विश्व भर में जब भी कम्युनिज्म अथवा वामपंथी विचारधारा की बात होती है तो इसे सामान्यतः मार्क्स, स्टालिन, माओ अथवा लेनिन की जीवनी एवं इनके द्वारा ही विकसित किये गए कम्युनिज्म की विस्तृत शाखाओं तक समेट दिया जाता है, अधिक से अधिक ज्यादा गहराई में उतरने पर रूस एवं चीन के अतिरिक्त कंबोडिया, वियतनाम, इंडोनेशिया जैसे राष्ट्रों में हुए नरसंहारों के अतिरिक्त हमें कम्युनिज्म को जानने समझने के लिए बहुत कुछ नहीं मिलता, तो क्या कम्युनिस्ट विचारों का प्रसार केवल इतना सा ही है यह फिर इसके दूसरे स्वरूप भी हैं जो उदारवादी विचारों का चोला ओढ़कर दुनिया के कई लोकतांत्रिक राष्ट्रों को भीतर से खोखला करने पर आमादा हैं? क्या आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा विकसित होने के उपरांत के राष्ट्रों में सबसे पुराना लोकतंत्र माने जाने वाला अमेरिका भी कभी इसकी जद में रहा है यदि हाँ तो फिर वर्तमान परिदृश्य में वह कितना प्रभावी है, आलेखों की इस श्रृंखला के माध्यम से हम इन्ही प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं।
आलेखों की इस श्रृंखला में अब तक हमने जाना कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में कम्युनिज्म अथवा कम्युनिस्ट विचार किस प्रकार लोकतांत्रिक राष्ट्रों के भीतर अपनी जड़ें मजबूती से जमाये बैठा है, कैसे वह लोकतांत्रिक राष्ट्रों में स्थापित मूल्यों उनकी संस्कृति को तबाह करने पर आमादा है और सबसे महत्वपूर्ण कैसे इसके भ्रम जाल अथवा प्रपंच का सबसे बड़ा शिकार वो जनसमूह ही है जो उदारवादी कोरी कल्पनाओं के आधार पर अपनी और अपनी आने वाली पीढ़ियों की मौलिक स्वतंत्रता तक नष्ट करने में जाने-अनजाने इस विषाक्त विचार का सारथी बनता दिखाई दे रहा।
इस भ्रमित जनसमूह की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह कम्युनिस्ट विचारों के लोकलुभावन बाहरी आवरण में ही उलझा रह जाता है, जैसे कथित तौर पर समानता आर्थिक, लैंगिक, नस्लीय अथवा किसी भी अन्य आधार पर, भ्रम के इस आवरण से वह यह समझने में असमर्थ जान पड़ता है कि कम्युनिज्म मूलतः पीड़ा के व्यवसाय के माध्यम से सत्ता कब्जाने का जरिया मात्र है और जिस उदारवादी अथवा कथित रूप से समान मापदंडों के समाज के लिए ये आपको उद्देलित करता है, वहां मजबूत होने अथवा सत्ता कब्जाने के उपरांत वह समाज के अंतिम व्यक्ति तक से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक छीन लेता है, इस क्रम में पूर्व में अखंड सोवियत संघ, पोलैंड, पूर्वी जर्मनी से लेकर वर्तमान में चीन एवं उत्तर कोरिया तक ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जहां समानता की कथित क्रांति के नाम पर लोगों से उनके मौलिक अधिकार भी छीन लिए गए हों।
तो फिर आखिर इसका उद्देश्य क्या, क्या यह केवल सत्ता के लिए है तार्किक रूप से पूछे तो हां, आप इतिहास टटोलें अथवा वर्तमान के कम्युनिस्ट आंदोलनों के झंडेबरदारों का आकलन करें आप पाएंगे कि यह विशुद्ध रूप से केवल सत्ता कब्जाने का टूलकिट मात्र है, जिसके मूल में समाज को किसी भी आधार पर बांटने की नीति है, दरअसल इसी विभाजन से शक्ति का निर्माण होता है जो सुखद काल्पनिक भविष्य की आस लगाए इस रक्तपिपासु विचार के पीछे लामबंद हुए एक वर्ग की सामूहिक शक्ति है, इसी शक्ति के आधार पर सत्ता का धुर्वीकरण संभव है जहां पहले तो ये विचार (कम्युनिस्ट) सत्तारुढ़ विचारों पर प्रभावी रूप से हावी रहता है और फिर इस दबाव से धीरे धीरे पूर्ण क्रांति अथवा पूर्णतः सत्ता कब्जाने के मैकेनिज्म को लागू किया जा सकता है।
आपको चीनी कम्युनिस्ट तानाशाह का प्रसिद्ध कथन याद होगा कि 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है' यह पुरानी बात है, सांस्कृतिक मार्क्सवाद के इस युग में सत्ता, पीड़ा के व्यवसाय के आधार पर बांटे गए दिग्भ्रमित पृथक वर्गों की सामूहिक शक्ति के वैचारिक दबाव से पाई जा सकती है, यह सहज नहीं है इसलिए इसके कई चरण हैं, ग्लोबल अलायन्सेज हैं (कममुनिस्ट एवं इस्लाम), सबसे अहम निरंतर आपको (लोकतांत्रिक राष्ट्रों को) दीमक की तरह खोखला कर रहा एक मजबूत तंत्र है, जो संविधान प्रदत अधिकारों का दुरुपयोग कर आपकी मौलिक स्वतंत्रता तक छीनने का प्रपंच गढ़ रहा है, विडंबना तो यह है कि पोलिटिकली करेक्ट होने के जिस नागफांस में इसने आपको जकड़ा हुआ है वहां आप केवल तमाशाई बनने एवं अपनी अस्मिता अपनी पहचान की रक्षा करने को लेकर भी शर्मिंदा किये जाते हैं।
