बस्तर की बीहड़ों में जब सुरक्षाबलों की निर्णायक कार्रवाई ने माओवादी नेटवर्क की जड़ें हिला दीं, तब गोलियों की आवाज़ों के बीच एक और ‘फ्रंट’ सक्रिय हो उठा — शहरी मोर्चा। ये वे चेहरे हैं जो बंदूक नहीं उठाते, लेकिन कलम और कैमरे के ज़रिए जंगलों में घिरे आतंकियों को सांसें देने की कोशिश करते हैं। जब माओवादी ज़मीन पर पराजित हो रहे हों, तो अर्बन नक्सलियों का 'शांति वार्ता' का राग, एक युद्ध की तरह ही सुनियोजित रणनीति होती है। यह कोई नया प्रयोग नहीं, बल्कि खुद माओवादी दस्तावेज़ों में दर्ज पुरानी नीति है: "रणनीतिक वापसी के लिए वार्ता का उपयोग करो।"
बीजापुर की कर्रेगट्टा पहाड़ियों में चल रहे ताज़ा ऑपरेशन को ही देख लीजिए। हिड़मा, देवा, विकास जैसे मोस्ट वॉन्टेड माओवादी कमांडर पहली बार इतने करीबी घेरे में हैं। सुरक्षाबलों की योजना और जमीनी पकड़ ने इस अभियान को निर्णायक दिशा दी है। माओवादियों के लिए यह अस्तित्व का संकट बन गया है। और तभी — जैसे एक तयशुदा पटकथा के तहत — ‘शांति’ की अपीलों की बाढ़ आ जाती है।
इन अपीलों के पीछे वही संगठन हैं जिनका इतिहास माओवादियों के पक्ष में खड़े रहने का रहा है। PUCL, PUDR, NAPM, और इनके इर्द-गिर्द जमा वह तथाकथित 'मानवाधिकार’ बिरादरी, जिनकी संवेदनाएँ सिर्फ तभी जागती हैं जब कोई माओवादी मारा जाता है, कोई जवान नहीं। सोशल मीडिया पर मारे गए खूंखार नक्सलियों को ‘आम नागरिक’ बताकर एक बार फिर सरकार पर मानवाधिकार हनन का आरोप लगाया जा रहा है — एक घिसा-पिटा प्रोपेगेंडा, लेकिन मकसद बेहद खतरनाक: ऑपरेशन को रोकना, सुरक्षाबलों को बदनाम करना, और जंगल में घिरे कॉमरेड्स को बचाने के लिए समय खरीदना।
यह रणनीति कोई रहस्य नहीं है। 2004 की आंध्र शांति वार्ता इसका क्लासिक उदाहरण है, जब माओवादियों ने बातचीत की आड़ में न सिर्फ पुनर्गठन किया, बल्कि नए हथियार और नेटवर्क खड़े किए। नतीजा? 2010 का दंतेवाड़ा नरसंहार, जिसमें 76 जवान शहीद हुए — ठीक उसी शांति प्रक्रिया के बाद, जिसमें सरकार ने भरोसा दिखाया था, और माओवादियों ने धोखा दिया था।
इस बार खुद माओवादी संगठन की ओर से एक चिट्ठी आई है, जिसमें युद्धविराम की बात की गई है। चिट्ठी का लेखक — रूपेश, जो कि उत्तर-पश्चिम सब जोनल ब्यूरो का प्रभारी है — सीधे तौर पर ऑपरेशन को ‘वार्ता-विरोधी’ बता रहा है। लेकिन असलियत यह है कि इस ऑपरेशन ने माओवादियों को उनके आख़िरी ठिकानों तक सीमित कर दिया है। ऐसे में यह ‘चिट्ठी’ सिर्फ एक झूठा मुखौटा है — एक डैमेज कंट्रोल का प्रयास।
शहरों में बैठे अर्बन नक्सल — कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता, कुछ प्रोफेसर, कुछ एनजीओकर्मी — अब खुलकर मैदान में हैं। नंदिनी सुंदर, हिमांशु कुमार, कॉलिन गोंजालवेस जैसे नाम एक बार फिर उसी स्क्रिप्ट को दोहरा रहे हैं: “संविधान की रक्षा”, “लोकतांत्रिक अधिकार”, “आदिवासियों पर अत्याचार” — ये शब्द सुनने में मासूम लगते हैं, लेकिन इनकी आड़ में जो एजेंडा छिपा है, वह सिर्फ एक है: माओवादी आतंक को वैधता देना।
क्योंकि इस बार जो मारे जा रहे हैं, वे 'अपने' हैं — आंध्र और तेलंगाना के प्रशिक्षित, समर्पित कैडर। इसीलिए वहीं के बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा बौखलाया हुआ है, और ‘शांति’ की आड़ में उन्हें बचाने की होड़ में है। ये वही लोग हैं जो माओवादी हिंसा के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते, लेकिन जैसे ही जंगल में कोई ऑपरेशन सफल होता है, ये "लोकतंत्र खतरे में है" का शोर मचाने लगते हैं।
छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की संयुक्त कार्रवाई ने इस बार माओवादियों को ही नहीं, उनके शहरों में बैठे समर्थकों की रणनीति को भी बेनकाब कर दिया है। सात किलोमीटर के घने क्षेत्र में जो ऑपरेशन चल रहा है, वह माओवादी नेटवर्क की रीढ़ तोड़ने की दिशा में सबसे सटीक कदम है। सरकार और सुरक्षाबल अब न तो भावनात्मक ब्लैकमेलिंग में फंसेंगे, न ही वैचारिक भ्रम में।
आज यह सिर्फ एक सुरक्षा ऑपरेशन नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को बचाने की लड़ाई है। यह तय करने का क्षण है कि भारत में अंतिम निर्णय लोकतांत्रिक संस्थाएँ लेंगी या जंगल में बैठा कोई माओवादी कमांडर। ‘युद्धविराम’ की अपीलें अब छलावे की तरह हैं — ऐसा छलावा जो अगर मान लिया गया, तो फिर एक और दंतेवाड़ा, एक और गढ़चिरौली हमारे सामने खड़ा होगा।
इसलिए आज हर भारतवासी की जिम्मेदारी है कि वह उस चेहरे को पहचानें जो शांति की ओट में आतंक को जिंदा रखना चाहता है। अब कोई भ्रम नहीं — यह भारत की निर्णायक घड़ी है। कानून के राज और लोकतंत्र के अस्तित्व की परीक्षा है। और इस बार, भारत झुकेगा नहीं।