बंदूकें चुप हुईं, पर विचारधारा जिंदा क्यों है?

बंदूकें शांत होने के बाद भी क्या कारण है कि बौद्धिक समर्थन से चलने वाली नक्सली विचारधारा खत्म होने का नाम नहीं ले रही?

The Narrative World    19-Nov-2025
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18 नवंबर 2025 को सुरक्षा बलों ने आंध्र प्रदेश में माओवादी कमांडर माडवी हिडमा को मार गिराया। कुछ महीने पहले ही छत्तीसगढ़ के घने इलाकों में टॉप माओवादी नेता और महासचिव नंबाला केसवा राव उर्फ बसवराजू ढेर हुआ। केंद्र सरकार मार्च 2026 तक नक्सलवाद खत्म करने का वादा कर चुकी है, लेकिन यह सवाल अब भी सामने खड़ा है कि क्या केवल बंदूक से यह संकट खत्म हो सकता है।
 
भारत में नक्सलवाद का असली पोषण बंदूकधारियों ने ही नहीं किया। इसकी जड़ें उन बुद्धिजीवियों की सोच में भी गहरी धंसी हैं जो इस हिंसक विचारधारा को नैतिक और वैचारिक सहारा देते रहे। इसी वजह से सुरक्षा बलों की सफलताओं के बावजूद नक्सलवाद का खात्मा अधूरा दिखता है।
 
 
पिछले 10 वर्षों में नक्सल गतिविधियां लगातार घटी हैं। नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 128 से घटकर अक्तूबर 2025 में केवल 3 रह गई। हिंसा से होने वाली मौतों में भी तेज गिरावट आई। यह उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं, पर सवाल यह है कि क्या जमीन पर खत्म होती हिंसा के साथ दिमागों में पलती विचारधारा भी खत्म हुई है।
 
पिछली सदी में यूरोप के कई दार्शनिकों और लेखकों ने हिंसक क्रांति को न्याय और मुक्ति का साधन बताया। इन विचारों ने भारतीय बुद्धिजीवियों को गहराई से प्रभावित किया। अस्तित्ववाद और उत्तर आधुनिकता के प्रभाव में कुछ प्रसिद्ध दार्शनिकों ने माओवादी हिंसा को रोमांच और आदर्शवाद का चेहरा दिया। हिंसा को व्यवस्था बदलने का रास्ता बताया गया। इसी सोच ने भारत के युवा बुद्धिजीवियों को यह विश्वास दिलाया कि क्रांति किताबों से नहीं, बंदूक से निकलती है।
 
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भारतीय संदर्भ में इस सोच को चरु मजूमदार ने एक वैचारिक रूप दिया। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के भारत को आधा उपनिवेश और आधा सामंती समाज बताया और हिंसा को बदलाव का अनिवार्य साधन कहा। उनकी एनाइलेशन थ्योरी ने छात्रों और शहरी विचारकों में क्रांति का आकर्षण पैदा किया। मजूमदार समझते थे कि अगर शहरों के पढ़े लिखे लोग आंदोलन से जुड़ेंगे तो यह लंबे समय तक टिकेगा।
 
बाद में माओवादी रणनीति दस्तावेजों ने खुलकर लिखा कि शहरी बुद्धिजीवी आंदोलन की रीढ़ हैं। ये लोग धन जुटाते हैं, कानूनी मदद देते हैं, प्रचार संभालते हैं और नए समर्थकों को जोड़ते हैं। यही वह तंत्र है जिसने जंगलों में चल रही हिंसा को शहरों की चर्चाओं और विश्वविद्यालयों की बहसों में जीवित रखा।
 
बीते वर्षों में कई लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं ने माओवाद को जनप्रतिरोध का रूप दिया। उन्होंने सुरक्षा बलों की कार्रवाई को राज्य की हिंसा कहा और माओवादियों को पीड़ित बताया। इस कथा ने समाज के एक हिस्से में भ्रम पैदा किया। नक्सल हिंसा से मारे गए निर्दोष ग्रामीण, पुलिसकर्मी और सरकारी कर्मचारी इस विमर्श से गायब रहे। उनके जीवन की त्रासदी को वह स्थान कभी नहीं मिला जो सशस्त्र माओवादी लड़ाकों को मिल गया।
 
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नक्सलवाद की असली लड़ाई इसलिए सिर्फ जंगलों में नहीं है। किताबों, लेखों, मंचों, संगोष्ठियों और विश्वविद्यालयों में चल रही विचारधारा की लड़ाई अधिक चुनौतीपूर्ण है। जब तक यह विचारधारा खत्म नहीं होगी, तब तक बंदूक की लड़ाई बार बार लौटेगी।
 
 
भारत को नक्सलवाद खत्म करना है तो उसे इस वैचारिक जाल को भी तोड़ना होगा। बुद्धिजीवियों को अपने नैतिक दायित्व का सामना करना होगा। विश्वविद्यालयों को विचारों की आड़ में हिंसा को महिमामंडित करने वाली प्रवृत्तियों पर रोक लगानी होगी। समाज को यह समझना होगा कि क्रांति के नाम पर फैली हिंसा किसी भी गरीब, जनजाति या वंचित को मुक्ति नहीं देती, बल्कि उसे ही पहली बलि बना देती है।
 
तभी देश उस बीमारी का इलाज कर पाएगा जो दशकों से खून पीती रही और जिसे शब्दों की शक्ति ने उतना ही पोषित किया जितना बंदूक ने।
 
लेख
शोमेन चंद्र