सांप्रदायिक नारे भारत की आस्थाओं की शाश्वत सिम्फनी को धोखा क्यों देते हैं?

आज, कुछ अवसरों पर धार्मिक जुलूसों या आयोजनों के बहाने उन नारों का प्रयोग होता है जो समाज में तनाव उत्पन्न करते हैं।

The Narrative World    10-Apr-2025
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भारत के चहल-पहल भरे शहरों और शांत गांवों के बीच, रोज़मर्रा की ज़िंदगी की कोलाहल में एक शाश्वत सिम्फनी है – सह-अस्तित्व की एक लय, जो हज़ारों वर्षों से इस भूमि की आत्मा में धड़क रही है। यह लय विविधताओं से परिपूर्ण है, और भारत का सांस्कृतिक परिदृश्य इसी विविधता की साझी धरोहर से गढ़ा गया है।
 
हाल के वर्षों में, यह संतुलन कुछ स्थानों पर ऐसे नारों और गतिविधियों से प्रभावित हुआ है, जो सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयास करते हैं। ऐसे कृत्य भारतीय सभ्यता के उस मूल विचार के विरुद्ध हैं, जिसमें सहिष्णुता और आपसी सम्मान को सर्वोच्च माना गया है।
 
भारत का आध्यात्मिक ताना-बाना
 
भारत का इतिहास बहुलता के ताने-बाने से बुना गया है। “एकम सत्, विप्राः बहुधा वदंति” — यह वैदिक उद्घोष भारत की सनातन परंपरा का मूल है। यह वही परंपरा है जिसने धर्मों, पंथों और सम्प्रदायों को समान दृष्टि से देखा है, न कि उन्हें सत्ता संघर्ष का माध्यम बनाया।
 
सम्राट अशोक से लेकर संत कबीर, मीराबाई, और गुरु नानक तक – सभी ने आध्यात्मिक मूल्यों को सामाजिक समरसता से जोड़ा। लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि इस समरसता की रक्षा तभी हो सकती है जब हर संप्रदाय अपने धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन शांति और गरिमा के साथ करे, बिना किसी और समुदाय की आस्था को ठेस पहुंचाए। 
 
समकालीन परिदृश्य में धार्मिक स्वाभिमान और उकसावे के बीच की रेखा
 
आज, कुछ अवसरों पर धार्मिक जुलूसों या आयोजनों के बहाने उन नारों का प्रयोग होता है जो समाज में तनाव उत्पन्न करते हैं।यह समझना आवश्यक है कि श्रद्धा और उन्माद में भेद है। मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों या अन्य धार्मिक स्थलों को आपसी टकराव का केंद्र बनाना भारत की आध्यात्मिक गरिमा के अनुरूप नहीं है।
 
यह भी उतना ही सच है कि बहुसंख्यक समाज के धार्मिक आयोजनों को अकारण संदेह की दृष्टि से देखना और उन्हें 'प्रभुत्व' स्थापित करने के प्रयास के रूप में प्रस्तुत करना, एकतरफा और पूर्वाग्रही दृष्टिकोण है।
भारत की सनातन संस्कृति यह सिखाती है कि "वसुधैव कुटुम्बकम्" केवल एक भाव नहीं, अपितु एक जीवन दृष्टि है।
 
वास्तविक भारतीय धर्मनिरपेक्षता: व्यवहार में, न कि नारों में
 
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भारत की वास्तविक धर्मनिरपेक्षता वही है जो लखनऊ में रमज़ान के दौरान हिंदू परिवारों के इफ्तार बांटने, केरल में मुस्लिम परिवारों द्वारा ओणम मनाने, या बंगाल में मुस्लिम कारीगरों द्वारा दुर्गा पूजा पंडाल बनाने में दिखती है। ये उदाहरण दिखाते हैं कि सांस्कृतिक साझेदारी और धार्मिक सौहार्द भारत की आत्मा में रचा-बसा है।
 
लेकिन यह साझा विरासत तब ही बची रह सकती है जब उसका संरक्षण सभी समुदाय एक समान रूप से करें — न कि जब एक समुदाय को अपने धार्मिक स्वाभिमान की अभिव्यक्ति पर बार-बार कठघरे में खड़ा किया जाए, और दूसरों की कट्टरता पर मौन साधा जाए।
  
निष्कर्ष: भारत की सच्ची विरासत क्या है?
 
भारत की पहचान धार्मिक सहिष्णुता और आपसी सम्मान से है, न कि तुष्टिकरण या राजनीतिक उपयोग से। आज आवश्यकता है उन मूल्यों को पुनः जागृत करने की, जिन्हें हमारे ऋषियों, मनीषियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने पोषित किया।
 
मुंबई की गलियों में हनुमान मंदिर और दरगाह एक ही दीवार पर बने हो सकते हैं, लेकिन उस सौहार्द को बनाए रखना तभी संभव है जब सभी आस्थाएं भारत की सांस्कृतिक मर्यादा का सम्मान करें।
 
सवाल यह नहीं है कि कौन कितना ज़ोर से बोलता है, सवाल यह है कि कौन शांति से सत्य कहने की हिम्मत रखता है।
 
लेख
अल्ताफ मीर
पीएचडी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया