पहचान की राजनीति और भारत की वैचारिक अस्मिता का संघर्ष

पहचान की राजनीति का तीसरा आयाम क्षेत्रीय अस्मिता का उभार है। "तमिल बनाम आर्य", "मराठा बनाम ब्राह्मण", "ड्रविड़ बनाम हिन्दू", "बिहारी बनाम मराठी" जैसे झूठे द्वंद्व उत्पन्न कर समाज को खंडित किया जा रहा है।

The Narrative World    11-Apr-2025
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भारत, जिसे ऋषियों ने "अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्" की दृष्टि से देखा और "वसुधैव कुटुम्बकम्" की चेतना से गढ़ा, आज उस अस्मिता के संकट से जूझ रहा है जिसे हमने सहस्राब्दियों की साधना से अर्जित किया था।
 
यह संकट बाहरी नहीं, भीतर से पोषित है—जिसका स्वरूप ‘पहचान की राजनीति’ (Identity Politics) है और जिसका वैचारिक मूल ‘कल्चरल मार्क्सवाद’ से जुड़ा है।
 
यह राजनीति अब केवल सत्ता प्राप्ति का उपकरण नहीं रही, अपितु भारत की सांस्कृतिक एकात्मता को खंड-खंड करने का षड्यंत्र बन चुकी है।
 
पहचान की राजनीति की जड़ें 20वीं शताब्दी के पश्चात के वामपंथी विमर्शों में हैं, विशेषकर अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालयों में विकसित हुए "क्रिटिकल थ्योरी", "रेस थ्योरी", "फेमिनिज्म", और "क्वीयर थ्योरी" जैसे विचार-प्रवाहों में।
 
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मार्क्सवादी द्वंद्ववाद का आधुनिक संस्करण जब सांस्कृतिक धरातल पर उतरता है, तो वह जाति, लिंग, भाषा, क्षेत्र, धर्म और यौनिकता को संघर्ष के केंद्र में लाकर समाज को बाँटने का प्रयास करता है।
 
इसे ही आज हम ‘पहचान की राजनीति’ के रूप में देख रहे हैं, जिसका मुख्य लक्ष्य है—भारत की सनातन सांस्कृतिक पहचान को मिटाना और उसे पश्चिम प्रेरित टुकड़ों में विभाजित करना।
 
भारत में यह राजनीति सबसे पहले जाति के नाम पर उभरी। मंडल आयोग और आरक्षण की राजनीति ने जातियों को न्याय नहीं दिया, उन्हें राजनीतिक हितों की सीढ़ी बना दिया।
 
आज ‘ब्राह्मणवाद’ का झूठा नैरेटिव रचकर हिन्दू समाज को आत्मग्लानि और आत्मविरोध की स्थिति में ला खड़ा किया गया है।
 
शिक्षा संस्थानों में 'सवर्ण-विरोधी विमर्श' को प्रोत्साहन देकर नई पीढ़ी को अपनी परम्परा से काटा जा रहा है।
 
जातिगत उन्माद को सामाजिक न्याय के आवरण में परोसा जा रहा है जबकि उसका वास्तविक उद्देश्य हिन्दू समाज की एकता को नष्ट करना है।
 
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इसी प्रकार लैंगिक विमर्श—जो प्रारम्भ में महिला सशक्तिकरण की ओर बढ़ा—अब 'पुरुष-विरोधी', 'परिवार-विरोधी' और 'नारीत्व-विरोधी' विमर्श बन गया है।
 
आधुनिक नारीवाद ने अब मातृत्व को 'दमन' और परिवार को 'पितृसत्ता की साज़िश' घोषित कर दिया है।
 
'लिव-इन रिलेशनशिप', 'सिंगल मदरहुड', 'फ्री सेक्स', और 'क्वीयर थ्योरी' जैसे विचार अब संस्कृति के नाम पर थोपे जा रहे हैं।
 
LGBTQIA+ आंदोलनों के नाम पर जैविक सत्य को नकारने की होड़ लगी है।
 
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यह केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात नहीं रही—यह हिन्दू समाज की वैदिक ऋतियों, गृहस्थ आश्रम और धर्म-संरचना पर सीधा प्रहार है।
 
पहचान की राजनीति का तीसरा आयाम क्षेत्रीय अस्मिता का उभार है। "तमिल बनाम आर्य", "मराठा बनाम ब्राह्मण", "ड्रविड़ बनाम हिन्दू", "बिहारी बनाम मराठी" जैसे झूठे द्वंद्व उत्पन्न कर समाज को खंडित किया जा रहा है।
 
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दक्षिण भारत में ‘आर्य आक्रांता’ का मिथक खड़ा कर हिन्दी, संस्कृत और उत्तर भारतीय परंपराओं को खलनायक बनाया गया है।
 
बंगाल और उत्तर पूर्व भारत में ‘अलग सांस्कृतिक पहचान’ के नाम पर भारत की सामूहिक राष्ट्रीय चेतना को खंडित करने के प्रयास निरंतर चल रहे हैं।
 
यह सब राष्ट्रभक्ति की भावना को सीमित कर, उसे स्थानीय राजनीति में समेटने का षड्यंत्र है।
 
इस्लामी और ईसाई प्रचार संगठनों ने पहचान की राजनीति को अपना माध्यम बना लिया है।
 
कन्वर्जन अब केवल धर्म परिवर्तन नहीं, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय निष्ठा परिवर्तन का उपकरण बन चुका है।
 
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चर्च द्वारा पोषित संगठन अनुसूचित जाती, जनजाति और उत्तर पूर्व के समाजों में "हिन्दू नहीं हो" का नैरेटिव फैलाकर न केवल मतांतरण करवा रहे हैं, बल्कि भारतीय अस्मिता से इन समुदायों को काट भी रहे हैं।
 
‘दलित ईसाई’, ‘आदिवासी ईसाई’, ‘उत्तरपूर्वी नगा राष्ट्र’ जैसे विचारों को प्रोत्साहित कर Bharat को तोड़ने की भूमिका रची जा रही है।
 
यह पूरी वैचारिक संरचना मीडिया, बॉलीवुड, शिक्षा, NGO नेटवर्क और विश्वविद्यालयों के सहयोग से संचालित हो रही है।
 
सिनेमा अब परम्परागत भारतीय मूल्यों को ‘पिछड़ा’ और ‘पितृसत्तात्मक’ दिखाकर आधुनिक विकृति को ‘स्वतंत्रता’ कहकर पेश करता है।
 
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पाठ्यक्रमों में अब तक भारतीय संस्कृति को जातिवादी, हिंसक और प्रतिक्रियावादी बताकर पश्चिमी आधुनिकता को ‘प्रगति’ का मापदंड बना दिया गया है।
 
हिन्दू समाज की सामूहिक स्मृति पर सबसे बड़ा आघात यह है कि उसे उसकी ही परम्पराओं से काटकर, अपराधबोध और विखंडन के द्वंद्व में डाल दिया गया है।
 
एक ओर ‘ब्राह्मणवाद’ के विरुद्ध आंदोलन, दूसरी ओर ‘आर्य-द्रविड़’ संघर्ष, कहीं ‘मनुवाद’ के विरोध में ग्रंथों की निंदा, तो कहीं ‘पुरुष-सत्ता’ के विरोध में परिवार संस्था का विघटन—यह सब सुनियोजित वैचारिक हमले हैं।
 
इस संकट की घड़ी में भारत को राष्ट्रभक्ति के वैदिक भाव से प्रेरित नवचेतना की आवश्यकता है।
 
हमें यह स्वीकारना होगा कि हमारी एकता किसी राजनीतिक संधि की उपज नहीं, अपितु एक सनातन सांस्कृतिक परम्परा की देन है—जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ से लेकर ‘एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ तक फैली है।
 
परिवार, धर्म, भाषा, भूमि और परम्परा—ये हमारी पहचान के स्तम्भ हैं, इन्हें सुरक्षित रखना राष्ट्रभक्ति का धर्म है।
हमें पहचान की राजनीति के विरुद्ध एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करना होगा—जो जाति नहीं, समाज को जोड़े; जो लिंग नहीं, मानवीयता को केन्द्र में रखे; जो क्षेत्र नहीं, राष्ट्र को सर्वोपरि माने; जो धर्मांतरण नहीं, आत्मजागरण को प्रेरित करे।
 
यह आंदोलन न तो प्रतिक्रियावादी हो, न ही केवल आत्मरक्षा की मुद्रा में—बल्कि वैचारिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक आक्रमणों का सामना करने वाला सशक्त प्रतिवाद हो।
 
भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, एक ‘संस्कार-संगम’ है—जिसे किसी जाति, भाषा, क्षेत्र, या लिंग के नाम पर खंडित नहीं किया जा सकता।
 
यही हमारी अस्मिता है, और यही हमारा उत्तर है उन सभी शक्तियों को, जो इस धरा को ‘भारत’ नहीं, केवल ‘इंडिया’ बना देना चाहती हैं।
 
लेख
दीपक कुमार द्विवेदी
स्वतंत्र टिप्पणीकार