तमिल प्रदेश में हिन्दी-विरोध का मूल, ‘एनईपी’ नहीं, रिलीजियस उसूल

इस हिन्दी-विरोध का मूल कारण दक्षिण भारत में पश्चिमी शक्तियों द्वारा फैलाया गया षड्यंत्र है, जिसे अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्ता के सहयोग से चर्च मिशनरियों ने गढ़ा था।

The Narrative World    20-Mar-2025
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खबर है कि देश के तमिल प्रदेश में भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोध फिर उफान पर है।
 
विरोधी उपद्रवियों ने भारतीय रेलवे के कई स्टेशनों के हिन्दी नामों को कालिख पोतकर मिटा दिया है।
 
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इस बार यह विरोध केंद्र सरकार की नई शिक्षा-नीति को मोहरा बनाकर किया जा रहा है।
 
विरोध का स्वरूप वही है, लेकिन इस बार रंग बदला हुआ है। कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार नई शिक्षा-नीति के माध्यम से तमिल प्रदेश पर हिन्दी थोपने का कार्य कर रही है।
 
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इसी आधार पर नई शिक्षा-नीति (एनईपी) का भी विरोध किया जा रहा है, जबकि सच यह है कि नई शिक्षा-नीति में ऐसा कुछ भी नहीं है।
 
इसके बावजूद तमिलनाडु में द्रमुक, अन्नाद्रमुक और एआईएमआईएम जैसे राजनीतिक दलों के नेता एमके स्टालिन और असदुद्दीन ओवैसी सहित अन्य राजनीतिज्ञों द्वारा हिन्दी का अनुचित विरोध किया जा रहा है।
 
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यह विरोध पूर्णतः राजनीतिक है, जिसका संचालन हिन्दू-विरोधी विदेशी रिलीजियस विस्तारवादी शक्तियों के हाथों में है। इस विरोध की गहन पड़ताल आवश्यक है।
 
यह विदित है कि दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध मात्र राजनीतिक विवाद नहीं है, बल्कि विभाजनकारी पश्चिमी धार्मिक योजनाओं के क्रियान्वयन का एक उपक्रम भी रहा है।
 
भारत के विखंडन पर आमादा ईसाई-इस्लामी विस्तारवादी शक्तियां इसे समय-समय पर प्रायोजित करती रही हैं।
 
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इस हिन्दी-विरोध का मूल कारण दक्षिण भारत में पश्चिमी शक्तियों द्वारा फैलाया गया षड्यंत्र है, जिसे अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्ता के सहयोग से चर्च मिशनरियों ने गढ़ा था।
 
पश्चिमी ईसाई-विस्तारवादी शक्तियां भारत के विखंडन हेतु पिछले 100-150 वर्षों से विभिन्न योजनाओं को भाषा, साहित्य एवं शिक्षा के माध्यम से अंजाम देने में लगी हुई हैं।
 
इनके बुद्धिजीवियों ने प्रायोजित भाषा-विज्ञान और इतिहास अनुसंधान के माध्यम से दक्षिण भारत की प्रमुख भाषाओं- तमिल और तेलुगू को संस्कृत भाषा-परिवार से अलग कर ‘हिब्रू’ से मिलती-जुलती भाषा घोषित कर दिया।
 
इसे इस कदर प्रचारित किया गया कि अब वहां के शिक्षण-संस्थानों में भी यह तथ्य स्थापित हो चुका है।
 
जबकि सत्य यह है कि भारत की समस्त भाषाएं संस्कृत से निकली हुई हैं।
 
विलियम जोन्स और मैक्समूलर जैसे पश्चिमी भाषाविदों ने उत्तर भारतीयों को संस्कृत-भाषी ‘आर्य’ और दक्षिण भारतीयों को ‘द्रविड’ घोषित कर भारतीय समाज में शोषक-शोषित की विभाजक रेखा खींच दी।
 
यह आज भी पश्चिमपरस्त भारतीय नेताओं के सहयोग से कायम है। चर्च मिशनरियों की नीतियों से संचालित शिक्षण संस्थानों ने इस विभाजनकारी धारणा को इतना प्रचारित किया कि यह सफेद झूठ सत्य के रूप में स्थापित हो गया। यही अवधारणा भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी को नकारने का प्रेरक बनी।
 
