समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों में आपने अवश्य सुना या पढ़ा होगा कि एक बार फिर जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगे। “भारत तेरे टुकड़े होंगे…” या “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं” (अफजल एक आतंकवादी था)।
लेकिन सवाल यह है कि अच्छी शिक्षा प्राप्त करने गए छात्र, जब देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों तक पहुँचते हैं, तो आखिर क्यों और कैसे देशविरोधी विचारों के समर्थक बन जाते हैं?
आप भली-भांति जानते हैं कि नक्सलवाद भारत के लिए कितनी बड़ी चुनौती है। अभी कुछ दिन पहले जेएनयू परिसर से आवाज़ उठी -
“हर घर से नक्सली निकलेगा”। अब आश्चर्य की बात यह है कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में फैले इस आतंकवाद का समर्थन जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र क्यों और कैसे करने लगते हैं?
विश्वविद्यालय और वैचारिक षड्यंत्र
एक और विमर्श गढ़ा गया कि महिषासुर “मूलनिवासी” था और सवर्णों ने उसे मारकर “झूठ” फैलाया। इस तरह धर्म-विरोधी और भारत-विरोधी विचार छात्रों के बीच पहुँचाए जाते हैं। क्यों?
जाँच करने पर पता चलता है कि यह सब लेफ्टिस्ट विचारधारा के दबदबे के कारण हो रहा है। जेएनयू जैसे संस्थानों में छात्र संघ होते हैं। इनका उद्देश्य छात्रों की समस्याएँ विश्वविद्यालय प्रशासन तक पहुँचाना और राजनीति के प्रति जागरूकता बढ़ाना होता है। भारत को इन्हीं संगठनों से कई राजनीतिक चेहरे मिले भी हैं।
लेकिन एक पैटर्न स्पष्ट है - यहाँ
ज़्यादातर लेफ्ट समर्थित दल ही जीतते हैं और नैरेटिव उन्हीं का चलता है। जो छात्र नेता यहाँ लोकप्रिय होते हैं, आगे चलकर वे मुख्यधारा की राजनीति में भी लेफ्ट समर्थित दलों का अनुसरण करने लगते हैं।
उदाहरण के लिए कन्हैया कुमार, जिसने “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे लगाए और बाद में CPI में शामिल हो गया। इतना ही नहीं, जेएनयूएसयू के एक अध्यक्ष ने बाद में CPI (Maoist) जैसे प्रतिबंधित आतंकी संगठन को जॉइन किया और मारा भी गया। यही हाल जादवपुर विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों का भी है।
इन विश्वविद्यालयों में भारतीय धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता के विरोध में विमर्श रचे जाते हैं। नतीजा यह होता है कि भावी पीढ़ी अपनी ही पहचान के खिलाफ खड़ी कर दी जाती है।
भारत-विरोधी रुख: जेएनयू का उदाहरण
2005 में जेएनयूएसयू में चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश को अपना बताने की हरकत की निंदा का प्रस्ताव लाया गया।
लेकिन SFI, AISF और AISA जैसे सभी लेफ्ट छात्र संगठनों ने
इस प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया। यानी भारत की अखंडता और संप्रभुता से अधिक उन्हें चीन से
“Communist camaraderie” महत्वपूर्ण लगा।
क्या यह किसी देशभक्त छात्र का व्यवहार हो सकता है? क्या यही ज्ञान के मंदिर हैं? यह साफ है कि कम्युनिज्म की विचारधारा भारत के हितों के अनुकूल नहीं।
Communism से Cultural Marxism तक
कार्ल मार्क्स का दावा था कि पूंजीवाद के पतन के बाद समाजवाद आएगा। लेकिन क्रांति रूस और चीन जैसे अधपके समाजों में हुई। जब पूँजीवाद नहीं टूटा, तब एंटोनियो ग्राम्शी ने “
Cultural Hegemony” का विचार दिया। उसने कहा कि पूँजीवाद धर्म, शिक्षा, मीडिया और परिवार पर नियंत्रण से बचा रहता है, इसलिए इन्हें तोड़ना होगा। यही उसका “war of positions” था।
इसके बाद जर्मनी के रुडी दुशके ने “
long march through institutions” का विचार दिया। यानी संस्थानों में घुसो, पाठ्यक्रम बदलो, कल्चर पर हमला करो और छात्रों को परंपरा व राज्य के खिलाफ भड़काओ। यही Cultural Marxism है।
भारत में CPI (Maoist) के आधिकारिक दस्तावेज
Strategy and Tactics of Indian Revolution इसी रणनीति को बताता हैं।
इसमें लिखा है:
“It is our task to further deepen our activities within the student community… imbue them with revolutionary politics, and organise and mobilize the vast majority of them politically.”
यानी विश्वविद्यालय शिक्षा के केंद्र नहीं, बल्कि मओवादियो का भर्ती केंद्र हैं।
विश्वविद्यालयों का रूपांतरण: ज्ञान से बैरिकेड तक
Cultural Subversion: भारतीय संस्कृति को अंधविश्वास बताकर mock किया गया। वेद, उपनिषद, गीता हाशिए पर डाले गए, जबकि लेनिन, स्टालिन और माओ को glorify किया गया।
Militant Politics: बहस की जगह डर और हिंसा ने ले ली। विरोध करने वाले छात्र-शिक्षक अपमानित हुए। हाल ही में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों को धमकी दी गई।
Intellectual Cruelty: इतिहास की सच्चाई छुपाई गई। भारतीय उपलब्धियाँ गायब कर दी गईं, जबकि आक्रमणकारियों को “दयालु” बताया गया।
पुस्तकालयों में मार्क्सवादी साहित्य भरा गया, भारतीय दर्शन और राष्ट्रवादी चिंतन को किनारे कर दिया गया।
वैश्विक पैटर्न
यह केवल भारत तक सीमित नहीं। USSR, चीन, क्यूबा, पूर्वी यूरोप - जहाँ भी कम्युनिज्म फैला, शिक्षा सबसे पहले उसकी शिकार बनी।
विश्वविद्यालय: मंदिर या राष्ट्रद्रोहियों की फैक्ट्री?
तो सवाल यह है - क्या भारत के विश्वविद्यालय सचमुच ज्ञान के मंदिर हैं? या वे कम्युनिस्ट लैबॉरेटरी बन चुके हैं?
जब जेएनयू में “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे लगते हैं, जब चीन को खुश करने के लिए अरुणाचल पर चुप्पी साधी जाती है, तब हमें ही सवाल करना होगा:
हमारे विश्वविद्यालय कब तक पराई विचारधारा का बोझ ढोते रहेंगे?
कब वे सचमुच ज्ञान के मंदिर बन पाएँगे?
लेख
आदर्श गुप्ता
युवा शोधार्थी