कांग्रेस की चाल: उपराष्ट्रपति पद पर अर्बन नक्सल एजेंडे का खेल?

सलवा जूडूम मामले से लेकर आरएसएस विरोधी बयानों तक, रेड्डी का अतीत कांग्रेस की रणनीति और नक्सली एजेंडे पर नया विमर्श खोलता है।

The Narrative World    23-Aug-2025
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कांग्रेस और इंडिया अलायंस ने पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज बी. सुदर्शन रेड्डी को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर राजनीतिक बहस का दरवाज़ा खोल दिया है। यह चुनाव महज़ संख्या बल की जंग नहीं है, बल्कि वैचारिक टकराव का अखाड़ा बन चुका है, एक ओर राष्ट्रवाद और सुरक्षा का विमर्श, दूसरी ओर वह सोच जो नक्सलवाद को “मानवाधिकार” और “सामाजिक न्याय” के नाम पर वैचारिक कवर देती रही है।
 
रेड्डी ने खुद स्वीकार किया है कि वे आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ हैं। सवाल यह है कि क्या कोई जज, जिसने खुलेआम किसी राजनीतिक–सांस्कृतिक संगठन का विरोध किया हो, अपने फैसलों में पूरी तरह तटस्थ रह सकता है? आलोचक कहते हैं कि आरएसएस की विचारधारा से उनकी असहमति ने उनके न्याय को पक्षपातपूर्ण बना दिया। क्या संविधान ऐसी विचारधारा की इजाजत देता है जो नक्सलियों की हिंसा को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे?
 
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सलवा जूडूम मामले में उनका फैसला इस संदेह को और गहरा करता है। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा नक्सलवाद के खिलाफ चलाए गए अभियान को उन्होंने असंवैधानिक ठहरा दिया था। नतीजा यह हुआ कि नक्सली फिर से सक्रिय हो गए, हिंसा बढ़ी, और जनजातीय समुदाय एक बार फिर गोलियों और धमकियों के बीच जीने को मजबूर हो गया। अमित शाह का कहना है कि “अगर यह फैसला न होता, तो देश 2020 तक नक्सल मुक्त हो चुका होता।”
 
लेकिन यह सिर्फ एक फैसला नहीं। रेड्डी की आरएसएस-विरोधी रुख ने उनके अन्य फैसलों को भी संदिग्ध बना दिया है, जहां भाजपा या उसके हित शामिल थे। हालांकि केंद्र में उस वक्त यूपीए की सरकार थी, लेकिन राज्य स्तर पर भाजपा की सत्ताओं को निशाना बनाया गया। उदाहरण के तौर पर, भोपाल गैस त्रासदी का क्यूरेटिव पिटीशन। 2011 में रेड्डी ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच में सीबीआई की याचिका खारिज की, जो यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर कड़ी सजा के लिए थी। 1984 की त्रासदी में 15 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे, लेकिन रेड्डी ने 14 साल की देरी का बहाना बनाकर केस दोबारा न खोलने का फैसला दिया।
 
आलोचक कहते हैं कि इससे कांग्रेस बच गई, क्योंकि त्रासदी कांग्रेस शासन में हुई थी और जांच से पुराने घोटाले उजागर हो सकते थे। लेकिन अगर रेड्डी आरएसएस-विरोधी हैं, तो क्या उन्होंने भाजपा को बदनाम करने के लिए ऐसा किया? हालांकि यह सीधे भाजपा से जुड़ा नहीं, लेकिन उनकी विचारधारा ने फैसलों में पक्षपात पैदा किया।
 
उनके कई फैसले भाजपा शासित राज्यों और राष्ट्रवादी नीतियों के विरुद्ध गए। सेवानिवृत्ति के बाद भी रेड्डी की गतिविधियां संदिग्ध रहीं हैं, वे गोवा में लोकायुक्त बने, जहां भाजपा सरकार थी, लेकिन कांग्रेस ने तब उन्हें 'यस मैन' कहा था। अब वही कांग्रेस उन्हें 'सामाजिक न्याय का योद्धा' बता रही है। यह दोहरा चरित्र क्या दर्शाता है?
 
अब जब वे कांग्रेस के मंच पर खड़े होकर उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनते हैं, तो उनके पूरे करियर पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
 
रेड्डी की सेवानिवृत्ति के बाद की गतिविधियां भी यह संकेत देती हैं कि उनकी विचारधारा किस ओर झुकी हुई है। उन्होंने वही भाषण दिए और वही याचिकाएं साइन कीं जिन पर अरुंधति रॉय और प्रशांत भूषण जैसे नाम शामिल होते हैं।
 
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सलवा जूडूम मामले में जिस नंदिनी सुंदर को बड़ी जीत मिली, वही वर्षों से नक्सलवाद को “मानवाधिकार का संघर्ष” बताती रही हैं। क्या यह महज़ इत्तेफाक है कि रेड्डी उन्हीं धारा-प्रवाह में बहते दिखते हैं?
 
रेड्डी तेलंगाना में जाति जनगणना के प्रमुख बने, जो कांग्रेस की राजनीति का हिस्सा है। रेड्डी कहते हैं कि चुनाव 'विचारों की जंग' है, कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं। लेकिन उनकी आरएसएस-विरोधी सोच ने उनके फैसलों को पक्षपातपूर्ण बना दिया, जो न्यायपालिका के लिए शर्मनाक है।
 
कांग्रेस को भी पता है कि एनडीए के पास उपराष्ट्रपति चुनाव में बहुमत है, रेड्डी की जीत आसान नहीं। फिर भी उन्हें उम्मीदवार बनाने का क्या कारण है? यह दरअसल कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है।
 
कांग्रेस पार्टी इसे “संविधान बचाने की लड़ाई” कहती है, जबकि असल में यह अर्बन नक्सल नेटवर्क को वैधता देने की कवायद है। यही वह नेटवर्क है जिसे प्रधानमंत्री मोदी संसद में “टुकड़े–टुकड़े गैंग” और “अर्बन नक्सल” कहकर चेताते रहे हैं।
 
यहां असली खतरा यहीं छिपा है। जब कोई राष्ट्रीय दल ऐसे व्यक्ति को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाता है, जिसके फैसलों और बयानों ने नक्सलवाद को परोक्ष रूप से सहारा दिया, तो यह सिर्फ़ एक चुनावी चाल नहीं रह जाता, यह देश की सुरक्षा, न्यायपालिका की निष्पक्षता और लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा सवाल बन जाता है।
रेड्डी जीतें या हारें, लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने यह साफ़ कर दिया है कि कांग्रेस सत्ता की राजनीति के लिए किस हद तक जा सकती है। सवाल यह है कि क्या यह पार्टी अब भी राष्ट्रहित को प्राथमिकता देती है, या उसने खुद को उस वैचारिक धारा के हवाले कर दिया है जो भारत की एकता और अखंडता को ही चुनौती देती है।
 
उपराष्ट्रपति चुनाव 9 सितंबर को है, लेकिन उनकी उम्मीदवारी देश को चेताती है कि कांग्रेस और अर्बन नक्सलियों का नेक्सस कितना गहरा है। क्या कांग्रेस कभी राष्ट्रहित सोचेगी? या सत्ता के लिए ऐसे गठजोड़ जारी रखेगी? देश को जवाब चाहिए, और यह चुनाव उसका आईना है। जांच जारी है, लेकिन तथ्य साफ है, यह नेक्सस देश की एकता के लिए खतरा है।