तो स्वतंत्रता क्या केवल गांधी एवं नेहरू की देन ?

वर्षो तक कोल्हू के बैल में पीसने वाला व्यक्ति तो इन्हें अंग्रेजो को पत्र लिख कर क्षमा याचना करने वाला देश द्रोही दिखाई देता है

The Narrative World    14-Jan-2023   
Total Views |
Nehru and Subhash Babu 
 
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने पांच वर्षों के उपरांत लाल किले पर दुबारा शुरू किए जाने वाले लाइट एंड साउंड शो के दौरान स्वतंत्रता संग्राम में देश के क्रांतिकारियों के अतुलनीय योगदान को नमन करते हुए कहा कि स्वतंत्रता के उपरांत इतिहास की किताबों में केवल एक विशेष तरह के नैरेटिव को थोपने का प्रयास किया गया है जिसमें दुर्भाग्य से देश के महान क्रांतिकारियों को उनका उचित स्थान नहीं दिया गया है।
 
अब गृहमंत्री द्वारा दिये गए इस बयान एवं देश के स्वतंत्रता संग्राम को दिखाने वाले इस लाइट एंड शो में किये गए परिवर्तन को लेकर कांग्रेस समेत देश का कथित बुद्धिजीवी वर्ग (कम्युनिस्ट झुकाव वाला) ने सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस सरकार पर इतिहास से छेड़छाड़ करने एवं तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने का आरोप लगा रही है, जबकि ऐसी ही प्रतिक्रियाएं उन कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों से भी मिल रही है हैं, जिन्होंने वर्षो इतिहास के माध्यम से चलाए गए इस प्रपंच में अग्रणी भूमिका निभाई है।
 
दरअसल वर्तमान में कांग्रेस एवं अन्य कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की मूल समस्या दशकों से फैलाये गए अपने भ्रमजाल की कलई खुलने एवं उसके पीछे के वास्तविक उद्देश्यों के उजागर होने के भय से है जहां ना केवल स्वतंत्रता को बस नेहरू, गांधी अथवा कांग्रेस के अहिंसक प्रयासों से अर्जित की गई बताकर अगणित क्रांतिकारियों के बलिदानों को महत्व नहीं दिया गया अपितु एक वर्ग विशेष को वोट बैंक की नीति के तहत पुचकारने एवं सामाजिक रूप से बहुसंख्यक समुदाय के भीतर अपने ही अस्तित्व के प्रति हेय भाव उत्पन्न करने की दृष्टि से आक्रांताओं की बर्बरता पर पर्दा डालकर मुक्तकंठ से उनका महिमामंडन किया जाता रहा।
 
परिणामस्वरूप दशकों तक देश की पीढियां भ्रम के उस आवरण को ही अकाट्य सत्य मानकर भारत की अस्मिता, उसकी संस्कृति को बर्बरता से कुचलकर रौंदने वाले बर्बर आक्रांताओं को अपना उद्धार करने वाला मानती रही, इसे ऐसे समझे कि दर्जनों बर्बर नरसंहारों को अंजाम देने वाले अकबर को पाठ्यपुस्तकों में महान बताया गया, लाखों लाख हिंदुओ के नृशंस नरसंहारों एवं सैकड़ो मंदिरों को तोड़ने वाले औरंगजेब के काल को देश की आर्थिक उन्नति से जोड़ कर दिखाया गया, यहां तक कि प्रमाणित रूप से कम से कम 5000 वर्ष प्राचीन इतिहास वाले राष्ट्र को मुग़ल आक्रांताओं के आने से पहले छोटी छोटी रियासतों का समूह करार दिया गया।
 
हालांकि यह परिपाटी केवल यहीं तक सीमित नहीं, इस क्रम में जहां एक ओर आक्रांताओं एवं लुटेरों को भारत का भाग्य विधाता बनाने का कुत्सित प्रयास किया जाता रहा तो दूसरी ओर यह भी सुनिश्चित किया गया कि स्व अर्थात अपने अस्तित्व अपनी अस्मिता के रक्षा में सर्वस्व झोंकने वाले हमारे नायकों को इतिहास हेय दृष्टि से देखता आये।
 
