गिड़गिड़ाता हुआ नक्सलवाद: सुरक्षा बलों की सफलता का प्रमाण या संघर्ष विराम का मुखौटा

क्या PLGA सप्ताह रद्द करना कमजोरी की स्वीकारोक्ति है या संघर्ष विराम के नाम पर समय खरीदने की कोशिश?

The Narrative World    27-Nov-2025
Total Views |
Representative Image
 
22 नवंबर 2025 को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति ने भारतीय सुरक्षा व्यवस्था के सामने एक अनोखा दस्तावेज़ प्रस्तुत किया। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ स्पेशल जोनल कमिटी के प्रवक्ता अनंत ने तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक निवेदन पत्र भेजा, जिसमें 15 फरवरी 2026 तक का समय मांगा गया है। यह वही संगठन है जो लंबे समय से राज्य को उखाड़ फेंकने का नारा देता रहा है और जिसने लंबे जनयुद्ध के सिद्धांत को अपनी वैचारिक नींव बताया है।
 
इस पत्र की भाषा में स्पष्ट विरोधाभास दिखाई देता है। जो संगठन कभी राज्य सत्ता को बंदूक की नली से चुनौती देने की बात करता था, वह अब सरकार से वक्त मांग रहा है। जो पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी सप्ताह मनाकर अपनी ताकत दिखाता था, वह अब स्वयं ही इसे रद्द करने की बात कह रहा है। यह बदलाव विचारधारा की हार का संकेत है या सुरक्षा बलों पर दबाव कम करने की रणनीतिक कोशिश, यह बड़ा प्रश्न है।
 
दस्तावेज़ की विडंबना: शक्ति से कमजोरी तक
 
प्रेस विज्ञप्ति में माओवादियों ने लिखा है कि सामूहिक निर्णय लेने में समय लगेगा क्योंकि उनकी पार्टी जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांतों पर चलती है। पहली नज़र में यह वैचारिक अनुशासन लगता है, लेकिन गहराई से देखने पर यह संगठनात्मक विघटन का प्रमाण बन जाता है। यदि केंद्रीय नेतृत्व मजबूत होता, तो निर्णय लेने में तीन महीने की आवश्यकता क्यों पड़ती।
 
Representative Image
 
विज्ञप्ति का यह स्वीकारोक्ति वाला हिस्सा और भी महत्वपूर्ण है कि उनके पास आपसी संवाद के लिए सरल माध्यम नहीं हैं। यह तथ्य बताता है कि 21वीं सदी की तकनीकी दुनिया में यह संगठन किस हद तक असहाय हो चुका है। कभी पूरे रेड कॉरिडोर में समन्वित हमले करने वाला नेटवर्क आज अपने ही कैडर तक संदेश पहुंचाने में असमर्थ दिख रहा है।
 
सबसे दिलचस्प मांग PLGA सप्ताह को रद्द करने की है। पहले यह वार्षिक सैन्य प्रदर्शन होता था जिसमें माओवादी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थे। आज इसे सद्भावना का संकेत बताया जा रहा है जबकि वास्तविकता यह है कि संगठन के पास इसे मनाने की क्षमता ही नहीं रह गई है।
 
ऐतिहासिक संदर्भ: क्या यह पहली बार है
 
माओवादी नेतृत्व द्वारा शांति वार्ता और संघर्ष विराम की यह पहली पहल नहीं है। 2004 में आंध्र प्रदेश में वाई एस राजशेखर रेड्डी सरकार के साथ बातचीत हुई थी। CPI(ML) के 11 नेता नल्लामाला जंगल से बाहर निकले थे और चार दिनों की वार्ता के बाद गतिरोध पैदा हो गया था। सरकार चाहती थी कि माओवादी हथियार छोड़ें।
 
2005 में CPI (Maoist) वार्ता से पीछे हट गया, लेकिन तब तक वह अन्य राज्यों में अपनी पकड़ मजबूत कर चुका था। संघर्ष विराम के नाम पर उसने खुद को मजबूत किया और बाद में आंध्र प्रदेश की ग्रेहाउंड्स इकाई ने बड़ी संख्या में नक्सलियों को मुठभेड़ों में मार गिराया। आंध्र प्रदेश में पकड़ कमजोर होने के बाद उन्होंने अन्य राज्यों में पुनर्गठन किया।
 
इतिहास स्पष्ट रूप से दिखाता है कि जब भी सुरक्षा बलों का दबाव बढ़ता है, माओवादी शांति वार्ता की भाषा अपनाते हैं। प्रश्न यह है कि क्या 2025 की यह पेशकश वास्तव में अलग है।
 
संगठनात्मक पतन के संकेत
 
हालिया आंकड़े बताते हैं कि माओवादी आंदोलन अभूतपूर्व संकट में है। 2025 में 1,040 से अधिक माओवादी आत्मसमर्पण कर चुके हैं जो अब तक का सबसे बड़ा वार्षिक आंकड़ा है। तुलना के लिए 2024 में 881, 2023 में 414 और 2020 में केवल 344 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया था। केवल बीजापुर जिले में जनवरी 2025 के बाद 410 ने आत्मसमर्पण किया, 421 गिरफ्तार हुए और 137 मारे गए। छत्तीसगढ़ में जनवरी 2024 के बाद 790 माओवादी मुख्यधारा में आए, 1,031 गिरफ्तार हुए और 200 से अधिक अभियानों में मारे गए।
 
