ईसाइयों के विरुद्ध पूरे बस्तर में फैल रहा जनजाति समाज का आक्रोश

11 Jan 2023 21:36:47
Tribals protest against attack 
 
बस्तर में ईसाई मिशनरियों को लेकर जनजाति समाज में व्याप्त रोष और आक्रोश को लेकर तमाम तरह की खबरें सामने आ चुकी हैं।
 
इन खबरों में कभी मतांतरण की किसी घटना तो कभी किसी अन्य विवाद को जनजाति समाज के आक्रोश का कारण बताया जाता है, लेकिन हम गंभीरता से विचार करें तो समझ आता है कि जनजाति समाज के आक्रोश के पीछे केवल धर्मान्तरण ही नहीं है, बल्कि एक ऐसा नेटवर्क है जो योजनाबद्ध तरीके बस्तर के जनजातियों को लक्षित कर उनकी संस्कृति का 'शिकार' कर रहा है।
 
ईसाइयों के द्वारा बस्तर क्षेत्र में उन सभी गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है जो किसी काल में अंग्रेजी सत्ता के दौरान मिशनरियां करती थीं। जनजाति समाज मूल रूप से सरल एवं शांतिप्रिय समाज है, जो अपनी संस्कृति एवं समाज में ही पूर्णता की अनुभूति करता है।
 
जनजाति समाज की अपनी उपासना पद्धति है जो अरण्यक संस्कृति का हिस्सा है, जिस पर मध्यकाल एवं आधुनिक काल में विदेशी आक्रमणकारियों ने हमला करने का प्रयास किया, लेकिन बावजूद इसके वह कुछ हद तक अपने मूल स्वभाव में ही बना रहा।
 
लेकिन बीते कुछ दशकों से जिस तरह षड्यंत्रपूर्वक जनजातियों के जन-जीवन में हस्तक्षेप कर उनकी परंपराओं को तोड़ने का प्रयास किया गया है, इसने समाज के सभी वर्गों को ना सिर्फ नाराज किया है बल्कि आक्रोशित भी किया है।
 
इसके अलावा तमाम ऐसे कारण हैं जो समाज के भीतर विदेशी आयतित विचारों के आने से पनप रहें हैं, जिसके कारण अब समाज के लोग इस 'संक्रमण' से छुटकारा पाना चाहते हैं।
 
यही कारण है कि हमें नारायणपुर जैसी घटनाएं देखने को मिल रही है जहां आक्रोशित जनजातीय ग्रामीणों ने कुछ ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया है, जो कानूनी रूप से तो गलत हैं लेकिन यदि हम उसके पीछे के कारणों को देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि शांतिप्रिय तरीके से रहने वाले इस समाज को ऐसा करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी। चलिए बारीकी समझते हैं कि आखिर जनजाति समाज के भीतर ईसाइयों को लेकर इतना आक्रोश क्यों है।
 
मतांतरण की अनैतिक गतिविधियां
 
छत्तीसगढ़ में रोमन कैथोलिक चर्च से जुड़े लोगों की संख्या 2.25 लाख और मेनलाइन चर्च से जुड़े लोगों की संख्या लगभग 1.5 लाख है, जिनमें से अधिकांश जनजाति समाज से मतांतरित होकर ईसाई बने हैं। ऊपर जो संख्या बताई गई है वह आधिकारिक रूप से घोषित ईसाइयों की है जो आधिकारिक रूप से बने चर्चों में जाते हैं।
 
लेकिन राज्य में कई असंगठित पैराचर्च भी मौजूद हैं, जिनकी उपस्थिति बस्तर में भी काफी संख्या में है। ऐसे असंगठित पैरा चर्चों में जाने वाले लोगों की कुल संख्या 9 लाख है, जिसमें भी बस्तर की बड़ी जनसंख्या शामिल है। अब ऐसे असंगठित चर्चों में रविवार को होने वाली प्रार्थना सभाओं में गैर-ईसाई जनजातियों को शामिल किया जाता है, जिसके बाद विभिन्न तरीके से उनके मतांतरण की योजना बनाई जाती है।
 
