सोशल मीडिया ने राजनीति को कैसे बदला?

क्या अब राजनीतिक रणनीति मैदानों से ज्यादा मोबाइल स्क्रीन पर तय होती है और क्या इससे लोकतंत्र मजबूत हो रहा है या उलझ रहा है?

The Narrative World    02-Nov-2025
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आज के दौर में राजनीति केवल सभाओं, नारों और पोस्टरों तक सीमित नहीं रही। यह अब हमारी उंगलियों की पहुंच में आ चुकी है, मोबाइल स्क्रीन पर, सोशल मीडिया के रूप में। फेसबुक, ट्विटर (अब एक्स), इंस्टाग्राम, यूट्यूब और व्हाट्सएप ने राजनीतिक संवाद की प्रकृति, दिशा और प्रभाव, तीनों को पूरी तरह बदल दिया है। एक समय था जब राजनीति का जनसंपर्क सीमित संसाधनों और भौगोलिक दायरे में बंधा हुआ था, परंतु आज सोशल मीडिया ने इसे 24x7 संवाद और सीधा जनसंपर्क अभियान बना दिया है।
 
राजनीति के संचार माध्यमों में बदलाव
 
पहले राजनीतिक दलों का संवाद अखबारों, रेडियो और टेलीविज़न जैसे पारंपरिक माध्यमों पर निर्भर था। नेताओं की बात जनता तक पहुंचाने के लिए पत्रकारिता और जनसभाएं ही प्रमुख साधन थीं। लेकिन सोशल मीडिया ने इस परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। अब नेता सीधे जनता से जुड़ते हैं, अपने विचार व्यक्त करते हैं और जनभावनाओं को तुरंत समझते हैं।
 
अब कोई भी राजनीतिक पार्टी करोड़ों लोगों तक अपनी बात बिना किसी मध्यस्थ, यानी मीडिया, के सीधे पहुंचा सकती है। यह लोकतंत्र की दिशा में एक बड़ा परिवर्तन है, पर इसके अपने खतरे और सीमाएं भी हैं।
 
सोशल मीडिया: राजनीतिक जनसंवाद का नया मंच
 
सोशल मीडिया ने राजनीति को एक नया लोकतांत्रिक मंच दिया है। पहले केवल बड़े नेताओं या पार्टियों की आवाज़ सुनी जाती थी, पर अब हर नागरिक अपनी राय रख सकता है, टिप्पणी कर सकता है और अपने स्तर पर अभियान चला सकता है। आज एक आम युवा भी किसी नीति पर ट्वीट करके या वीडियो बनाकर लाखों लोगों तक अपनी बात पहुंचा सकता है। यह शक्ति पहले कभी किसी आम नागरिक को नहीं मिली थी। लेकिन यही शक्ति जब अवसरवाद या भ्रामक सूचना का माध्यम बन जाती है, तब इसका दुरुपयोग लोकतंत्र को कमजोर भी कर सकता है।
 
चुनाव अभियानों का चेहरा बदल गया
 
भारत जैसे विशाल देश में सोशल मीडिया ने चुनाव प्रचार को पूरी तरह डिजिटल बना दिया है। पहले चुनावों में पोस्टर, बैनर, रैली और जनसभाएं प्रचार का मुख्य साधन हुआ करती थीं। आज इनके साथ-साथ डिजिटल कैंपेन, हैशटैग ट्रेंड, व्हाट्सएप ग्रुप्स और यूट्यूब शॉर्ट्स चुनावी हथियार बन गए हैं। राजनीतिक पार्टियां अब डिजिटल टीम्स और सोशल मीडिया वार रूम्स बनाकर लगातार जनता की नब्ज टटोलती हैं। कौन-सा मुद्दा चल रहा है, किस राज्य में कौन-सा ट्रेंड असर डाल सकता है, इसका अध्ययन अब डेटा एनालिटिक्स से किया जाता है।
 
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इससे एक ओर चुनाव प्रचार तेज, सटीक और व्यापक हुआ है, वहीं दूसरी ओर वोटर माइंडसेट मैनिपुलेशन यानी मतदाता की सोच को प्रभावित करना भी आसान हो गया है।
 
छवि निर्माण और ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’
 
सोशल मीडिया ने नेताओं को ब्रांड बना दिया है। अब केवल विचारधारा नहीं, बल्कि व्यक्तित्व और छवि भी वोट बैंक का केंद्र बन गए हैं। नेता अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों, यात्राओं, भाषणों और भावनात्मक पलों को सोशल मीडिया पर साझा करते हैं ताकि जनता उन्हें “अपना” महसूस करे। इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर रील्स या वीडियो ब्लॉग के जरिए एक भावनात्मक जुड़ाव तैयार किया जाता है। यह जुड़ाव कभी-कभी विचारों से ज्यादा व्यक्ति आधारित राजनीति को जन्म देता है, जहां मुद्दे पीछे छूट जाते हैं और चेहरे आगे आ जाते हैं।
 
