लालच देकर कन्वर्जन पर रोक जरूरी - हाई कोर्ट ने कहा, जनजातीय समाज की परंपरा की रक्षा करना संवैधानिक

हाई कोर्ट ने कहा कि जनजातीय समाज को लालच और धोखे से होने वाले धर्मांतरण से बचाना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।

The Narrative World    02-Nov-2025
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छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में जनजातीय समाज को जबरन या लालच देकर होने वाले धर्मांतरण से बचाने के लिए लगाए गए ‘धर्मांतरण वर्जित’ बोर्डों को असंवैधानिक मानने से इंकार कर दिया है। कांकेर जिले के आठ जनजातीय गांवों में लगे इन बोर्डों पर सवाल उठाने वाली याचिका को कोर्ट ने खारिज कर दिया और साफ कहा कि इन बोर्डों का मकसद धर्म विशेष को निशाना बनाना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक एकता की रक्षा करना है।
 
कांकेर जिले के दिग्बल टांडी नाम के व्यक्ति ने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर मांग की थी कि गांवों में लगे इन बोर्डों को हटाया जाए। उनका आरोप था कि ये बोर्ड पादरियों और धर्मांतरित ईसाइयों को गांव में प्रवेश करने से रोकते हैं और धार्मिक भेदभाव करते हैं। ये बोर्ड कुदल, पारवी, जुनवानी, घोटा, हबेचुर, घोटिया, मुसुरपुट्टा और सुलागी जैसे जनजातीय गांवों में लगाए गए थे। याचिकाकर्ता ने पंचायत विभाग पर आरोप लगाया कि उसने इन गांवों को पत्र जारी कर ‘हमारी परंपरा, हमारी विरासत’ के नाम पर ऐसे बोर्ड लगाने को कहा।
 
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्त गुरु की पीठ ने इस मामले में स्पष्ट कहा कि बोर्डों में ईसाई धर्म के खिलाफ कुछ भी नहीं लिखा गया है। वे केवल उन पादरियों के प्रवेश को रोकते हैं जिन पर लालच और धोखे से धर्मांतरण कराने के आरोप हैं। अदालत ने कहा, “ये बोर्ड जनजातीय लोगों को अपनी परंपरा और सांस्कृतिक विरासत बचाने के उद्देश्य से लगाए गए हैं। यह अवैध धर्मांतरण के खिलाफ एहतियाती कदम है, न कि किसी धर्म के खिलाफ भेदभाव।”
 
कोर्ट ने एक बार फिर दोहराया कि अवैध धर्मांतरण से सामाजिक सद्भाव पर बुरा असर पड़ता है। मिशनरियों द्वारा गरीब, अशिक्षित और पिछड़े समुदायों को बेहतर जीवन, शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर लालच देकर धर्म बदलवाने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाते हुए कोर्ट ने कहा कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक विभाजन को जन्म देता है।
 
 
कोर्ट के शब्दों में, “ईसाई मिशनरियों पर जनजातीय समाज को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण कराने के आरोप लगते हैं। यह प्रक्रिया न केवल जनजातीय परंपराओं को तोड़ती है, बल्कि समुदायों के अंदर गहरे मतभेद पैदा करती है।”
 
अदालत ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है। इसे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के दायरे में ही माना जाएगा। इसीलिए कई राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए हैं, ताकि धोखे, दबाव या लालच से होने वाले धर्मांतरण को रोका जा सके।
 
हाई कोर्ट ने साफ कहा, “भारत का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना सह-अस्तित्व और विविधता के सम्मान पर आधारित है।” लेकिन लालच देकर धर्मांतरण करवाना न केवल धर्म का अपमान है, बल्कि समाज में अविश्वास और तनाव भी पैदा करता है। कोर्ट ने यह भी माना कि कई बार ऐसे धर्मांतरण विवादों के बाद हिंसा की घटनाएं भी सामने आती हैं।
 
हाई कोर्ट ने याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता ने वैधानिक विकल्पों का सहारा नहीं लिया। न ही यह साबित किया कि होर्डिंग्स ने धार्मिक भेदभाव किया है। कोर्ट ने माना कि ये बोर्ड किसी धर्म के नहीं, बल्कि अवैध धर्मांतरण के खिलाफ हैं।
 
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का यह फैसला उन मिशनरी गतिविधियों पर एक बड़ा कानूनी प्रहार है, जो सेवा और सामाजिक कार्य के नाम पर लालच देकर धर्मांतरण को बढ़ावा देती हैं। जनजातीय समाज की संस्कृति, परंपरा और धार्मिक मान्यताओं को बचाए रखना जरूरी है। धर्म की स्वतंत्रता तब तक ही सार्थक है जब तक वह किसी के विवेक और आस्था पर आधारित हो, लालच और प्रलोभन पर नहीं।
 
मिशनरियों के लिए यह एक चेतावनी है कि भारत के गांवों में धर्मांतरण का खेल अब आसानी से नहीं चलेगा। जनजातीय समाज जाग रहा है, न्यायपालिका उसके साथ खड़ी है और सांस्कृतिक विद्रोह की यह आवाज अब दबने वाली नहीं है।
 
रिपोर्ट
शोमेन चंद्र