जल जंगल जमीन

दरअसल शहरों की चमक दमक से दूर सुदूर जंगलो में निवासरत वनवासी/जनजातीय वर्ग को यह भान हो चला है कि कोरी कल्पनाओं के आधार पर रची गई इस उन्मादी क्रांति जो जबरन उनपर थोपी गई है का सबसे अधिक शिकार उनका अपना समुदाय ही हुआ है

The Narrative World    09-Nov-2022
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जब भी माओवाद (नक्सलवाद) का उल्लेख होता है तो जनजातीय बहुल क्षेत्रों में लगभग चार दशकों से चले आ रहे इस रक्तरंजित संघर्ष को देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक धड़ा इसे जनजातीय (वनवासी, आदिवासी) समुदाय की परंपराओं उनकी अस्मिता एवं सबसे अधिक उनके जल जंगल एवं जमीन का संघर्ष बताते नहीं थकता, हालांकि वास्तविकता इससे ठीक विपरीत रही है, यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई हिटलर का परचम उठाये यहूदियों के बीच रहकर यह दावा करे कि मित्र राष्ट्रों की सेना उनकी जंगल उनकी जमीनों पर कब्जा जमाना चाहती है, इसलिए इनके विरुद्ध का यह संघर्ष न्यायोचित है, भले ही वह नाजीवाद के बैनर तले ही क्यों ना लड़ा जा रहा हो।
 
यह भी कि देश को समाजवाद से जोड़कर दिखाने एवं सत्ता में पकड़ मजबूत रखने के प्रयासों में देश पर लंबे अरसे तक शासन करने वाली पूर्ववर्ती केंद्र सरकारों की दृष्टि में जनजातीय समुदाय के विकास एवं मुख्यधारा में इन्हें शामिल करने का डिब्बा कहीं अनचेक्ड छूट गया जिसके परिणामस्वरूप ही मार्क्स की अपूर्ण अधूरी थ्योरी को स्टॅलिन, लेनिन और फिर माओ जेडोंग के नरसंहारों से महिमामंडित करते, उन्मादी क्रांति की सनक लिए कम्युनिस्ट आतंकियों के समूह ने भोले भाले जनजातीय समुदाय को अपना सहज शिकार बनाया, उसके बाद कि भयावह वास्तविकता तो जगजाहिर ही है, चार दशकों से चले आ रहे इस संघर्ष में अब तक हजारों जानें गई हैं, पिछले दो दशकों में ही 20000 से अधिक लोग इस कथित क्रांति के उन्माद की भेंट चढ़े हैं, बताने की आवश्यकता नहीं कि इसमें सबसे अधिक संख्या जनजातीय समुदाय के लोगों की है।
 
लेकिन क्या यह इतना ही सरल था कि आदि काल से सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग रहे शांतिप्रिय जनजातीय समुदाय ने सहजता से ही माओ की विचारधारा जनित बंदूकें थाम ली और देखते ही देखते उनकी पीढियां इस तथाकथित उन्मादी क्रांति के दलदल में डुबोई जा रही हैं ? तो इसके अपने कई कारण हैं। अव्वल तो ये कि इसमें संशय नहीं कि जनजातीय समुदाय को सनातनी संस्कृति से पृथक बताने एवं उसको बांटने का षड़यंत्र ब्रिटिश काल से ही चला आ रहा है, अंग्रेज मिशनरियों को इस हिन्दू बहुसंख्यक देश को तोड़ने एवं ईसाइयत के प्रचार, प्रसार के लिए सामान्यतः जंगलो में निवास करने वाला जनजातीय समुदाय सबसे सहज लक्ष्य दिखा, परिणामस्वरूप 1850 से इसे तोड़ने के प्रयासों को 1950 के दशक तक एल्विन जैसे मिशनरियों के माध्यम से आगे बढ़ाया गया। ये अलग बात है कि अथक प्रयासों के बावजूद मिशनरियों को अपने इस कुकृत्य में बेहद आंशिक सफलता ही मिल सकी।
 