इन असंगठित चर्चों के मायाजाल के माध्यम से ही जनजातियों की शुरुआती स्क्रीनिंग होती है, जिसके बाद धन, नौकरी, विवाह, स्वास्थ्य, समाज और अन्य प्रकार के प्रलोभन देकर उन्हें ईसाई बनने के लिए प्रेरित किया जाता है।
 
चूंकि कानूनी तौर पर इन असंगठित चर्चों में मतांतरण नहीं किया जा सकता, इसके कारण मतांतरण के लिए इच्छुक परिवार या व्यक्ति को मुख्य चर्च से जोड़ा जाता है और उनका धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाई बनाया जाता है।
 
बस्तर संभाग में मतांतरण का यह अनैतिक खेल धड़ल्ले से चल रहा है, जिसे ईसाई समाज पूरी योजना बनाकर अंजाम दे रहा है। बस्तर के विभिन्न जिलों में ईसाइयों के द्वारा छोटे-छोटे पॉकेट्स निर्मित किये जा रहे हैं, ताकि उन स्थानों में वे अपनी मर्जी की गतिविधियों को बेफिक्री से अंजाम दे सके।
 
ईसाइयों के इन गतिविधियों के बीच में जो दीवार बनकर खड़ा है, वह है क्षेत्र का सनातनी जनजाति समाज, जिसे अपने मूल धर्म को छोड़ कर जाना स्वीकार नहीं है।
 
ईसाइयों द्वारा जनजातियों की संस्कृति, परंपरा और रीतियों का विरोध
 
बस्तर में कई बार ऐसा देखा गया है कि जब जनजातियों ने आक्रोश में ईसाइयों के विरुद्ध किसी घटना को अंजाम दिया है, उसके पीछे ईसाइयों के द्वारा जनजाति संस्कृति के अपमान की बात आई है।
 
दरअसल बस्तर के जनजातियों की अपनी एक विशेष संस्कृति है, पूजा पद्धति है, परंपराएं हैं और समाज की अपनी रीतियाँ हैं। लेकिन ईसाई मिशनरियां इस क्षेत्र में मतांतरित समूह के साथ मिलकर जनजातियों की संस्कृति को निशाना बनाने का प्रयास कर रही है।
 
कभी जनजातियों के पूजन स्थल को लेकर टिप्पणी की जाती है, तो कभी उनके देवी-देवताओं का उपहास उड़ाया जाता है, इसके अलावा कुछ मौके ऐसे भी आए हैं जब जनजाति समाज ने अपनी ग्राम देवी की पूजा का आयोजन किया उस दौरान धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन चुके लोगों ने संस्कृति और परंपरा पर अभद्र टिप्पणियां की।
 
कुछ समय पहले कोंडागांव में ऐसी ही एक घटना सामने आई थी जिसके बाद जनजाति समाज ने आक्रोश में स्थानीय ईसाई समूह से क्षेत्र छोड़कर चले जाने का आह्वान किया था।
 
जनजातियों की सहस्त्राब्दियों पुरानी संस्कृति का ह्रास करते हुए ईसाई समूह चर्च जाने की संस्कृति को बस्तर का हिस्सा बनाने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं मां दंतेश्वरी और दूल्हा देव को पूजने वाले लोगों को 'यीशु ही एकमात्र देवता हैं' का पाठ पढ़ा रहे हैं, ऐसे में बस्तर में चल रहा संघर्ष किसी समाज या समुदाय का नहीं बल्कि उन दो विचारों का है जो सहिष्णु और असहिष्णु है।
 
चर्च का विदेशी षड्यंत्र
 
यह सर्वविदित है कि भारत में लगभग सभी चर्चों का नियंत्रण विदेशी शक्तियों के हाथ में है, इसके अलावा भारत में चर्च को विदेशों से बड़ी मात्रा में फंडिंग की जाती है। ऐसे में बस्तर भी इससे अछूता नहीं है।
 
