कांकेर जिले के आमाबेड़ा क्षेत्र के बड़े तेवड़ा गांव में बीते दिनों हुई घटनाओं ने जनजातीय समाज की आस्था, परंपरा और ग्राम स्वशासन पर गहरा आघात पहुंचाया। यह विवाद केवल शव दफनाने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने बाहरी संगठनों की दखलअंदाजी, भीम आर्मी की भड़काऊ भूमिका और कन्वर्टेड समूहों की आक्रामकता को उजागर कर दिया। शांत और परंपरानिष्ठ गांव को सुनियोजित तरीके से हिंसा की ओर धकेलने का प्रयास किया गया, जिसे जनजातीय समाज ने एकजुट होकर चुनौती दी।
16 दिसम्बर की रात सरपंच रजमन सलाम के पिता चमरा राम की मृत्यु के बाद गांव में तनाव शुरू हुआ। गांव की स्थापित परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार को लेकर स्पष्ट नियम और सामूहिक सहमति रही है। इसके बावजूद सरपंच ने बिना किसी को बताये अपने पिता का अंतिम संस्कार ईसाई रीति से गांव की सीमा के भीतर कर दी। ग्रामीणों ने इस फैसले का खुलकर विरोध किया और कहा कि जनजातीय समाज अपनी पवित्र भूमि पर परंपराओं से समझौता नहीं करेगा। ग्रामीणों ने स्पष्ट किया कि गांव में रहने वाले हर व्यक्ति को देवी देवताओं और रीति रिवाजों का सम्मान करना होगा।

ग्रामीणों के विरोध के बावजूद सरपंच ने गांव की सामूहिक सहमति को दरकिनार किया। उसने बाहर से भीम आर्मी और कन्वर्टेड ईसाई समूहों को बुलाकर माहौल को जानबूझकर भड़काया। सरपंच खुद भीम आर्मी का जिला अध्यक्ष है और उसी ने अलग-अलग जिलों से कार्यकर्ताओं को एकत्रित किया। अनुमान के मुताबिक करीब एक हजार की संख्या में कन्वर्टेड ईसाई और भीम आर्मी के लोग बड़े तेवड़ा गांव पहुंचे। सरपंच को पहले से यह जानकारी थी कि गांव के भीतर ईसाई तरीके से शव दफनाने पर विवाद होगा, फिर भी यह कदम पूरी योजना के तहत उठाया गया।
17 तारीख की सुबह करीब नौ बजे हालात बेकाबू हो गए। भीम आर्मी और कन्वर्टेड समूहों ने मिलकर ग्रामीणों और जनजातीय परिवारों पर हमला कर दिया। गांव के बुजुर्गों और युवाओं ने शुरू में संयम रखा और टकराव से बचने की कोशिश की, लेकिन हमलावरों ने मारपीट की और कई ग्रामीणों को गंभीर चोटें पहुंचाईं। इसके बाद जनजातीय समाज ने अपने बचाव में कदम उठाया और अपनी परंपरा, पवित्र भूमि और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए एकजुट होकर सामने आया।
18 तारीख को भी स्थिति शांत नहीं हुई। उस दिन भी भीम आर्मी और कन्वर्टेड ईसाई समूहों ने दोबारा उकसावे और हिंसा का सहारा लिया। लगातार हमलों के बाद गांव में आक्रोश फैल गया। इसी दौरान गांव में बने अवैध चर्चों को लेकर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। ग्रामीणों ने साफ कहा कि ये ढांचे पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि लंबे समय से कन्वर्जन के केंद्र के रूप में काम कर रहे थे। जनजातीय समाज ने आक्रोश में इन अवैध ढांचों को ध्वस्त कर दिया। जिसके बाद प्रशासन ने धारा 144 लागू कर गांव को सील किया और बाहरी लोगों की आवाजाही पर रोक लगा दी।
बड़े तेवड़ा गांव के बुजुर्गों का कहना है कि गांव में शांति तभी रह सकती है, जब सभी लोग देवी देवताओं और परंपराओं का सम्मान करें। ग्रामीण शिवलाल सलाम बताते हैं कि जो लोग कन्वर्ट होकर ईसाई समाज में चले गए हैं, अगर वे अपनी इच्छा से लौटना चाहते हैं तो गांव उन्हें रोकता नहीं है। वे नारियल और अगरबत्ती चढ़ाकर मूल धर्म में वापस आ सकते हैं। गांव किसी पर जबरदस्ती नहीं करता, लेकिन अपनी पवित्र भूमि और रीति रिवाजों से कोई समझौता भी नहीं करेगा।
इस पूरे विवाद में सरपंच के ससुर लक्ष्मण दुग्गा की बात भी अहम है। लक्ष्मण बताते हैं कि रजमन का परिवार पिछले दो तीन साल से ईसाई धर्म को मानने लगा था। बीमारी ठीक होने के बाद रजमन ने यीशु पर भरोसा किया। परिवार ने उसे कई बार समझाया कि वह अपने मूल देवी देवताओं को न छोड़े, लेकिन उसने किसी की बात नहीं मानी। लक्ष्मण का कहना है कि अगर रजमन समय रहते परिवार और गांव की बात मान लेता, तो शायद हालात इतने नहीं बिगड़ते। चमरा राम की मौत के बाद गांव वालों ने दफन की अनुमति नहीं दी थी। रजमन ने यह प्रस्ताव भी रखा था कि उसके गैर धर्मांतरित भाई रामसिंह से जनजातीय रीति के अनुसार अंतिम संस्कार कराया जाए, लेकिन अंत में उसने खुद ही टकराव का रास्ता चुना।
कांकेर की यह घटना कोई अपवाद नहीं है। नारायणपुर, जगदलपुर और भटपाल जैसे इलाकों में भी जनजातीय देवस्थलों और शासकीय भूमि पर कब्जे के प्रयास सामने आते रहे हैं। इन्हीं अनुभवों से सबक लेते हुए कांकेर जिले के 14 गांवों ने ग्राम सभा के माध्यम से पास्टर और पादरियों के प्रवेश पर रोक लगाने का फैसला किया। पेसा अधिनियम 1996 के तहत लिए गए इन फैसलों को अदालत ने भी सही ठहराया।
बड़े तेवड़ा की घटना साफ संदेश देती है कि जनजातीय समाज अब चुप नहीं रहेगा। वह अपनी संस्कृति, परंपरा और पवित्र भूमि की रक्षा के लिए संगठित होकर खड़ा हो रहा है। गांवों का यह प्रतिरोध बाहरी संगठनों और योजनाबद्ध हिंसा के खिलाफ कड़ी चेतावनी है कि जनजातीय अस्मिता से खिलवाड़ अब बर्दाश्त नहीं होगा।