 
Elwin marriage
 
इसका बहुत बड़ा श्रेय जनजातीय समुदाय के धरती आबा (भगवान बिरसा मुंडा), वीर गुंडाधूर, वीर बलिदानी वीर नारायण सिंह जैसे अगणित वीर योद्धाओं को ही है जिन्होंने समय समय पर ना केवल अंग्रेजो के विरुद्ध जनजातीय समाज को संगठित कर सशस्त्र संघर्ष किया अपितु यह भी सुनिश्चित किया कि परतंत्रता के उस काल खंड में भी अंग्रेजी विद्वेषित मानसिकता उनकी संस्कृति उनके धर्म पर हावी ना हो सके। ये उनके त्याग, समर्पण एवं राष्ट्रभक्ति के प्रति कृतज्ञता का ही भाव रहा होगा जब संविधान निर्माताओं ने जनजातीय समुदाय के संवैधानिक सहभागिता को सुनिश्चित किया हालांकि बावजूद इन प्रयासों के स्वतंत्रता के सात दशकों के उपरांत भी व्यवहारिक रूप से परिस्थितियां अपेक्षाकृत नहीं।
 
निर्विवादित रूप से वर्तमान परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी सबसे महत्वपूर्ण काल स्वतंत्रता के उपरांत के दो-तीन दशकों का था, जब अंग्रेजो के शासनकाल में मिशनरियों द्वारा अपनी संस्कृति नष्ट किये जाने के खतरे से जूझ रहे वनवासी/जनजातीय समुदाय को स्वतंत्रता के उपरांत बेहतर बुनियादी सुविधाओं एवं विकास की मुख्यधारा से जुड़ने की अपेक्षा थी, यही वो काल था जब अन्य क्षेत्रों के विकास के साथ ही साथ केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा समावेशी रूप से जनजातीय बहुल क्षेत्रो को भी जोड़ा जाना चाहिए था।
 
दुर्भाग्यवश जनजातीय बहुल क्षेत्रों को लेकर स्वतंत्रता के उपरांत कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार की नीतियां कमोबेश अंग्रेजो की सरकार से इतर और कुछ भी ना रही, इसे ऐसे समझे कि पुणे के आर्चबिशप के बुलावे पर भारत आए ईसाई मिशनरी वेरियर एल्विन को जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ना केवल जनजातीय बहुल क्षेत्रों के संरक्षण का उत्तरदायित्व सौंपा अपितु अपनी विद्वेषित मानसिकता को पूरा करने के क्रम में सरकार ने उसे सुख-सुविधाओं की भी कमी ना होने दी, यदि बाबा कार्तिक उरांव जैसे कुछ नामों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो रही सही कसर संविधान निर्माताओं द्वारा समुदाय के उत्थान के लिए आरक्षित सीटों से चुने गए जनप्रतिनिधियों एवं भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र ने पूरी की, जिनकी मिलीभगत ने दशकों इन क्षेत्रों को ना केवल मुख्यधारा से दूर रखा अपितु अवसर मिलने पर इनका शोषण भी हुआ।
 
 
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दशकों की इसी उपेक्षा एवं भ्रष्ट अधिकारियों की अकर्मण्यता ने 1970-80 के दशक में अस्तित्व में आई एमसीसीआई एवं पीपुल्स वॉर ग्रुप जैसी कम्युनिस्ट आतंकी समुहों को झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओड़िशा एवं महाराष्ट्र के घने जंगलों में घुसपैठ करने एवं जनजातीय समुदाय को दिग्भ्रमित कर अपनी पकड़ मजबूत करने का खुला अवसर दिया, माओवादियों ने इस अवसर का लाभ दोनों हाथों से उठाया, जहां जैसे आवश्यकता वहां वैसा दुष्प्रचार, उदाहरण के लिए जहां जनजातीय बहुल क्षेत्रों में इस चरमपंथी विचारधारा ने जल जंगल जमीन के संरक्षण का चोला ओढ़ जनजातीय समुदाय को विकास के दोहरे मापदंड पर दिग्भ्रमित किया तो वहीं बिहार जैसे क्षेत्रों में जात-पात एवं ऊंच नीच इनके पनपने का आधार बना।
 