बस्तर में चर्च और ईसाई समूह की तमाम गतिविधियां कथित तौर पर विदेशी इशारों और षड्यंत्रों का हिस्सा है, जो बस्तर जैसे समृद्ध क्षेत्र को अस्थिर करने का प्रयास कर रहे हैं।
 
चर्च को विदेशी अनुदान प्राप्त होते हैं, जिनके माध्यम से मिशनरियों के द्वारा स्थानीय जनजातियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दिए जाते हैं और धर्मान्तरण की गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है।
 
इसके अलावा यह भी देखा गया है कि जब-जब बस्तर में स्थानीय जनजातियों और धर्म परिवर्तित कर ईसाई बन चुके लोगों के बीच किसी संघर्ष या हिंसा की बात आती है, तो अपने विदेशी संपर्कों का फायदा उठाकर ईसाइयों के द्वारा शासन-प्रशासन समेत मीडिया पर ईसाइयों को पीड़ित दिखाने और जनजातियों को आरोपी दिखाने का प्रयास किया जाता है।
 
इन गतिविधियों के चलते स्थानीय जनजातियों, जो कि वास्तविक रूप से पीड़ित हैं, की आवाज मुख्यधारा तक नहीं आ पाती। यह एक मुख्य बिंदु है, जो जनजातियों के आक्रोश के पीछे की असली कहानी बयां करता है।
मिशनरियों का नक्सल कनेक्शन
 
ईसाई मिशनरियों पर कई बार ऐसे आरोप लग चुके हैं कि उनके संबंध माओवादियों से हैं, और नक्सलियों के शह पर ही ईसाई मिशनरियां धड़ल्ले से तमाम अनैतिक गतिविधियों को अंजाम दे रही हैं।
 
बीते 5 दशकों में एक दो मौकों को छोड़ दें तो ईसाई मिशनरियों ने कभी किसी ईसाई पादरी पर हमला नहीं किया, कभी किसी ईसाई समूह पर हमला नहीं किया और तो और कभी किसी ईसाई केंद्र पर हमला नहीं किया।
 
उल्टा यह देखा गया है कि जिस ग्रामीण क्षेत्र में ईसाई संख्या थोड़ी अधिक है, वहां नक्सलियों ने किसी भी प्रकार की हिंसा की घटना को अंजाम नहीं दिया है। वहीं दूसरी ओर, देवी उपासना में बैठे जनजातियों की हत्या से लेकर उन तमाम क्षेत्रों में हिंसा की घटना को अंजाम दिया है जो जनजातीय आस्था से जुड़े केंद्र हैं।
 
इसके अलावा जनजाति हितों का दिखावा करने वाले माओवादियों ने कभी भी जनजाति समाज के विरुद्ध ईसाइयों की अनैतिक गतिविधियों को लेकर किसी तरह की बात नहीं की, जिसने इस शंका को और बढ़ाया कि इन दोनों समूहों के बीच किसी प्रकार का कनेक्शन जरूर है।
 
कुछ मीडिया रिपोर्ट, किताबों और किस्सों ने भी इस बात की गवाही दी है कि ईसाई मिशनरियां नक्सलियों-शहरी नक्सलियों को फंडिंग भी करती हैं। जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव जनजाति समाज स्पष्ट देख पाता है, जो शहर में बैठकर नहीं देखा जा सकता। यही कारण है कि जनजाति समाज के भीतर ईसाइयों को लेकर व्यापक रोष दिखाई देता है।
 
जनजाति बेटियों की अस्मिता
 
जैसा कि यह स्पष्ट ही है कि ईसाई मिशनरी संस्थाओं को विदेश से विभिन्न प्रकार की सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, जिसके चलते ईसाई समूह से जुड़े लोग एक तरफ जहां अपनी ही संस्कृति, परंपरा और जड़ों से तो कट जाते हैं, लेकिन अपने क्षेत्र में मतांतरण का प्रसार कर चर्च से आर्थिक सहायता प्राप्त करते हैं।
 