फेक न्यूज़ और इको चेंबर का खतरा
 
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जहां सोशल मीडिया ने संवाद को लोकतांत्रिक बनाया है, वहीं इसने भ्रम और ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा दिया है। कई बार झूठी खबरें या अधूरी जानकारियां वायरल हो जाती हैं, जो समाज में गलतफहमी, तनाव और नफरत फैला सकती हैं। राजनीतिक दल या समर्थक अपने-अपने इको चेंबर बना लेते हैं, ऐसे डिजिटल दायरे जहां केवल अपनी पसंद की खबरें, राय और दृष्टिकोण ही सुनाई देते हैं। इससे लोकतंत्र में संवाद की जगह वाद-विवाद और आरोप-प्रत्यारोप का माहौल बन जाता है। जब हर व्यक्ति केवल अपनी मान्यता को सही मानने लगता है, तब सहिष्णुता और सहमति की संस्कृति खतरे में पड़ जाती है।
 
युवाओं की भागीदारी में वृद्धि
 
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सोशल मीडिया का सबसे सकारात्मक प्रभाव राजनीति में युवाओं की बढ़ती भागीदारी है। अब राजनीति केवल बुजुर्ग या अनुभवी नेताओं का क्षेत्र नहीं रहा। युवा वर्ग ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और फेसबुक के माध्यम से अपनी राय रखता है, जागरूकता फैलाता है और कई बार आंदोलन की रूपरेखा भी तैयार करता है। 2011 का अन्ना आंदोलन हो या 2020 के किसान आंदोलन की डिजिटल मौजूदगी, सोशल मीडिया ने जनता की आवाज़ को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। यह कहना गलत नहीं होगा कि सोशल मीडिया ने राजनीति को “जनता से जनता तक पहुंचाने वाला माध्यम” बना दिया है।
 
राजनीति और मीडिया का नया समीकरण
 
पहले मीडिया राजनीति का प्रहरी हुआ करता था, आज राजनीति और मीडिया का रिश्ता जटिल हो गया है। सोशल मीडिया ने न्यूज चैनलों की भूमिका को आंशिक रूप से बदल दिया है। अब नेता अपनी बात मीडिया के माध्यम से नहीं बल्कि सीधे जनता से साझा करते हैं। इससे पारंपरिक मीडिया की जवाबदेही भी चुनौती में है। साथ ही, अब मीडिया हाउस भी ट्रेंड्स के अनुसार अपनी खबरें तय करते हैं, जिससे कभी-कभी गहराई की जगह गति प्राथमिकता बन जाती है।
 
सकारात्मक पहलू
 
  • जनता के साथ सीधा संवाद
  • पारदर्शिता में वृद्धि
  • युवा सशक्तिकरण
  • तत्काल प्रतिक्रिया
 
नकारात्मक पहलू
 
  • फेक न्यूज़ का प्रसार
  • भावनात्मक ध्रुवीकरण
  • व्यक्तित्व की राजनीति
  • ट्रोल कल्चर
 
आगे की राह
 
सोशल मीडिया को राजनीति का उपकरण नहीं, बल्कि जन-हित संवाद का मंच बनाना होगा। इसके लिए तीन स्तरों पर सुधार आवश्यक है:
 
  • राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी, उन्हें सोशल मीडिया का उपयोग प्रचार के साथ-साथ जनजागरूकता के लिए भी करना चाहिए
  • सरकार की भूमिका, फेक न्यूज़ और हेट स्पीच पर नियंत्रण के लिए प्रभावी डिजिटल नीतियां बनानी होंगी
  • जनता की सजगता, नागरिकों को सत्यापन की संस्कृति अपनानी चाहिए, यानी “फॉरवर्ड करने से पहले सोचें” का मंत्र अपनाना चाहिए
 
निष्कर्ष
 
सोशल मीडिया ने राजनीति को लोकतांत्रिक भी बनाया है और जटिल भी। यह एक ऐसी दोधारी तलवार है, जो सही इस्तेमाल पर जनहित का शस्त्र बन सकती है और गलत प्रयोग पर लोकतंत्र के लिए खतरा। राजनीति का सार जनता की सेवा है, और यदि सोशल मीडिया का उपयोग पारदर्शिता, संवाद और भागीदारी बढ़ाने में हो, तो यह लोकतंत्र को नई ऊंचाई पर ले जा सकता है।
 
पर यदि यह झूठ, प्रचार और विभाजन का उपकरण बन गया, तो वही तकनीक जो हमें जोड़ती है, हमें बांट भी सकती है। इसलिए जरूरी है कि हम सोशल मीडिया को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के साथ उपयोग करें। तभी राजनीति में सच्चा लोकतंत्र और जनता के प्रति जवाबदेही कायम रह सकेगी।
 
लेख
 
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बिमलेश कुमार सिंह चौहान
कुलसचिव, आर.आर. इंस्टिट्यूट ऑफ मॉडर्न टेक्नोलॉजी, लखनऊ