90 से 2000 के दशक में माओवादियों का यह तंत्र विदेशी वित्तीय पोषण, राष्ट्र विरोधी शक्तियों के गठजोड़ एवं देश की संप्रभुता के विरुद्ध छेड़े गए इस सशस्त्र संघर्ष के विरुद्ध अनिर्णय की स्थिति के फलस्वरूप जनजातीय बहुल क्षेत्रों में बेहद मजबूत शक्ति के रूप में उभरा, वर्चस्व के अपने काल के दौरान (2004 -12) जब दोनों प्रमुख माओवादी संगठनो के विलय के उपरांत सीपीआई (माओवादी) अस्तित्व में आई, तो संगठन कमोबेश भारत की 25 प्रतिशत से अधिक भूमि पर प्रभावी रूप से काबिज हो चला था।
 
दुर्भाग्य से जनजातीय बहुल क्षेत्र इस रक्तपिपासु क्रांति की हृदयस्थली बनकर उभरे, परिणामस्वरूप समानांतर कथित जनवादी सरकारें, कथित जन अदालतें (कंगारू कोर्ट्स) माओवादियों की प्रशासनिक व्यवस्थाएं जनजातीय समुदाय के जीवनशैली का हिस्सा बनते चली गई, दुष्प्रचार एवं भ्रमजाल के घालमेल से ऐसी छवि गढ़ने का प्रयास किया गया जैसे माओवाद और उनकी कथित क्रांति तो जैसे दशकों से समुदाय की स्वाभाविक वास्तविकता थी, अब तो केवल इसे मूरत रूप दिया जा रहा है।
 
हालांकि जमीन पर हुआ यह परिवर्तन स्वाभाविक नहीं था अपितु इसकी योजना ने तो देश में दशकों पहले आकार लेना प्रारंभ कर दिया था, दरअसल रूस की क्रांति के उपरांत दुनिया भर में उत्पन्न हुए कोलाहल से भारत भी वंचित नहीं था और परतंत्रता के उस दौर में भी मार्क्स एवं लेनिन के विचारों को हाथों हाथ लेने वाले समूहों ने भारत को एक कम्युनिस्ट देश बनाने के अपने प्रयासों को गति देना प्रारंभ कर दिया था, शुरुवाती विफलताओं के उपरांत इस तंत्र को भारत में फैलने फूलने का अवसर 70 के दशक में मिला जब अपने विदेशी आकाओं की सहायता से यह भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों, कला निकायों, प्रशासनिक सेवाओं एवं यहां तक कि न्यायिक एवं राजनीतिक तंत्र में अपनी मजबूत पैठ बनाने में सफल रहा।
 
परिणामस्वरूप देखते देखते देश भर में कम्युनिस्ट झुकाव रखने वाले कथित मानवाधिकार संगठनों, कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, कवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, कथित नारीवादियों, संपादकों, पत्रकारों की एक पूरी फौज (अर्बन नकसल्स) दिखाई-सुनाई देने लगी, बताने की आवश्यकता नहीं कि यही वो तंत्र है जिसने ना केवल सुनियोजित रूप से इस विषाक्त विचारधारा को जनजातीय बहुल क्षेत्रों में सशस्त्र संघर्ष छेड़ने एवं उसे मजबूती से स्थापित करने की योजना एवं क्रियान्वयन में भूमिका निभाई अपितु यह भी सुनिश्चित किया कि दंडकारण्य के जंगलो से दूर देश के प्रत्येक शहर एवं सबसे अधिक राजधानी में इसे सहानभूति की दृष्टि से देखा जाए।
 
इसमें संशय नहीं कि इस तंत्र ने विश्वविद्यालयों में स्थापित अपनी छात्र इकाइयों, कला समुहों, किसान संगठनों, मजदूर इकाइयों, जातिवादी समुहों, गैर सरकारी संगठनों एवं यहां तक कि देश विरोधी एजेंडे में लिप्त कट्टरपंथी समुहों (इंडियन मुजाहिदीन, सिमी, पीएफआई) एवं शत्रु राष्ट्रों की इकाइयों (आईएसआई) के साथ भागीदारी कर यह सुनिश्चित किया कि उनके द्वारा लगाई गई इस कथित क्रांति की आग धधकती रहे, इस क्रम में विदेशी वित्तिय पोषण की सहायता से आयोजित किये जाने वाले बड़े-बड़े सेमिनारों, गोष्ठियों, समाचार पत्रों एवं मीडिया समुहों के माध्यम से इस नैरेटिव को सदैव बल दिया गया कि सुदूर जंगलो में सुरक्षाबलों एवं जनजातीय समुदाय के रक्त से लिखी जा रही क्रांति की यह कहानी जनजातियों के जल, जंगल एवं जमीन के पूंजीवादी शक्तियों कर विरुद्ध संरक्षण का ही संघर्ष है, यहां तक कि अपनी पुरखो की भूमि पर इस विषाक्त विचार की बर्बरता के विरुद्ध एकजुट हुए जनजातीय समुदाय के संघर्ष (सलवा जुडूम) को अवैध घोषित कराने की मुहिम चलाई गई, और अंततः न्यायिक तंत्र में अपनी घुसपैठ की बिनाह पर इसे प्रतिबंधित घोषित कराने में यह तंत्र सफल भी हुआ।
 
