीं।
 
दलपत शाह गोंड के निधन के बाद रानी दुर्गावती ने अकेले ही गोंडवाना की बागडोर संभाली। अपने नाबालिग पुत्र वीर नारायण के साथ रानी ने गोंडवाना की जनता का नेतृत्व किया। वे जनता की प्रिय रानी थीं। उनकी नीति न्याय और विकास पर आधारित थी। प्रजा की सुरक्षा, सिंचाई के साधन, किलों और मंदिरों का निर्माण, तथा किसानों को सहयोग देना उनकी प्राथमिकताएँ थीं।
 
16वीं शताब्दी में जब पूरे भारत में मुगलों का अत्याचार बढ़ रहा था, तब गोंडवाना की ओर भी उनकी नजरें लगीं। अकबर ने अपने सूबेदार आसफ खान को गोंडवाना पर आक्रमण का आदेश दिया। मुगलों की विशाल सेना और अत्याधुनिक हथियारों के सामने रानी दुर्गावती ने धैर्य और वीरता के साथ मोर्चा लिया। उन्होंने केवल 20 हजार सैनिकों के साथ मुगल सेना का मुकाबला किया। यह युद्ध 24 जून 1564 को नारई नामक स्थान पर लड़ा गया।
 
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रानी दुर्गावती स्वयं घोड़े पर सवार होकर युद्ध भूमि में डटीं। उन्होंने असाधारण पराक्रम दिखाया और दुश्मनों को भारी क्षति पहुंचाई। लेकिन संख्या और साधनों की कमी के कारण गोंडवाना की सेना धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगी। रानी गंभीर रूप से घायल हो गईं। जब उन्हें लगा कि वे मुगलों के हाथों जीवित पकड़ी जाएँगी, तो उन्होंने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। इस तरह उन्होंने पराधीनता स्वीकार करने से बेहतर मातृभूमि के लिए प्राण न्यौछावर करना उचित समझा।
 
रानी दुर्गावती का बलिदान केवल गोंडवाना नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा बन गया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि भारत की बेटियाँ भी तलवार उठा सकती हैं और विदेशी आक्रांताओं का सामना कर सकती हैं। उन्होंने दिखाया कि असली पराक्रम संख्या या साधनों पर नहीं, बल्कि साहस और संकल्प पर निर्भर करता है।
 
आज जब हम रानी दुर्गावती की जयंती मना रहे हैं, तब हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वे केवल एक ऐतिहासिक चरित्र नहीं बल्कि राष्ट्र की चेतना हैं। मुगलों की दमनकारी नीतियों और आक्रमणों के विरुद्ध उनकी शौर्य गाथा भारतीय आत्मसम्मान का अमिट प्रतीक है। रानी दुर्गावती का जीवन हर भारतीय को यह संदेश देता है कि मातृभूमि की रक्षा सर्वोपरि है और इसके लिए कोई भी बलिदान छोटा नहीं।
 
लेख
शोमेन चंद्र