पिछले कुछ महीनों में सैकड़ों नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। “नक्सल आत्मसमर्पण” यह शब्द सुनने में जितना सकारात्मक लगता है, उतना है नहीं। नक्सलवाद दशकों से भारत के प्राकृतिक संसाधन संपन्न क्षेत्रों में फैला कम्युनिस्ट आतंकवाद है। देश ने इसे खत्म करने के कई प्रयास किए, लेकिन ज्यादातर विफल रहे, क्योंकि इस आतंकवाद की जड़ यानी कम्युनिस्ट विचारधारा पर कभी प्रहार नहीं किया गया। नक्सलियों पर आत्मसमर्पण का दबाव तो बनाया गया, परंतु उनके वैचारिक बदलाव पर ध्यान नहीं दिया गया। यही कारण है कि इनका आत्मसमर्पण एक ढोंग से अधिक कुछ नहीं लगता।
नक्सलियों ने कभी अपनी रक्तरंजित विचारधारा नहीं छोड़ी है। उनका मानना है कि हिंसा से ही तथाकथित शोषणकारी सत्ता को उखाड़ा जा सकता है। वे भारत की व्यवस्था को ध्वस्त कर, हिंसक उपद्रव के माध्यम से समाजवादी शासन लाना चाहते हैं, जैसा कि चीन और रूस में हुआ। माओवादी भारत के संविधान को नहीं मानते। वे माओ के नारे “China’s chairman is our chairman and China’s path is our path” को मानते हैं, और माओ का कथन “Political power grows out of the barrel of a gun” उनका मार्गदर्शन सिद्धांत है। यानी, वे लोकतंत्र की नहीं, बंदूक की भाषा समझते हैं।
आत्मसमर्पण की इस हालिया श्रृंखला में नक्सलियों ने हथियार तो छोड़े हैं, लेकिन विचारधारा नहीं। उन्होंने संविधान की प्रति स्वीकार की है, लेकिन उनके नेता रूपेश ने कैमरे पर कहा कि वे विचारधारा से समझौता नहीं करेंगे। यह स्पष्ट है कि यह संविधान स्वीकारना “मुख में राम, बगल में छुरी” जैसा ही है।
नक्सलियों के दस्तावेज़ क्या कहते हैं?
माओवादी संगठन के अपने दस्तावेज़ “Strategy & Tactics of the Indian Revolution” में ‘स्ट्रैटेजिक डिफेंसिव’ का विस्तृत वर्णन है। इस रणनीति के तहत नक्सली पीछे हटते हैं, ताकि बाद में लंबा युद्ध जारी रख सकें। दस्तावेज़ में लिखा है, “We fight when we can win and we retreat when we cannot.” यानी कमजोरी की स्थिति में पीछे हटो और ताकतवर होने पर हमला करो। उनका लक्ष्य एक लंबा युद्ध है।
वे आगे लिखते हैं, “The guiding principle of our strategy must be to prolong the war.” यह सीधा संकेत देता है कि अभी नक्सली सिर्फ रणनीतिक तौर पर पीछे हट रहे हैं। इसी दस्तावेज़ में यह भी लिखा है कि जब दुश्मन यानी राज्य शक्तिशाली हो, तो गोरिल्ला दस्तों को ऐसे स्थानों पर ले जाया जाए, जहां वे दोबारा शक्ति इकठ्ठा कर सकें।
ये दस्तावेज़ साफ बताते हैं कि आत्मसमर्पण शांति की दिशा में कदम नहीं, बल्कि रणनीतिक विराम है।
शहरों में माओवाद का नया खेल
आज माओवाद जंगलों से ज्यादा शहरों में सक्रिय है। विश्वविद्यालय, साहित्य, पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में ये अपनी पैठ बना चुके हैं। नए नक्सलियों की भर्ती शहरों के पढ़े-लिखे युवाओं से की जा रही है। इसलिए जंगल से शहरों की तरफ बढ़ना उससे ज्यादा खतरनाक है, जितना दिखता है। यह ‘मुख्यधारा में आना’ नहीं, बल्कि शहरों में छिपकर वैचारिक जहर फैलाने का ढोंग है।
इतिहास से सबक: शांति वार्ता का भ्रम
2004-05 में आंध्र प्रदेश सरकार ने नक्सलियों से शांति वार्ता की। तब मुख्यमंत्री वाई एस आर रेड्डी ने इन्हें “हमारे बिगड़े बालक” कहा था। हथियार छोड़ने की उम्मीद जताई गई थी। लेकिन वार्ता के बाद नक्सलियों ने खुद को और मजबूत किया। निष्कर्ष वही रहा, नक्सली नहीं बदल सकते। क्योंकि उनका प्रेरक तत्व कोई सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि हिंसक विचारधारा है। इससे सीख लेकर सरकार ने सख्ती अपनाई, लेकिन लगता है अब ये सब भुला दिया गया है।
सरकार को समझना चाहिए कि जब तक नक्सली विचारधारा नहीं छोड़ते, तब तक वे मुख्यधारा में स्वीकार नहीं किए जा सकते। माओवादी विचार न छोड़ने वालों के लिए कठोर दंड ही उचित उपाय है।
अपराधी को दंड नहीं, पुरस्कार
चाणक्य सूत्र में कहा गया है: “अपराधानुरूपो दण्डः।” यानी अपराध के अनुरूप ही दंड होना चाहिए। लेकिन आज स्थिति विपरीत है। जिन नक्सलियों ने निर्दोषों की हत्या की, सुरक्षाबलों को मौत के घाट उतारा, वे पुनर्वास योजनाओं के नाम पर सम्मानित हो रहे हैं। उन पर रखे गए इनाम की रकम भी उन्हें दी जा रही है।
आत्मसमर्पित माओवादी कहते हैं कि वे सरकार की नीतियों से प्रभावित होकर लौटे हैं। लेकिन यदि अपराधी को दंड न मिले, तो वह पुनः अपराध करेगा। “अपराधी को दंड नहीं, पुरस्कार” यह न्याय का अपमान है।
निष्कर्ष
नक्सली आत्मसमर्पण की यह श्रृंखला गंभीर चिंता का विषय है। नक्सल दस्तावेज़ बताते हैं कि यह उनकी ‘स्ट्रैटेजिक डिफेंसिव’ की नीति का हिस्सा है। पीछे हटना, पुनर्गठित होना और फिर हमला करना – यही माओवादी नीति है। हाल ही में आत्मसमर्पित नेता चंद्रन्ना ने कहा कि “माओवादी विचारधारा को हराया नहीं जा सकता” और “यह समर्पण नहीं है।” यह बयान पूरी स्थिति स्पष्ट करता है।
यदि सरकार सचमुच नक्सलवाद को खत्म करना चाहती है, तो उसे हथियार छुड़ाने से आगे बढ़कर माओवादी विचारधारा को खत्म करना होगा। और जो नहीं बदलते, उनके लिए कठोर दंड ही एकमात्र उपाय है।
लेख
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी