06 जून 2025 को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भेजा गया एक पत्र अपने शब्दों में भले ही ‘मानवाधिकार’ और ‘न्याय’ की भाषा बोलता हो, लेकिन उसके नीचे छिपी लिपि भारत के लोकतंत्र के विरुद्ध एक वैचारिक युद्ध की घोषणा है। यह पत्र Indian Association of People’s Lawyers (IAPL) नामक संस्था की ओर से भेजा गया है, और इसका उद्देश्य छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में मारे गए माओवादी शीर्ष नेता सुधाकर के शव को उसके परिजनों को सौंपने के लिए अदालती हस्तक्षेप प्राप्त करना है। साथ ही मांग की गई है कि शव को संरक्षित किया जाए और पोस्टमॉर्टम कराया जाए।
देखने में यह याचिका ‘सामान्य’ लग सकती है, कोई भी परिवार अपने मृत परिजन की देह चाहता है। लेकिन जब यह मांग एक ऐसे व्यक्ति के लिए की जाती है जो भारतीय राज्य और उसकी संस्थाओं के विरुद्ध दशकों से हिंसक युद्ध का सेनापति रहा है, और जब इस मांग के पीछे वही संगठन हैं जो वर्षों से माओवादियों के वैचारिक समर्थक रहे हैं, तो यह ‘शव’ मात्र शरीर नहीं रह जाता, वह राजनीतिक हथियार बन जाता है।
पत्र की भाषा में सुधाकर को "top leader of the Maoist party" बताया गया है। लेकिन जानबूझकर उसके आपराधिक इतिहास और हिंसक गतिविधियों का उल्लेख नहीं किया गया। सुधाकर कोई सामान्य कार्यकर्ता नहीं था, वह माओवादी केंद्रीय समिति का सदस्य था, जिसकी योजनाओं के चलते सैकड़ों जवानों ने अपनी जान गंवाई है, अनेक स्कूलों को विस्फोटकों से उड़ाया गया है, और हजारों निर्दोष जनजातीय ग्रामीण भय और आतंक में जीवन जीने को विवश हुए हैं।
लेकिन अर्बन नक्सल नेटवर्क की रणनीति रही है कि वे शब्दों को हथियार बनाते हैं। वे अपराधी को ‘कार्यकर्ता’ कहते हैं, हत्यारे को ‘एक्टिविस्ट’, और आतंकवादी को ‘क्रांतिकारी’। यही कारण है कि सुधाकर की मौत को वे ‘न्यायिक हस्तक्षेप’ का मुद्दा बनाकर अदालत को एक विचारधारात्मक मंच में बदलना चाहते हैं, जहाँ तथ्यों की नहीं, बल्कि भावनात्मक और राजनीतिक स्वार्थ की सुनवाई हो।
भारत की न्यायपालिका लोकतंत्र की रीढ़ है, लेकिन उसे प्रयोगशाला बनाने का प्रयास आज के सबसे खतरनाक वैचारिक युद्धों में से एक है। जब कोई संगठन अदालत से अनुरोध करता है कि एक खूंखार माओवादी के शव को "परिजनों की उपस्थिति में" पोस्टमॉर्टम के लिए संरक्षित किया जाए, तो वह न्याय के नाम पर उस शव के चारों ओर एक ‘क्रांतिकारी आख्यान’ गढ़ना चाहता है। वह चाहता है कि सुधाकर की अंतिम यात्रा “कॉमरेड सुधाकर अमर रहें” के नारों से निकले, और युवा पीढ़ी को यह संदेश जाए कि माओवाद ‘बलिदान’ का प्रतीक है।
यह घातक है। क्योंकि यह तंत्र को ही तंत्र के विरुद्ध मोड़ने की साजिश है। यह वैसा ही है जैसे कोई ज़हरीली बेल किसी पवित्र पीपल को ही आधार बना कर ऊपर चढ़ जाए।
‘अर्बन नक्सल’ कोई आरोप नहीं, बल्कि तथ्य है। नागपुर में प्रो. गणपति, हैदराबाद में वरवरा राव, दिल्ली में गौतम नवलखा, छत्तीसगढ़ में सुधा भारद्वाज, इन सभी ने माओवादी विचारधारा को न केवल समर्थन दिया, बल्कि उसे कानूनी, शैक्षणिक और मीडिया मंचों पर जिंदा रखा। यही लोग अलग-अलग नामों से संस्थाएँ बनाते हैं, पत्रिकाएँ निकालते हैं, छात्र संगठनों को संचालित करते हैं, और अब अदालतों में याचिकाओं के माध्यम से सुरक्षा बलों को कठघरे में खड़ा करते हैं।
IAPL भी ऐसी ही एक संस्था है, जिसका नाम पहले ही कई बार माओवादियों के साथ संबंधों को लेकर विवादों में आ चुका है। यह वही संगठन है जिसने पहले भी ‘भीमा कोरेगांव’ मामले में हिंसा भड़काने के आरोपी लोगों के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की माँग की थी।
माओवाद को अक्सर गरीबों और जनजातियों की आवाज़ बताकर वैचारिक रंग दिया जाता है। लेकिन सच यह है कि यह विचारधारा लोकतंत्र, संविधान, संसद, और न्यायपालिका को अस्वीकार करती है। यह हिंसा के बल पर सत्ता परिवर्तन की बात करती है। माओवादियों के दस्तावेज़ों में अदालतों को ‘बुर्जुआ’ तंत्र कहा गया है, जिन्हें समाप्त करना आवश्यक माना गया है।
विडंबना यह है कि वही लोग अब उन्हीं अदालतों में याचिका दायर करके अपने कॉमरेड के लिए ‘न्याय’ की माँग कर रहे हैं। क्या यह केवल नैतिक दोगलापन है? नहीं, यह एक सोची-समझी वैचारिक घुसपैठ है।
अगर यह पत्र अदालत द्वारा संज्ञान में लिया गया और सुधाकर के शव को उसके परिजनों को सौंप दिया गया, तो अगला दृश्य अनुमानित है। माओवादी झंडों से सजी शवयात्रा, ‘कॉमरेड सुधाकर’ के पोस्टर, सोशल मीडिया पर प्रचार, और अगली पीढ़ी को यह संदेश कि “देखो, यह है क्रांति की सच्ची राह।”
क्या हम यह भूल जाएँ कि सुधाकर जैसे लोगों के कारण कितनी बच्चियाँ अनाथ हुईं? कितने सिपाही मारे गए? कितने स्कूल, पुल, अस्पताल और सड़कें वर्षों तक नहीं बन पाए?
भारत की न्यायपालिका को अब एक स्पष्ट रेखा खींचनी होगी, जहाँ मानवाधिकार और राष्ट्रविरोधी रणनीति के बीच का अंतर साफ़ दिखे। अर्बन नक्सल नेटवर्क का उद्देश्य कानून की आड़ में कानून को ही परास्त करना है। वे कोर्टरूम को क्रांति का कैम्पस बनाना चाहते हैं, और न्याय को वैचारिक हथियार।
यह केवल एक याचिका नहीं है, यह लोकतंत्र के मूल स्वभाव पर एक और हमला है। हमें इसे केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्तित्व के प्रश्न के रूप में देखना होगा।
वरना आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि क्या भारत इतना विवेकहीन हो गया था कि उसने अपनी ही अदालतों को 'लाल प्रयोगशाला' बनने दिया?