
धुरंधर फिल्म ने जो आग लगाई है, वह सिर्फ सिनेमाघरों में नहीं, बल्कि उन बंद कमरों में भी फैल चुकी है जहाँ बैठकर नैरेटिव निर्माण होता है, जहाँ भारत के खिलाफ सालों से information warfare रचे जाते हैं, और जहाँ एक खास विचारधारा हर उस चीज़ को दबाने की कोशिश करती है जो उनके वैचारिक-क्षेत्र को चुनौती देती है।
धुरंधर ने उन दरवाज़ों को खोल दिया है जिन्हें आमतौर पर बंद ही रखा जाता है। धुरंधर ने पाँच दिन में 200 करोड़ की कमाई करके न सिर्फ बॉलीवुड की अर्थव्यवस्था हिला दी, बल्कि एक पूरे इकोसिस्टम की नींद खराब कर दी है।
यह वही इकोसिस्टम है जो हर राष्ट्रीय विमर्श को तुरंत प्रोपेगेंडा कहने का ठेका लिए बैठा है। फर्क बस इतना है कि इस बार धुरंधर ने बिल्कुल वो सच दिखा दिया है, जिसे वर्षों तक दफनाने की कोशिश की जाती रही। फिल्म के आते ही जिस बेचैनी की शुरुआत हुई, उससे साफ समझ आता है कि बात कला की नहीं, बल्कि असहज कर देने वाले तथ्यों की है।

एक वर्ग है जो इस फिल्म की सफलता से परेशान हो रहा रहा है, क्योंकि बिना भारी-भरकम पीआर के, बिना किसी बौद्धिक प्रमाणपत्र के, लोग खुद जाकर फिल्म देख रहे हैं, खुद सवाल पूछ रहे हैं और खुद से ही जुड़ रहे हैं। इसलिए असहजता बढ़ गई है।
धुरंधर ने नकली भारतीय नोटों के उस नेटवर्क को सामने लाकर खड़ा कर दिया है जिसे समझने से हमारे देश के एक राजनीतिक-वैचारिक वर्ग ने हमेशा बचने की कोशिश की। जब फिल्म में दिखाया गया कि भारतीय करेंसी की प्लेट कैसे पाकिस्तान पहुँचती है, भारत में बैठकर कराची के लिए कौन काम करता था, और क्यों मुंबई अटैक के बाद भी कई नेटवर्कों को छुआ तक नहीं गया, तब दर्शक पहली बार इन विषयों पर गंभीरता से सोचने लगे।

यही वह क्षण है जिसने वामपंथी लॉबी को बेचैन कर दिया। पाकिस्तान में बैठे नकली नोट गिरोहों से लेकर भारत के भीतर मौजूद उनके शुभचिंतक तक, हर तरफ अस्थिरता महसूस होने लगी है।
फिल्म ने जिस ब्रिटिश फर्म का जिक्र किया है, वह भी कम दिलचस्प नहीं। क्योंकि हकीकत में De La Rue नामक कंपनी का इतिहास पनामा पेपर्स से लेकर सीबीआई की एफ़आईआर तक फैला हुआ है। इतने वर्षों तक छुपाए गए इन गड्ढों को जब धुरंधर ने हल्का-सा कुरेदा, तो कई लोग चिंतित हो गए।
फिल्म के किरदारों ने इस बेचैनी को कई और गुना बढ़ा दिया। रणवीर सिंह का बलोच जासूस वाला किरदार, माधवन का अजय सान्याल, अक्षय खन्ना का रहमान डकैत और अर्जुन रामपाल का मेजर इक़बाल का किरदार, ये सब सिर्फ सिनेमाई कल्पना नहीं, बल्कि वास्तविक व्यक्तियों की छाया हैं।

रहमान डकैत का इतिहास भारत में कम ही लोगों को ज्ञात था, लेकिन कराची का यह डॉन बेनज़ीर भुट्टो से लेकर आईएसआई तक के नेटवर्क का हिस्सा रहा।
मुंबई अटैक में हथियार सप्लाई करने वाले इस गिरोह की परतें फिल्म में जब खुलीं तो पाकिस्तान की बेचैनी समझ में आती है, लेकिन इससे भी बड़ी असुविधा भारत में बैठे उस वर्ग को हुई जिसे हमेशा पाकिस्तान की कमियों पर पर्दा डालने का शौक रहा है।
मेजर इक़बाल के रूप में इलियास कश्मीरी का चेहरा उभरते ही यह इकोसिस्टम भड़क उठा। क्योंकि फिल्म ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया कि भारत के खिलाफ बड़े हमलों की जड़ें कहाँ थीं और किन लोगों से उनका आश्रय मिलता रहा।
फिल्म धुरंधर ने यह भी दिखाया कि पाकिस्तान का अंडरवर्ल्ड, आईएसआई और भारत में बैठी कुछ संदिग्ध इकाइयाँ कैसे एक ऐसी कड़ी बनाती थीं, जिसने भारत को कई स्तरों पर चोट पहुँचाई।

यह एक ऐसी कहानी है जिसे हमेशा अस्पष्ट रखने की कोशिश की गई, परंतु धुरंधर ने इसे सार्वजनिक कर दिया। अब दर्शक पूछ रहे हैं कि नकली नोटों की सप्लाई चेन किसने चलाई? करेंसी पेपर किसने बेचा? पेटेंट फर्जी था तो कॉन्ट्रैक्ट कैसे बढ़ा? किनके राजनीतिक-सामाजिक हित इसमें जुड़े थे? और यह वही प्रश्न हैं जिनसे भागने की आदत रखने वाला समूह अचानक खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहा है।
यह फिल्म केवल कमाई का आंकड़ा नहीं, बल्कि उस परदे को उजागर करता है जिसके पीछे सच छुपा था। यही बात वाम समूहों को असहज कर रही है। उनकी समस्या धुरंधर की लोकप्रियता नहीं, बल्कि यह है कि फिल्म ने उन तपती हुई फाइलों की याद दिला दी जिन्हें वे चाहकर भी मिटा नहीं सके।
यह वही स्थिति है जिसमें सच का हर छोटा टुकड़ा भी इन्हें खतरनाक लगता है, क्योंकि सच जब खुलता है तो बहुतों की राजनीति सूख जाती है। धुरंधर ने वही किया है, लोगों में सवाल पूछने की प्रवृत्ति वापस जगा दी है।