पढ़े-लिखों की पढ़ाई

अर्बन नक्सल नाम से दिखते पढ़े-लिखे लोग देश की जड़ें खोद रहे हैं, विकास की जगह देश तोड़ने की बात कर रहे हैं।

The Narrative World    03-Jul-2025   
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बचपन में माँ कहती थी — बेटा, खूब पढ़ो-लिखो, समझदार बनो। अब समझ में आ रहा है, माँ ने 'कहाँ' तक पढ़ने की सलाह दी थी, 'कहाँ' तक नहीं। क्योंकि देश में कुछ लोग ऐसे पढ़-लिख गए हैं कि अब उनका दिमाग देश के खिलाफ ही सोचने लगा है। ये वही लोग हैं, जो आपको टीवी पर गंभीर चेहरा बनाकर समझाएंगे कि देश में लोकतंत्र खतरे में है, न्याय मर चुका है, सरकार तानाशाह है और माओवादी बेचारे गरीबों के मसीहा हैं।
 
इन 'पढ़े-लिखों' का एक बहुत ही रोचक इकोसिस्टम है, जिसे अर्बन नक्सल कहते हैं। नाम सुनने में ऐसा लगता है जैसे ये किसी बड़े आईटी प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं, पर असल में ये लोग वो हैं जो भारत में जंगल में बंदूक लिए घूम रहे माओवादियों को विचारधारा, समर्थन, पैसा और नैतिक साहस देते हैं — वो भी अपने AC कमरों से।
 
इनका काम क्या है? काम बड़ा आसान है — आपको देश से, सेना से, पुलिस से, विकास से, और संविधान से नफरत करना सिखाना। इनके मुताबिक, भारत में न तो न्याय है, न आज़ादी, न संविधान, न लोकतंत्र। अगर कुछ है, तो बस गरीबों पर अत्याचार और इनकी 'क्रांति' की ज़रूरत।
 
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अब आप सोचेंगे, क्रांति तो ठीक है, पर ये होती कहाँ है? तो जनाब, जंगल में माओवादी बंदूक चलाते हैं और शहर में ये पढ़े-लिखे लोग टीवी स्टूडियो में, विश्वविद्यालय में, एनजीओ में और सोशल मीडिया पर ज़ुबान चलाते हैं। जंगल में गोलियाँ चलती हैं, शहर में शब्दों के गोले फूटते हैं। फर्क बस इतना है कि जंगल वाले सीधे गोली मारते हैं, शहर वाले धीरे-धीरे आपके दिमाग में बारूद भरते हैं।
 
हरिशंकर परसाई ने लिखा था — 'कुछ लोग क्रांति ऐसे करते हैं जैसे कोई बारात निकाल रहा हो।' वही हाल इनका है। जो बंदूक लेकर जंगल में नहीं जा सकते, वो शहर में बैठकर क्रांति का एजेंडा चलाते हैं। ये आपको बताएंगे कि सेना अत्याचारी है, पुलिस जनजातियों की दुश्मन है, और भारत सरकार देश की सबसे बड़ी समस्या है। अब पूछिए कि इसका हल क्या है? तो देश-काल-परिस्थिति के परे हमेशा यही सामान्य जवाब मिलेगा - सरकार हटनी चाहिए!
 
इनकी भाषा भी बड़ी रोचक होती है। हिंसा को 'विद्रोह' कहते हैं, माओवादी टैक्स को 'जनता का सहयोग' बताते हैं, भारत के टुकड़े करने की साजिश को 'सांस्कृतिक विविधता' का हिस्सा बना देते हैं। और जब देश के खिलाफ कोई बड़ा षड्यंत्र पकड़ा जाता है, तो यही लोग चीख-चीखकर कहते हैं, "लोकतंत्र खत्म हो गया!"
 
 
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अब इनकी ट्रेनिंग भी कमाल की होती है। विश्वविद्यालयों में घुसपैठ कर लो, छात्रों को उलझाओ, किताबों में देश की बुराई भरो, और जब बच्चा तैयार हो जाए, तो उसे बताओ कि असली हीरो माओ, मार्क्स और लेनिन हैं, गांधी, पटेल और अंबेडकर नहीं।
 
इनके नेटवर्क में एनजीओ हैं, मानवाधिकार संगठन हैं, मीडिया के कुछ धुरंधर हैं, और कुछ ऐसे लोग हैं जो हर राष्ट्रीय मुद्दे पर सरकार से ज़्यादा पाकिस्तान की भाषा बोलते हैं। जब सेना नक्सल प्रभावित इलाके में ऑपरेशन करती है, तो इन्हें गरीबों की याद आ जाती है। पर जब माओवादी जवानों को मारते हैं, तब इनकी संवेदना छुट्टी पर चली जाती है।
 
अब समस्या यह है कि जो आम आदमी दिन-रात मेहनत कर रहा है, टैक्स दे रहा है, देश के लिए ईमानदारी से काम कर रहा है, उसे यही लोग मूर्ख साबित करते हैं। और जो जंगल में बंदूक लेकर कानून तोड़ रहे हैं, देशविरोधी गतिविधियों में लगे हैं, उन्हें 'क्रांतिकारी' बताकर हीरो बना देते हैं।
 
 
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हरिशंकर परसाई होते तो जरूर कहते — "भारत में ये अर्बन नक्सल ऐसे फल-फूल रहे हैं, जैसे गमले में उगाया गया मनी प्लांट, जिसके बारे में लोग सोचते हैं कि वह बढ़ने पर खूब पैसा देगा, पर कैसे? यह किसी को नहीं पता। किसी को मिले तब तो पता चले।" और यह मनी प्लांट अब इतनी तेजी से फैल गया है कि इसकी लताएं देश के लोकतंत्र की तुलसी माँ को धीरे-धीरे जकड़ने लगी हैं।
 
असल में देश की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि ये लोग बात-बात में संविधान की दुहाई देते हैं, लेकिन जब माओवादी संविधान को मानने से इंकार करते हैं, 'लोकतंत्र' पर हमला करते हैं, तो यही लोग चुप रहते हैं। ये बोलते हैं कि भारत में अल्पसंख्यक, जनजाति और दलित वंचित-शोषित हैं, लेकिन कभी माओवादियों से नहीं पूछते कि आखिर वे बस्तर तक विकास क्यों नहीं पहुँचने देते? बच्चों के हाथ में किताब की जगह बंदूक क्यों थमा रहे हैं? स्कूल क्यों जला रहे हैं?
सच मायनों में अगर किसी ने भारत में असली गरीबी, पिछड़ेपन और विकासहीनता को बनाए रखा है, तो वे माओवादी हैं। और अगर किसी ने इन माओवादियों को नैतिक चादर ओढ़ाई है, तो यही अर्बन नक्सल इकोसिस्टम।
 
अब इस देश की भाग्य-विधाता जनता है, और उसी को तय करना है कि वो इन पढ़े-लिखे देशभक्तों के ज़हर में उलझकर देश से मुँह मोड़ेगी या सच्चाई पहचानकर विकास और लोकतंत्र के साथ खड़ी होगी। देश को तोड़ने वाले इन नकाबपोशों को बेनकाब करना हर भारतीय का कर्तव्य है। नहीं तो किताब से निकली ये 'क्रांति' बंदूक में बदलते देर नहीं लगेगी।