इन समूहों के निशाने पर वो किशोरियां और युवतियां भी होती हैं, जो अविवाहित हैं। ऐसे युवतियों को ईसाई समूह के द्वारा प्रेमजाल में फंसाकर उनके साथ विवाह किया जाता है, और फिर धीरे-धीरे युवती और उसके गैर-ईसाई परिवार को प्रलोभन देकर उनका धर्म परिवर्तित कर दिया जाता है।
 
ईसाई समूहों के द्वारा जनजाति बेटियों को लक्षित कर उनसे विवाह करने की प्रक्रिया से बस्तर के स्थानीय जनजाति भली-भांति परिचित हैं, जो एक बड़ा कारण है कि अब जनजाति समाज खुलकर ईसाई शक्तियों के विरोध में सड़क पर उतरने को तैयार है।
ईसाइयों की राजनीतिक गोलबंदी और कांग्रेस का ईसाई तुष्टिकरण
 
हाल ही में जब नारायणपुर में जनजाति समाज और मंतान्तरित ईसाइयों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हुई तब, नारायणपुर के कांग्रेसी विधायक चंदन कश्यप क्षेत्र में पहुँचे थे। इस दौरान कांग्रेसी विधायक ने स्थानीय पीड़ित जनजातियों को अनदेखा कर मसीह समाज के कार्यक्रम में शामिल होना जरूरी समझा था, जिसमें शामिल होने के बाद उन्होंने अपनी कांग्रेस पार्टी समेत स्वयं को 'मसीह समाज' के साथ होने की बात कही थी।
 
इसके अलावा उन्होंने ईसाइयों के ही एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए कहा था कि उन पर अत्याचार किए जा रहे हैं, साथ ही वो अत्याचार करने वालों के विरुद्ध कार्यवाई करने की बात भी कह रहे थे। इसके पूर्व छत्तीसगढ़ के।मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी मसीह समाज के लोगों से मुलाकात की थी, जिसमें ईसाइयों पर कथित अत्याचार की बात सामने आई थी। लेकिन सत्ताधारी दल के तमाम नेता और बस्तर के सभी 12 विधानसभा सीट में काबिज कांग्रेस पार्टी के विधायकों ने कभी भी ईसाइयों के द्वारा पैदा हो रही जनजातियों की समस्याओं को नहीं सुना, ना ही कभी ईसाइयों पर कोई ठोस कार्यवाई करवाई।
 
वहीं ईसाई समूह द्वारा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संपर्कों का प्रयोग करते हुए राजनीतिक दबाव डालने का प्रयास बार-बार किया गया, जिसके बाद जनजाति समाज को यह समझ आया कि राजनीतिक रूप से नेतृत्व कर रही वर्तमान सरकार उनके धार्मिक हितों की रक्षा के लिए कठोर और उचित कदम नहीं उठा पा रही है। इसके बाद ही उन्होंने अपने स्तर पर विरोध प्रदर्शनों को अंजाम दिया जिसमें छुटमुट स्तर पर हिंसा भी देखी गई।
 
बाह्य तत्वों द्वारा जनजातियों को विलेन और ईसाइयों को पीड़ित बनाना
 
नारायणपुर की वर्तमान घटना के पीछे एक बड़ा कारक यह भी है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता होने का दंभ भरने वाले तमाम तथाकथित बिद्धिजीवियों ने इस पूरी घटना को निष्पक्षता से देखने के बजाय अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित चश्में से देखा।
दरअसल इन पूरी घटना पर एक तथाकथित फ़ैक्ट फाइंडिंग टीम ने रिपोर्ट जारी की, जिसमें स्थानीय जनजातियों को ही विलेन साबित किया गया था। इस रिपोर्ट में ईसाई समूह को पीड़ित और लाचार बताया गया।
 
दिलचस्प बात है कि इस रिपोर्ट के सामने आने एक एक सप्ताह के भीतर ही ईसाई समूह ने कथित तौर पर चर्च इशारे पर 2 बार जनजातियों पर हमला किया जिसमें दर्जन भर लोग घायल हुए, और कुछ को तो गंभीर चोटें भी आईं।
 
