छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के उसूर ब्लॉक में एक बार फिर नक्सली हिंसा ने निर्दोषों की जान ले ली है। एक ओर जब देश के कुछ बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता नक्सलियों से बातचीत की पैरवी कर रहे हैं, तब बस्तर की धरती फिर लाल हो गई। इस बार भी निशाने पर वही लोग थे, जो हमेशा से इस आतंक के सबसे आसान शिकार रहे हैं: मासूम, निहत्थे, गरीब और जनजातीय ग्रामीण।
पिछली रात जो कुछ हुआ, वह न सिर्फ एक जघन्य हिंसा की गवाही है, बल्कि उन तमाम तर्कों और वादों पर करारा तमाचा भी है, जो नक्सलवाद को 'विचारधारा की लड़ाई' कहकर उसे "आंदोलन" बनाने की कोशिश करते हैं। उसूर ब्लॉक के लिंगापुर गांव से शुरू हुआ यह खून-खराबा मीनागट्टा और कंचाल एर्राबोर तक गया, जहां नक्सलियों ने पांच लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
इनमें एक कांग्रेस कार्यकर्ता, दो स्कूल के रसोइये, एक शिक्षादूत और एक ग्रामीण शामिल थे। इनका किसी भी सैन्य कार्रवाई से कोई लेना-देना नहीं था। ये बस अपने घरों में, अपने गांव में, अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी जी रहे लोग थे, लेकिन नक्सलियों के लिए यही उनकी सबसे बड़ी 'गलती' थी।
लिंगापुर गांव में मारे गए कांग्रेस कार्यकर्ता नागा भंडारी के बारे में जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कुछ साल पहले ही उसके भाई को भी नक्सलियों ने मौत के घाट उतारा था। अब एक बार फिर उसी परिवार ने अपना बेटा खोया है। नक्सलियों के इस क्रूर कृत्य से स्पष्ट हो जाता है कि उनका मकसद जन समर्थन या विचारधारात्मक संघर्ष नहीं है, बल्कि खौफ और हिंसा के जरिए वर्चस्व जमाना है।
बाकी चार हत्याएं और भी चौंकाने वाली हैं। रसोइया मडकम और करतम कोसा, दोनों सरकारी स्कूल में बच्चों का खाना बनाते थे। एक शिक्षादूत, जो ग्रामीण शिक्षा को लेकर काम कर रहा था, और एक सामान्य ग्रामीण, ये सभी इस कम्युनिस्ट आतंक का शिकार बने। क्या यही जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई है? क्या जनजातियों के नाम पर चलने वाला यह तथाकथित ‘जनयुद्ध’ अब उन्हीं की हत्या तक सीमित हो गया है?
क्या उन ग्रामीणों के कोई मानवाधिकार नहीं थे? क्या शिक्षक की जान कोई मायने नहीं रखती? क्या एक गरीब ग्रामीण का जीवन एक तथाकथित कम्युनिस्ट 'क्रांति' की बलि चढ़ाने लायक मात्र था? ये सवाल अब और भी गंभीर हो जाते हैं जब हम देखते हैं कि हर नक्सली कार्रवाई के बाद शहरी क्षेत्रों से वही आवाजें आती हैं जो हिंसा को 'उत्तेजित प्रतिक्रिया' या 'राज्य उत्पीड़न का परिणाम' कहकर सही ठहराने की कोशिश करती हैं।
सरकार द्वारा चलाए जा रहे ऑपरेशन, जैसे कि हाल ही में हुए करेगुट्टा एनकाउंटर, ने दर्जनों माओवादियों को खत्म किया है। लेकिन इस लड़ाई का दूसरा मोर्चा कहीं ज़्यादा पेचीदा है। एक ओर जहां जंगलों में बंदूकधारी दुश्मनों से सुरक्षा बल लड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शहरों में बैठे बुद्धिजीवियों के झूठे नैरेटिव और राजनीतिक एजेंडा से भी जूझना पड़ रहा है। ये लोग जब शांति वार्ता की बात करते हैं, तब उन्हें ये बताना चाहिए कि आखिर वो वार्ता किससे करेंगे? उन लोगों से जो लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं रखते? जो अपने विरोधियों को न सिर्फ गालियाँ बल्कि मौत भी देते हैं?
यह स्पष्ट हो चुका है कि नक्सलवाद अब किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकता। न तो जंगलों में, न ही विश्वविद्यालयों की दीवारों पर। यह अब एक सुनियोजित आतंक है, शारीरिक और वैचारिक, और इसका जवाब सिर्फ सुरक्षात्मक कार्रवाई से नहीं, सामाजिक चेतना से भी देना होगा।
समय आ गया है जब देश को, समाज को और खासकर युवाओं को यह समझना होगा कि 'क्रांति' का नाम लेकर चलाया जा रहा यह खूनी खेल असल में विकास विरोधी और जनविरोधी है। इसमें न मासूमों के लिए जगह है, न विचारों के लिए। इसमें सिर्फ हिंसा है, डर है, और एक वैचारिक ढकोसला है जो अपने ही समर्थन आधार को निगल रहा है।