दुर्भाग्य से इस पूरे प्रपंच का विकास बेहद सुनियोजित रूप से हुआ है इसलिए एक सामान्य व्यक्ति को यह बेहद स्वाभाविक जान पड़ता है, उसे मालूम नहीं पड़ता कि सत्ता कब्जाने के अपने उपक्रम में ये कम्युनिस्ट समाज मे वयाप्त किसी भी असमानता का निराकरण नहीं चाहते अपितु उनका प्रयास इसके आधार पर पीड़ित वर्ग के मन मे दूसरे वर्ग को लेकर घृणा एवं हिंसक विचारों का पोषण करना है ताकि आवश्यकता अनुसार पीड़ित वर्ग की शक्ति का उपयोग सत्ता की सीढ़ियां बनाने में किया जा सके, आप अमेरिकी सिविल राइट मूवमेंट (अश्वेतों के अधिकार का आंदोलन) को ही देख लें, अमेरिका में अश्वेतों का यह संघर्ष लगभग 150 वर्ष पुराना है, लेकिन हालिया कुछेक वर्षो में इसके प्रारूप को देखें तो इस स्वाभाविक संघर्ष में अब आपको वामपंथी (कम्युनिस्ट) मिलावट स्पष्ट रूप से दिखेगी।
अमेरिकी सिविल राइट मूवमेंट के संदर्भ में कम्युनिस्टों की घुसपैठ को मैलकॉम एक्स के फोर पॉइंट एक्सप्लेनेशन से समझा जा सकता है, जिसने अश्वेतों को विश्व का मूल निवासी बताते हुए दावा किया कि वे श्रेष्ठ हैं जबकि श्वेत शैतानी लोग हैं जिनका अंत अब निकट है, यह समानता लाने से कहीं अधिक श्वेत वर्गों के विरुद्ध घृणित एवं हिंसक विचारों को पोषण करने का ही प्रयास था जिसने शांतिपूर्ण रूप से अमेरिकी समाज मे वयाप्त असमानता को खत्म करने पर बाध्य किये गए मूवमेंट जिसकी अगुवाई कभी मार्टिन लूथर किंग ने की थी को हिंसक नस्लीय संघर्षों के रूप दिया है।
अश्वेतों के ये प्रदर्शन आपको अब हिंसक दिखाई देंगे जबकि नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा देने वाले सभी कानून अब इतिहास की बातें हैं, बावजूद इसके किसी छोटी से व्यक्तिगत घटना को बड़ा बनाकर अब हिंसक प्रदर्शनों का रूप दिए जाना इस आंदोलन में हुई कममुनिस्ट घुसपैठ का ही परिणाम है, सबसे अहम अब इस प्रकार की किसी भी घटना का अपराधबोध श्वेत समाज पर सामूहिक रूप से बिठाया जा रहा यही कम्युनिस्ट प्रवृत्ति है, जिसमे एक वर्ग किसी पूर्व में हुए अन्याय के लिए भी हमेशा मानसिक रूप से अपराधबोध का शिकार रहे, जबकि दूसरे का ध्यान समस्या के निवारण से अधिक वर्ग विशेष के प्रति घृणा पर हो।
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हालिया कुछ वर्षो (दशकों) में दलित, अल्पसंख्यकों, किसानों, वंचित वर्गों के नाम पर भारत में किये जा रहे आंदोलनों में आपको इसी घृणित एवं हिंसक विचारों का सम्मिश्रण दिखाई देगा, जबकि दूसरा वर्ग जो इस कममुनिस्ट जनित त्रासदी के दूसरे सिरे पर खड़ा है वो कथित रूप से पोलिटिकली करेक्ट होने की चेष्ठा में अपराधबोध से ग्रसित दिखाई देगा, यह मानसिकता आजाद मैदान से लेकर भीमा-कोरेगांव, सीएए-एनआरसी, किसान आंदोलन जैसे दर्जनों प्रदर्शनों में शामिल उग्र भीड़ के स्वभाव में दिखी है, जिनमे से कई प्रदर्शनों का कारण तो भारत में घटित कोई घटना थी भी नहीं।
यह मूल रूप से अमेरिकी सिविल राइट मूवमेंट में कम्युनिस्ट प्रयोगों के भारतीय स्वरूप है, जिसका सार यही है कि कहीं किसी प्रदर्शन में किसी हिंसक भीड़ की हिंसा, इसलिए न्यायोचित है क्योंकि सवा सौ करोड़ के देश मे उसकी जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है तो उसके विरुद्ध कोई भी अवलोकन आपको अल्पसंख्यक अधिकारों का विरोधी अथवा असहिष्णु बना देगा, इसी प्रकार आप दलित विरोधी, महिला विरोधी, युवा विरोधी, द्रविडं विरोधी, किसान विरोधी एवं अंतहीन पीड़ाओं से जन्मे अवधारणाओं के दूसरे सिरे पर खड़े दिखाई देंगे, आप बारीकी से देखेंगे तो पाएंगे कि यह विशुद्ध रूप से पीड़ा के व्यवसाय सम्बंधित सत्ता का संघर्ष है जिसके भ्रमजाल में एक वर्ग पोलिटिकली करेक्ट होने की अवधारणा से जकड़ा हुआ है, अमेरिका से लेकर भारत तक यह कम्युनिज्म का नया स्वरूप है, जिसका अंतिम उद्देश्य सत्ता पर प्रभावी नियंत्रण से लेकर अंततः उसपर चिरस्थाई कब्जा जमाना है।
(तथ्य - साभार, राजीव मिश्रा, लेखक - विषैला वामपंथ)