इस पश्चिमी षड्यंत्र की शुरुआत भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में हुई।
 
औपनिवेशिक शासन को वैध ठहराने के लिए पश्चिमी विद्वानों ने ‘भाषा-विज्ञान’ और ‘नस्ल-विज्ञान’ के नाम पर हथकंडे अपनाए।
1856 में कैथोलिक चर्च के पादरी रॉबर्ट कॉल्डवेल ने इस षड्यंत्र को मूर्त रूप दिया।
 
कॉल्डवेल, मद्रास के तिरुनेलवेली चर्च का बिशप था और ऐंग्लिकन चर्च के ‘सोसायटी फॉर द प्रोपेगेशन ऑफ द गॉस्पल’ से संबद्ध था।
 
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उसने 1881 में ‘कम्परेटिव ग्रामर ऑफ द ड्रैवेडियन रेश’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें यह प्रचारित किया कि भारत के मूलवासी द्रविड़ थे और तमिल भाषा संस्कृत-परिवार से बाहर की भाषा है।
 
अंग्रेजों की विभेदकारी नीति के अनुरूप कॉल्डवेल ने भारतीय समाज को भाषा और धर्म के आधार पर विभाजित करने के उद्देश्य से दक्षिण भारत के इतिहास पर ‘ए पॉलिटिकल एण्ड जेनरल हिस्ट्री ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ तिरुनेलवेली’ नामक पुस्तक लिखी।
 
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इसे 1881 में ईस्ट इंडिया कंपनी की मद्रास प्रेसीडेंसी ने प्रकाशित कराया।
 
इस पुस्तक में उसने भारतीय समाज को विभाजित करने, द्रविड़ संस्कृति की पृथकता स्थापित करने और इसे ईसाइयत से जोड़ने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप अंग्रेजी शासन और चर्च दोनों को लाभ मिला।
 
टिमोथी ब्रूक और आंद्रे स्मिथ के अनुसार, “कॉल्डवेल ने व्यवस्थित रूप से द्रविड़ विचारधारा की नींव रखी और दक्षिण भारत की संस्कृत-भाषी तथा असंस्कृत-भाषी आबादी के बीच विभेद उत्पन्न किया।
 
उसने तमिलों को ‘द्रविड़’ घोषित कर उनके पुनरुद्धार की परियोजना प्रस्तुत की।”
 
इस कारण अंग्रेज प्रशासन ने मद्रास के मरीना समुद्र तट पर कॉल्डवेल की प्रतिमा स्थापित की, जो आज भी चेन्नई का ऐतिहासिक स्मारक बनी हुई है।
 
इसके अतिरिक्त, अंग्रेजों और उनके अनुयायियों ने इस षड्यंत्रकारी विचारधारा को दक्षिण भारत के इतिहास के रूप में स्थापित कर दिया।
“इसके आधार पर वहां की संस्कृति एवं समाज को विकृत करने का अभियान चलाया गया और हिन्दी को उत्तर भारतीय भाषा बताकर उसका विरोध किया गया।”
 
1916 में चर्च मिशनरियों ने ‘जस्टिस पार्टी’ नामक राजनीतिक दल बनाया, जिसने 1944 में पृथक ‘द्रविड़स्तान’ की मांग की।
 
यही जस्टिस पार्टी बाद में ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ (डीएमके) के रूप में विकसित हुई, जबकि ‘अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ (एआईएडीएमके) इसकी प्रतिद्वंदी पार्टी बनी।
 
स्पष्ट है कि तमिलनाडु में राष्ट्रभाषा हिन्दी के विरोध के पीछे पश्चिमी विभाजनकारी शक्तियां सक्रिय हैं।
 
यूरोप-अमेरिका की चर्च मिशनरियों और उनसे संबद्ध एनजीओ द्वारा भाषाई अलगाववाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।
 
द्रमुक और अन्ना द्रमुक जैसे राजनीतिक दल भी द्रविड़वाद और हिन्दी-विरोध की राजनीति करते हैं।
 
ऐसे में भाजपा अध्यक्ष और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा हिन्दी के संवर्धन की हिमायत का ‘हिन्दुत्व’ से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन हिन्दी के विरोध की राजनीति निश्चित रूप से धार्मिक सोच से प्रेरित है।
 
लेख
 
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मनोज ज्वाला
पत्रकार, लेखक, अन्वेषक, चिंतक