भारत में माओवादी हिंसा अब अपने आखिरी दौर में है। जहां एक ओर सरकार और सुरक्षा बल लगातार नक्सल उन्मूलन के लिए अभियान चला रहे हैं, वहीं दूसरी ओर खुद माओवादी संगठन और उनके वरिष्ठ नेता अब हथियार छोड़ने लगे हैं। हाल ही में सामने आए दो बड़े घटनाक्रमों ने यह साफ कर दिया है कि “लाल आतंक” का युग अब समाप्ति की ओर बढ़ रहा है।
पहली घटना माओवादी संगठन की माड़ डिविजनल कमेटी के प्रेस वक्तव्य से जुड़ी है, जिसमें उन्होंने सशस्त्र संघर्ष छोड़ने का समर्थन किया है। माओवादी पोलित ब्यूरो सदस्य कामरेड सोनू के नेतृत्व में यह निर्णय लिया गया कि अब बंदूक और हिंसा की राह छोड़कर जनता के बीच जाकर काम किया जाएगा। इस वक्तव्य में माओवादियों ने स्वीकार किया कि बदलते समय और परिस्थितियों को पहचानने में उनकी केंद्रीय कमेटी विफल रही, जिसके कारण आंदोलन कमजोर होता गया और जनता का समर्थन खत्म हो गया। उनका यह भी कहना था कि गलत फैसलों और पुरानी सोच के कारण क्रांति का आंदोलन ठहर गया है। माड़ डिविजनल कमेटी ने केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की है कि उन्हें कुछ समय दिया जाए ताकि वे हथियारबंद गतिविधियों को बंद करने और अपने साथियों को मुख्यधारा में लौटने के लिए समझा सकें।
दूसरी बड़ी घटना है चार दशकों तक हिंसा की राह पर चले वरिष्ठ माओवादी नेता मांडा रुबेन उर्फ कन्नन्ना का आत्मसमर्पण। दक्षिण बस्तर डिविजन कमेटी के सचिव और दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के सदस्य रहे रुबेन ने 44 साल बाद नक्सलवाद का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में लौटने का फैसला लिया। उन्होंने तेलंगाना पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया और शांतिपूर्ण जीवन जीने की इच्छा जताई।
तेलंगाना पुलिस ने बताया कि राज्य सरकार की पुनर्वास नीति के तहत जो भी माओवादी आत्मसमर्पण करेंगे, उन्हें पूरी सहायता दी जाएगी। पुलिस अधिकारियों ने यह भी कहा कि आज का युवा वर्ग माओवाद जैसी हिंसक विचारधारा से दूर हो चुका है। छात्रों और युवाओं की भर्ती लगभग बंद हो चुकी है। अब कोई भी जिम्मेदार युवा अपने भविष्य को खतरे में डालना नहीं चाहता।
माओवाद, जो कभी “क्रांति” के नाम पर निर्दोष ग्रामीणों के खून से अपने हाथ रंगता था, अब खुद अपने पतन की कहानी लिख रहा है। दुनिया भर में यह हिंसक विचारधारा पुरानी पड़ चुकी है और भारत में भी इसका अंत निश्चित है। जो संगठन कभी सरकार को गिराने और सत्ता पर कब्जा करने का सपना देखते थे, वे अब आत्मसमर्पण की अपील कर रहे हैं।
आज का भारत विकास, शिक्षा और संवाद की दिशा में आगे बढ़ रहा है। जंगलों और बंदूकों के सहारे सत्ता बदलने का सपना अब जनता ने पूरी तरह नकार दिया है। माओवादी नेता सोनू और मांडा रुबेन जैसे उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि बदलाव संभव है, अगर हिंसा की जगह शांति का रास्ता चुना जाए। लाल गलियारों की बंदूकें अब खामोश हो रही हैं, और यह संदेश पूरे देश के लिए उम्मीद की किरण है। भारत अब नक्सलमुक्त भविष्य की ओर बढ़ रहा है।
लेख
शोमेन चंद्र