इसमें भी संशय नहीं कि पिछले एक दशक में परिस्थितियां तेजी से बदली हैं और अथक प्रयासों के बावजूद यह तंत्र अपने उद्देश्यों में असफल होता दिखाई पड़ रहा है, माओवाद के विरुद्ध वर्तमान केंद्र सरकार के दृढ़ निश्चय ने इसके शहरी तंत्र से लेकर जनजातीय बहुल क्षेत्रों में पैर पसारे बैठे नक्सलियों के सशस्त्र संघर्ष को भी पैर समेटने पर बाध्य कर दिया है, यह सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं देश के विरुद्ध चलाये जा रहे इस युद्ध से लड़ने की सरकार की सशक्त नियत ही है कि ना केवल जनजातीय बहुल जिन क्षेत्रों में माओवादियों के वर्चस्व हुआ करता था वहां सुरक्षाबलों के कैम्प खोले जा रहे हैं अपितु इस पूरे इकोसिस्टम को शहरों में बैठकर क्रियान्वित कर रहे गौतम नवलखा, वरवरा राव, सुरेंद्र गाडगिल, हैनी बाबू समेत अर्बन नक्सलियों के सभी बड़े नाम जेलों में क्रांति के गीत गुनगुना रहे हैं।
 
जहां तक बात जनजातीय समुदाय की है तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि जमीन पर परिवर्तित हो रही परिस्थितियों में सबसे अहम भूमिका का निर्वहन जनजातीय समुदाय ने ही किया है, इसे ऐसे समझे कि छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड, ओड़िशा, आंध्रप्रदेश एवं महाराष्ट्र के जिन कुछेक क्षेत्रों में माओवादी अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं वहां पिछले कुछ वर्षो में स्थानीय कैडरों का बड़े पैमाने पर आत्मसमर्पण देखा गया है, माओवादियों के लिए परिस्थितियां इतनी विकट हो चली हैं कि उन्हें संगठन चलाने के लिए नए कैडरों की खोज में मारे-मारे फिरना पड़ रहा है, ज्यादातर क्षेत्रों में संगठन का बुनियादी संगठनात्मक ढांचा भी टूट की कगार पर है।
 
दरअसल शहरों की चमक दमक से दूर सुदूर जंगलो में निवासरत वनवासी/जनजातीय वर्ग को यह भान हो चला है कि कोरी कल्पनाओं के आधार पर रची गई इस उन्मादी क्रांति जो जबरन उनपर थोपी गई है का सबसे अधिक शिकार उनका अपना समुदाय ही हुआ है, ये इसके परिणामस्वरूप ही हुआ है कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रह गए, उसे यह भान है कि 21वीं सदी के इस नए भारत में वो भी बराबर का भागीदार है। उसकी युवा पीढ़ी यह जानने समझने लगी है कि पूर्ववर्ती सरकारों की गलतियां केवल उनकी नीतिगत अदूरदर्शिता का परिणाम थी, संवैधानिक व्यवस्था की नहीं, तेजी से हो रहे विकास एवं इंटरनेट के इस युग मे यह पीढ़ी यह जानने समझने लगी है कि इस नए भारत में उनके बीच की ही एक महिला देश के सर्वोच्च पद पर आसीन है, ये लोकतंत्र की जीत है, किसी अधिनायकवादी कम्युनिस्ट व्यव्यस्था की नहीं, जहां तक बात जल जंगल एवं जमीन की है तो वो आज भी उसी समुदाय की है जो अनादिकाल से उसका संरक्षक रहा है।
 
(नैरेटिव डेस्क)