बांग्लादेश एक ऐसा राष्ट्र है, जिसका जन्म 1971 में स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता के वादों के साथ हुआ था, लेकिन आज वही देश अपने ही घोषित मूल्यों से दूर खिसकता हुआ दिखाई दे रहा है। जिस भूमि ने नरसंहार के अंधकार से निकलकर एक नए और न्यायपूर्ण भविष्य का स्वप्न देखा था, वहीं आज अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय भय, असुरक्षा और व्यवस्थित हिंसा के साये में जीवन जीने को विवश है। हाल ही में दीपू चंद्र दास की भीषण लिंचिंग ने यह सच्चाई निर्विवाद रूप से उजागर कर दी है कि बांग्लादेश में कट्टरपंथी अराजकता कितनी गहरी जड़ें जमा चुकी है। इससे भी अधिक भयावह है इस पर दुनिया की खामोशी।
दीपू चंद्र दास: भीड़ का न्याय और राज्य की विफलता
दीपू चंद्र दास एक साधारण मजदूर थे। कथित ईशनिंदा के निराधार आरोपों के आधार पर उन्हें भीड़ ने बेरहमी से पीटा, पेड़ से लटकाया और जला दिया। यह कोई आकस्मिक उन्माद नहीं था, बल्कि उस मानसिकता का परिणाम था जिसमें अफवाहें कानून से बड़ी हो गई हैं और भीड़ को न्याय का ठेकेदार बना दिया गया है। जब राज्य तटस्थ दर्शक बन जाए और प्रशासन देर से हरकत में आए, तो संदेश स्पष्ट होता है कि अल्पसंख्यकों की जान की कोई कीमत नहीं है।
यह घटना अकेली नहीं है। मंदिरों पर हमले, घरों की तोड़फोड़, जबरन पलायन और सामाजिक बहिष्कार अब अपवाद नहीं रहे, बल्कि एक पैटर्न बनते जा रहे हैं। प्रश्न यह नहीं है कि हिंसा क्यों हुई, बल्कि यह है कि इसे रोका क्यों नहीं गया।
मानवाधिकारों का चयनात्मक शोर
जहाँ मानवाधिकार संगठनों को मुखर होना चाहिए था, वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ है। क्या मानवाधिकारों का मूल्य धर्म देखकर तय होता है। जब पीड़ित हिंदू हों, तो रिपोर्टें, आपात बैठकें और वैश्विक अभियान क्यों दिखाई नहीं देते। यह चयनात्मक संवेदना केवल नैतिक दिवालियापन नहीं है, बल्कि पीड़ितों के साथ किया गया दूसरा अपराध है, जिसमें उन्हें अदृश्य बना दिया जाता है।
वैश्विक नेतृत्व की खामोशी
दुनिया स्वयं को मानवाधिकारों का संरक्षक बताती है, लेकिन बांग्लादेश में फैलती कट्टरपंथी अराजकता पर उसकी आवाज़ गूंगी क्यों है। अमेरिका जैसे देशों से लेकर वैश्विक मंचों तक सबकी चुप्पी सवालों के घेरे में है। क्या चुनावी गणनाएँ, भू-राजनीतिक समीकरण और रणनीतिक सौदे इंसानी जान से बड़े हो गए हैं। यदि वैश्विक नेतृत्व वास्तव में मूल्यों का पक्षधर है, तो बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अपराधों पर स्पष्ट, कठोर और निरंतर प्रतिक्रिया कहाँ है।
कृतघ्नता की पराकाष्ठा
यह केवल दुर्भाग्य नहीं, बल्कि इतिहास के साथ किया गया घोर विश्वासघात है कि आज बांग्लादेश की धरती पर वही ताकतें उभार पर हैं, जिनका अस्तित्व समाप्त करने के लिए 1971 में भारत खड़ा हुआ था। जिस भारत ने अपने सैनिकों का रक्त बहाया, लाखों शरणार्थियों को आश्रय दिया, अंतरराष्ट्रीय दबाव झेला और नरसंहार को रोकने के लिए निर्णायक कदम उठाए, उसी भारत के प्रति आज एक वर्ग में कृतज्ञता के स्थान पर संगठित शत्रुता दिखाई देती है। इसे कृतघ्नता न कहा जाए तो और क्या कहा जाए।
यह प्रश्न टाला नहीं जा सकता कि क्या यह केवल राजनीतिक अस्थिरता है, या फिर एक सुनियोजित कट्टरपंथी परियोजना, जिसमें भारत के योगदान को मिटाया जा रहा है। जो राष्ट्र अपने उद्धारकर्ताओं को भूल जाता है और अपने संस्थापक मूल्यों को त्याग देता है, वह अंततः अराजकता की ओर ही बढ़ता है।
कानून बनाम भीड़
दीपू चंद्र दास की हत्या उस सामाजिक ढांचे का आईना है, जहाँ भीड़ को दंडमुक्ति का भरोसा हो चुका है। जब न्याय व्यवस्था कमजोर पड़ती है, तो हिंसा संस्थागत रूप ले लेती है। बांग्लादेश को यह तय करना होगा कि वह कानून के शासन को पुनर्स्थापित करेगा या फिर स्वयं को भीड़ के हवाले कर देगा।
आगे का रास्ता: चेतावनी और आह्वान
यह लेख किसी देश के विरुद्ध नहीं, बल्कि मानवता के पक्ष में है। बांग्लादेश को अपने 1971 के वादों की ओर लौटना होगा। धर्मनिरपेक्षता, समानता और सुरक्षा केवल संविधान में लिखे शब्द नहीं, बल्कि उन्हें व्यवहार में उतारना होगा। दोषियों को त्वरित और कठोर दंड, पीड़ितों को प्रभावी संरक्षण और कट्टरपंथ के विरुद्ध स्पष्ट राज्य नीति के बिना भरोसा बहाल नहीं हो सकता।
दुनिया को भी आत्ममंथन करना होगा। चयनात्मक मानवाधिकार, मौन कूटनीति और अवसरवादी नैतिकता हिंसा को ही बढ़ावा देती है। आज की चुप्पी अपराध में साझेदारी के समान है।
इतिहास न कृतघ्नता को माफ करता है, न विस्मृति को और न ही मानवता के साथ किए गए अपराधों को। बांग्लादेश के सामने विकल्प स्पष्ट है। या तो वह 1971 की चेतना को अपनाए, या फिर आज की अराजकता को अपना भविष्य बना ले। यह फैसला जितना टलेगा, उसकी कीमत उतनी ही अधिक चुकानी पड़ेगी।
लेख
बिमलेश कुमार सिंह चौहान
कुलसचिव, आर.आर. इंस्टिट्यूट ऑफ मॉडर्न टेक्नोलॉजी, लखनऊ