Representative Image
 
बड़े नेताओं का आत्मसमर्पण और माड़वी हिडमा का मारा जाना संगठन की कमजोर स्थिति का प्रमाण है। 25 नवंबर 2025 को 41 सशस्त्र माओवादियों ने एक साथ आत्मसमर्पण किया। वरिष्ठ नेताओं द्वारा सशस्त्र संघर्ष छोड़ने की अपील भी इन संकेतों को और स्पष्ट करती है। विज्ञप्ति में आत्मसमर्पित पोलित ब्यूरो सदस्य कॉमरेड सोनू और CCM कॉमरेड चंद्रन्ना का समर्थन भी इसी दिशा में इशारा करता है। सितंबर 2025 के संघर्ष विराम की घोषणा भी इसी स्वीकारोक्ति का हिस्सा थी कि बदलती परिस्थितियों में संगठन हथियार नहीं उठा सकता, हालांकि यह पूरे संगठन की सहमति नहीं थी।
 
सरकार की बहुआयामी रणनीति: सफलता की आधारशिला
 
माओवादी पतन केवल सैन्य अभियानों का परिणाम नहीं है। पिछले दशक में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 126 से घटकर 18 रह गई जिनमें से छह ही सर्वाधिक प्रभावित हैं। सरकार ने 576 सुरक्षित पुलिस स्टेशन और 336 नए सुरक्षा शिविर बनाए। 68 रात्रि लैंडिंग हेलीपैड तैयार करने से अभियानों की गति बढ़ी है। ड्रोन तकनीक ने खुफिया क्षमताओं में बड़ा सुधार किया है।
 
Representative Image
 
विकास कार्यक्रमों ने माओवादी वैचारिक आधार को कमजोर किया है। धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान और PM-JANMAN जैसे कार्यक्रमों ने जनजातीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर विकास पहुंचाया है। सरकार ने आत्मसमर्पण को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन भी दिए हैं, जिनमें उन गांवों को 1 करोड़ रुपये की सहायता शामिल है जहां सभी माओवादी आत्मसमर्पण करते हैं।
 
क्या यह निवेदन वास्तविक हो सकता है
 
यह विचार करना आवश्यक है कि यह निवेदन वास्तविक भी हो सकता है। वरिष्ठ नेताओं का पलायन, आंतरिक संचार का ध्वस्त होना और नई पीढ़ी द्वारा विचारधारा की अस्वीकृति अभूतपूर्व स्थिति है। लंबे जनयुद्ध की अवधारणा टिक नहीं पा रही। कैडर की कमी और आत्मसमर्पण की लहर ने संगठन को खाली कर दिया है।
 
फिर भी इतिहास सावधान करता है कि 2004-05 की तरह शांति प्रस्ताव पुनर्गठन का तरीका भी हो सकता है। यह संभावना बनी रहती है कि संघर्ष विराम का उद्देश्य समय हासिल करना हो।
 
रणनीतिक विचार: सरकार के लिए आगे की राह
 
सरकार तीन रास्तों में से किसी एक को चुन सकती है। पहला, प्रस्ताव स्वीकार कर अभियान रोकना जो जोखिमपूर्ण होगा। दूसरा, प्रस्ताव को पूर्णतः अस्वीकार करना जिससे राजनीतिक विरोध बढ़ सकता है। तीसरा और सबसे व्यावहारिक विकल्प सशर्त स्वीकृति है जिसमें सुरक्षा अभियान जारी रहते हुए सीमित संचार की अनुमति दी जा सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार प्रस्ताव के 24 घंटे बाद भी अभियान बिना रुकावट जारी रहे, इससे सरकार का दृढ़ रुख स्पष्ट होता है।
 
 
गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 की समय सीमा तय की है जो सुरक्षा बलों के लिए लक्ष्य प्रदान करती है और माओवादियों पर दबाव बनाए रखती है। आंध्र प्रदेश के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक महेश चंद्र लड्डा ने भरोसा जताया है कि वे इस समय सीमा को पूरा करेंगे।
 
निष्कर्ष: विचारधारा का पतन और सतर्कता की ज़रूरत
 
22 नवंबर 2025 की प्रेस विज्ञप्ति माओवादी आंदोलन की वैचारिक विफलता का प्रतीक है। जो विचारधारा राज्य को चुनौती देने का दावा करती थी, वह आज उसी राज्य से समय मांग रही है।
सरकार की बहुआयामी रणनीति ने माओवादी आंदोलन की रीढ़ तोड़ दी है। आत्मसमर्पण की बढ़ती संख्या, वरिष्ठ नेताओं का पलायन और PLGA सप्ताह का रद्द होना संगठन की कमजोरी के स्पष्ट प्रमाण हैं।
 
फिर भी इतिहास चेतावनी देता है कि शांति प्रस्ताव को आंख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जा सकता। सरकार को रणनीति और सावधानी के साथ काम करना होगा। जब तक अंतिम माओवादी आत्मसमर्पण नहीं करता, विकास और सुरक्षा दोनों को समान गति से आगे बढ़ना होगा। वैचारिक हार स्पष्ट है, अब व्यावहारिक समापन सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
 
लेख
 
Representative Image
 
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी