छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में इन दिनों एक ऐतिहासिक और निर्णायक युद्ध लड़ा जा रहा है — एक ऐसा युद्ध जो बंदूकों और बारूद के पार जाकर नैतिकता, राज्य की संप्रभुता और जनजाति समाज के भविष्य का प्रश्न बन चुका है। कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में छत्तीसगढ़ की सुरक्षा बलों ने नक्सलवाद के सबसे खतरनाक टॉप कैडर्स को घेर लिया है। ऑपरेशन अब आगे बढ़ता जा रहा है और यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह केवल एक सैन्य ऑपरेशन नहीं है, बल्कि भारत के लोकतंत्र और माओवादी आतंक के बीच निर्णायक टकराव की घड़ी है।
सबसे पहली और चौंकाने वाली बात यह है कि इस पूरे ऑपरेशन को छत्तीसगढ़ की पुलिस, DRG और बस्तर बटालियन अकेले अंजाम दे रही हैं। केंद्रीय बलों का साथ जरूर है, लेकिन नक्सल गतिविधियों से प्रभावित तेलंगाना की फोर्स इस ऑपरेशन से लगभग गायब है। जहां एक ओर छत्तीसगढ़ के जवान 45 डिग्री तापमान में 5000 फीट ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ते हुए देश के दुश्मनों से लोहा ले रहे हैं, वहीं तेलंगाना की सरकार शांति वार्ता की दुहाई देने वालों के साथ एसी कमरों में बैठकर ऑपरेशन को रोकने की मांग का समर्थन कर रही है।
तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने तो खुलेआम 'ऑपरेशन' को बंद करने की मांग की है और केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि वह "आम जनता" को मार रही है। उन्होंने केंद्र से अनुरोध किया कि वह माओवादियों पर कार्रवाई बंद करे। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार देश को नक्सल आतंक से मुक्त करने में जुटी हैं, और दूसरी ओर तेलंगाना की कांग्रेस सरकार और BRS जैसी पार्टी नक्सलियों की सुरक्षा की चिंता कर रही हैं ?
तेलंगाना सरकार के रवैये का असली चेहरा तब और स्पष्ट हुआ जब एक तथाकथित 'शांति वार्ता समिति' ने मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी से मुलाकात कर, ऑपरेशन रोकने की मांग की। इस समिति में हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज चंद्रकुमार, प्रोफेसर जी. हरगोपाल, प्रोफेसर अनवर खान जैसे नक्सल समर्थक शामिल रहे। इन सभी ने मिलकर मुख्यमंत्री से अनुरोध किया कि वे केंद्र सरकार पर दबाव बनाएं ताकि कर्रेगुट्टा ऑपरेशन रोका जा सके।
यह वही जी. हरगोपाल है जिस पर वर्ष 2022 में UAPA के तहत एफआईआर दर्ज हो चुकी है। पुलिस के अनुसार, जंगल से बरामद दस्तावेजों में नक्सलियों से उनकी सांठगांठ का स्पष्ट उल्लेख था। हरगोपाल अकेला नही है। इस नेटवर्क में सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, गद्दाम लक्ष्मण और कई अन्य माओवादी विचारक शामिल हैं, जिनका नाम माओवादी नेटवर्क से जुड़ा पाया गया।
शहरी नक्सलियों का यह नेटवर्क वर्षों से भारत में वैचारिक युद्ध छेड़े हुए है। ये वो चेहरे हैं जो दिल्ली, हैदराबाद, पुणे और कोलकाता के विश्वविद्यालयों से निकलते हैं, एनजीओ के आवरण में छिपे रहते हैं, और न्यायपालिका, मीडिया और बौद्धिक वर्ग के बीच अपनी पैठ बनाकर नक्सलियों के लिए वैधता का कवच तैयार करते हैं।
प्रोफेसर जी. हरगोपाल का नाम केवल सांठगांठ में ही नहीं, बल्कि मलकानगिरी कलेक्टर आर. वी. कृष्णा के अपहरण प्रकरण में भी मध्यस्थता के रूप में आ चुका है। इस "मध्यस्थता" की आड़ में शांति वार्ता का ड्रामा रचा गया था, और सरकार को नक्सलियों की शर्तों पर झुकने पर मजबूर किया गया।
इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की भूमिका केवल मध्यस्थ की नहीं रही, बल्कि ये वैचारिक प्रशिक्षण और कानूनी सुरक्षा देने वाले अंग के रूप में काम करते हैं। सुधा भारद्वाज, जो स्वयं वकील है, नक्सली कैडर की गिरफ्तारी के समय कानून की आड़ में सुरक्षा देने की कोशिश करती रही है। अरुण फरेरा और सुरेंद्र गाडलिंग जैसे नाम न केवल UAPA के तहत आरोपी रहे हैं, बल्कि इनके लैपटॉप से नक्सल दस्तावेज, कोडेड मैसेज और हिंसक क्रांति की योजना तक बरामद हुई है।
कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में इस समय माओवादी संगठन का शीर्ष नेतृत्व छिपा हुआ है। पोलित ब्यूरो, सेंट्रल कमेटी और DKSZCM जैसे संगठनों के कमांडर यहीं छुपे हैं। इनमें से अधिकांश तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से हैं। बस्तर का इकलौता कैडर माड़वी हिड़मा है जिसे सेंट्रल कमेटी में स्थान मिला है। यह वही हिड़मा है जो झीरम घाटी हमले का मास्टरमाइंड रहा है और जिसके ऊपर कई जवानों और निर्दोष जनजातियों की हत्या का आरोप है।
हिड़मा बस्तर की जमीन, जंगल और जनजातीय समाज से भली-भांति परिचित है। यही वह व्यक्ति है जिसने बस्तर के जनजातियों को हथियार थमाए, उन्हें आगे किया, और तेलुगु नेतृत्व को पीछे से संचालन करने का अवसर दिया। पिछले डेढ़ साल में छत्तीसगढ़ की सरकार और पुलिस ने बस्तर में 400 से अधिक नक्सलियों का एनकाउंटर किया है, जिनमें अधिकांश बस्तर के ही जनजाति युवा थे — जबकि उनके आका, यानी तेलंगाना और आंध्र के नक्सली कमांडर, सुरक्षित बंकरों में छिपे रहे।
यह लड़ाई केवल जंगलों में नहीं, बल्कि शहरों के कॉन्फ्रेंस हॉल, कोर्ट रूम्स और टीवी डिबेट्स में भी लड़ी जा रही है। शहरी नक्सलियों का नेटवर्क देश को यह दिखाने में जुटा है कि माओवादी केवल "गरीबों के हक की लड़ाई" लड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ये वही लोग हैं जो 50 सालों से देश को हिंसा, विद्रोह और अलगाव की आग में झोंक रहे हैं।
आज जब कर्रेगुट्टा में हिड़मा जैसे खूंखार आतंकी घिरे हुए हैं, तो यह नेटवर्क सक्रिय हो गया है। "शांति वार्ता" के नाम पर सरकार को झुकाने, ऑपरेशन रोकने, और माओवादियों को सुरक्षित निकालने का दबाव बनाया जा रहा है। इस पूरे तंत्र की असल चिंता यह नहीं है कि निर्दोष जनजाति मारे जा रहे हैं — बल्कि यह है कि उनके वैचारिक साथी, उनके नेतृत्वकर्ता, उनकी क्रांति की धुरी — अब छत्तीसगढ़ पुलिस के घेरे में हैं।
कर्रेगुट्टा का यह ऑपरेशन केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं है — यह भारत के लोकतंत्र की परीक्षा है। क्या राज्य, न्यायपालिका और समाज मिलकर यह साहस दिखा पाएंगे कि वे हिंसा को समर्थन देने वाले नेटवर्क को उजागर और खत्म कर सकें? या फिर एक बार फिर "शांति", "संवाद" और "मानवाधिकार" जैसे शब्दों की आड़ में हत्यारों को बख्श दिया जाएगा?
छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार, केंद्र सरकार और सुरक्षाबलों ने यह दिखा दिया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और रणनीतिक एकजुटता से नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ा जा सकता है। वहीं तेलंगाना की कांग्रेस सरकार और BRS जैसे दल, एक बार फिर नक्सल समर्थक बौद्धिक जमात की भाषा बोलते दिख रहे हैं।
नक्सलवाद से ग्रस्त क्षेत्रों में शांति केवल तब स्थापित होगी जब न्याय होगा। और न्याय का अर्थ है — उन हत्यारों को उनके अंजाम तक पहुंचाना जिन्होंने हजारों सुरक्षाबलों, नेताओं और निर्दोष ग्रामीणों की हत्या की है। शांति का रास्ता जंगल से नहीं, कोर्ट और संविधान से होकर निकलता है। और जब तक इस देश की व्यवस्था नक्सलियों और उनके शहरी समर्थकों को स्पष्ट संदेश नहीं देगी — कि हिंसा की कोई वैधता नहीं हो सकती — तब तक बस्तर, गढ़चिरौली, बीजापुर, दंतेवाड़ा और अब कर्रेगुट्टा में यह युद्ध चलता रहेगा।
आज कर्रेगुट्टा का पहाड़ गवाह है उस संकल्प का — कि भारत अब हिंसा को बर्दाश्त नहीं करेगा। और यह भी कि शांति की बातें तभी अर्थपूर्ण होंगी जब उसे उन लोगों से नहीं, बल्कि पीड़ितों से पूछा जाए जिन्होंने अपने बेटे-बेटी, पति-पत्नी, मां-बाप को खोया है — नक्सलियों की गोलियों से।
नक्सल हिंसा से पीड़ितों की आवाज़
बीते 1 मई 2025 को बस्तर के नक्सल हिंसा पीड़ित महामहिम राज्यपाल और मुख्यमंत्री से मिले। उन्होंने जो ज्ञापन सौंपा, वह केवल एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि बस्तर की आत्मा की पुकार है।
उन्होंने लिखा: “हम बस्तर अंचल के निवासी विगत चार दशकों से माओवादी हिंसा और आतंक की विभीषिका को झेलते आ रहे हैं… हजारों निर्दोष बस्तरवासियों ने अपने प्राण गंवाए हैं, सैकड़ों गाँव विस्थापित हुए हैं, और अनगिनत परिवारों ने अपनों को खोया है।”
ग्रामीणों ने स्पष्ट रूप से कहा कि केंद्र और राज्य सरकार की संयुक्त रणनीति और सुरक्षा बलों की कार्यवाही से अब बस्तर बदल रहा है — बस्तर ओलंपिक, बस्तर पंडुम, स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण, सड़कें, व्यापार — यह सब इस बदलाव की गवाही है।
लेकिन इसी निर्णायक मोड़ पर, उन्होंने चेताया कि: “PUCL, NAPM, CDRO, PUDR जैसी कुछ शहरी संस्थाएं और बेला भाटिया जैसे स्वघोषित मानवाधिकार कार्यकर्ता इस अभियान को रोकने हेतु सरकार पर दबाव बना रहे हैं… जिन्होंने कभी नक्सली हमलों के पीड़ितों के लिए कोई सहानुभूति नहीं जताई, आज वे नक्सलियों की सुरक्षा के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं।”
अंत में, उन्होंने साफ मांग रखी: “करेर्गुट्टा के अभियान को ना रोका जाए। बस्तर की मुक्ति नक्सलवाद के समूल नाश के बिना संभव नहीं है। नक्सल समर्थकों के विरुद्ध UAPA जैसे कठोर कानूनों में कार्रवाई की जाए।”