हालांकि यह पहला मौका नहीं था जब बस्तर में दंगे की हालत और हिंसा की घटना के लिए जनजातियों को आरोपी बनाया जा रहा था, इससे पूर्व मेधा पाटकर, ज्यां द्रेज और बेला भाटिया जैसे लोगों ने भी ईसाइयों का पक्ष लेकर जनजातियों के विरोध में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माहौल बनाने का प्रयास किया है, जिसके कारण स्थानीय जनजातीय समाज का इन तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से भी विश्वास उठ चुका है।
 
शासन-प्रशासन की नाकामी
 
बस्तर के लगभग सभी जिलों से जनजाति समाज के लोगों ने ईसाइयों के द्वारा की जा रही अवैध गतिविधियों को लेकर ज्ञापन सौंपे हैं और शिकायतें दर्ज कराई हैं। कई मौकों पर पुलिस थानों में एफआईआर भी दर्ज कराई गई है, लेकिन इन सब के बावजूद भी शासन-प्रशासन ईसाइयों की अवैध गतिविधियों को रोकने में असफल रहा है।
 
अपराध करने के बाद भी ईसाइयों का बढ़ा हुआ मनोबल प्रदर्शित करने के लिए यह खबर ही पर्याप्त है कि जब ईसाई समूह ने जनजाति नागरिकों पर हिंसक हमले किए, तब उन्हें रोकने पहुँची पुलिस की टीम को भी ईसाइयों ने नहीं बख्शा जिसमें थाना प्रभारी भी घायल हो गए।
 
अब ऐसे परिस्थितियों में जनजाति समाज के भीतर यह प्रश्न बार-बार गूंज रहा है कि जो शासन-प्रशासन उन्हें कार्यवाई का आश्वासन देता है वो तो कोई कार्यवाई नहीं कर पा रहा, वहीं जो पुलिस प्रशासन उनकी सुरक्षा की बात कर रहा वही इन ईसाई आतंकियों के सामने कमजोर पड़ चुका है।
 
ईसाइयों के द्वारा की गई हिंसा
 
जिस तरह स्वाधीनता के पहले संग्राम में 'गाय की चर्बी से बना हुआ कारतूस' भड़कते बारूद में एक चिंगारी का काम कर गया, ठीक उसी प्रकार जनजाति समाज के भीतर ईसाई मिशनरियों को लेकर आक्रोश तो पहले से ही था, लेकिन नये वर्ष के पहले दिन ईसाइयों के द्वारा की गई हिंसा ने जनजातियों के भीतर मौजूद सब्र के बांध को तोड़ दिया।
 
ईसाइयों ने रणनीति बनाकर 31 दिसंबर की रात और 1 जनवरी की सुबह जनजाति नागरिकों पर जानलेवा हमले किए जिसमें कई जनजाति नागरिक घायल हुए। इस घटना के बाद भी ईसाई समूह में दोषियों पर कार्यवाई ना होते और शासन-प्रशासन के ढीले रवैये देखते हुए जनजातियों ने चर्च से जुड़े कुछ परिसरों में छिटपुट वारदातों को अंजाम दिया, वहीं बीच बचाव करने पहुँची पुलिस को भी इस छीना झपटी के दौरान कुछ चोटें आईं, जिसमें जिला एसपी घायल हुए।
 
दरअसल ईसाइयों की गतिविधियों से बस्तर का जनजाति समाज अनभिज्ञ नहीं है, उसे पता है कि कैसे एक मकड़जाल की तरह ईसाई मिशनरियां पूरे बस्तर को अपने कब्जे में लाने का प्रयास कर रहीं हैं, यही कारण है कि शांति, धीरता और सरलता का मूल स्वभाव होने के बाद भी जनजातियों ने भीषण आक्रोश है। लेकिन जब शहरी स्टूडियों से लेकर सचिवालयों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर इनके आक्रोश पर रिपोर्ट लिखी या बनाई जाती है, तब इन तमाम मुद्दों को अनदेखा कर दिया जाता है।
 
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