फलस्वरूप मध्यकाल में जहां राणा सांगा, छत्रपति शिवाजी महाराज, शम्भा जी, राणा प्रताप, पेशवा बाजीराव, लाचित बुरफोकन गुरु गोविंद सिंह जैसे महान योद्धाओं जिन्होंने मुग़लो को रणभूमि में धूल चटा कर अपने स्वाभिमान एवं धर्म की रक्षा की उन्हें इतिहास के किताबों में केवल कुछेक पंक्तियों में समेट दिया गया, जबकि इसके विपरीत हमारी मातृ शक्ति एवं आराध्यों के देवालयों के साथ बर्बरता करने वालों को राष्ट्र के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले स्तंभों के रूप में स्थापित किया गया।
 
कमोबेश यही स्थिति अंग्रेजो के विरुद्ध लड़े गए आधुनिक काल के स्वतंत्रता संग्राम को लेकर भी रही जहां मातृ भू के लिए सर्वस्व झोंकने वाले सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, अस्सफ़ाक़ुल्ला खां, खुदीराम बोस, करतार सिंह, उधम सिंह जैसे अनेकों अनेक नायकों के योगदान को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों से ना केवल गौण कर दिया गया अपितु समय समय पर दूसरे प्रपंचों से इनके चरित्र हनन का भी यथासंभव प्रयास किया गया।
 
यह अस्वाभाविक नहीं कि देश के लिए 23 वर्ष की आयु में फांसी के फंदे को चूमने वाले भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को दशकों तक क्रांतिकारियों के स्थान पर आतंकवादियों की श्रेणी में चिन्हित किया गया, यही हाल अंडमान की सेलुलर जेल में कोल्हू के बैल की तरह पीस कर स्वतंत्रता की अलख जगाने वाले सावरकर जैसे महान विभूतियों के साथ किया गया।
 
इसे ऐसे समझे कि काल कोठरी में कैद, वर्षो तक कोल्हू के बैल में पीसने वाला व्यक्ति तो इन्हें अंग्रेजो को पत्र लिख कर क्षमा याचना करने वाला देश द्रोही दिखाई देता है किंतु जेल के नाम पर आलीशान कोठियों में नजरबंद निजी सहायक रखने वाला व्यक्ति जो शत्रु राष्ट्र के प्रतिनिधि के साथ प्रगाढ़ पारिवारिक संबंध रखता हो वो इन्हें राष्ट्र नायक दिखाई देता है
 
इस क्रम में बेशर्मी ऐसी कि यह बताने में वो सदैव असमर्थ रहते हैं कि ऐसा क्यों है कि स्वतंत्रता के समय अपनी लोकप्रियता के चरम पर रहने के बावजूद बल्लभ भाई पटेल जिन्हें 15 में से 13 कमेटियों ने प्रधानमंत्री के रूप में चुना था उसे दरकिनार कर नेहरू देश के प्रधानमंत्री बन जाते हैं, ऐसा क्यों कि देश की स्वतंत्रता में सबसे निर्णायक भूमिका निभाने वाले सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की स्वतंत्रता के उपरांत भी निगरानी कर उनसे संबंधित सूचनाएं प्रधानमंत्री नेहरू स्वयं इंग्लैंड भेजते आये।
 
जहां तक स्वतंत्रता में अहिंसक आंदोलन की भूमिका है तो इसे स्वतंत्रता के उपरांत भारत आये ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा दिये गए साक्षात्कार से बेहतर समझा जा सकता है जिसमें अहिंसा से मिली स्वतंत्रता के प्रश्न पर अट्टहास करते हुए वे इसे भ्रामक एवं गैर महत्व वाला बताते हैं और सीधे तौर पर इसे सुभाष चंद्र बोस एवं आईएनए से जोड़ कर देखते हैं। जहां तक नेहरू द्वारा काला लिबास ओढ़कर आईएनए के सिपाहियों के केस लड़े जाने का प्रश्न है तो इसे राजनीति में सक्रिय कोई नौसिखिया भी समझ सकता है कि यह विशुद्ध रूप से केवल जन भावनाओं के उबाल में अपनी छवि गढ़ने की कवायद का हिस्सा भर था।
 
कुल मिलाकर इसमें संशय नहीं कि काले अंग्रेजो का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस एवं भारत को धार्मिक आधार पर वर्गों में बांटकर कथित समाजवादी तानाशाही को समर्पित कम्युनिस्टों की यह परिपाटी पूर्ण रूप से इनके अपने अपने निजी स्वार्थों को समर्पित रही है जहां एक ने गांधी-नेहरू का प्रपंच गढ़ कर दशकों देश की सत्ता पर अपना प्रभुत्व स्थापित रखा तो वहीं दूसरे का प्रयास जंगलो में अपनी सैन्य इकाई के माध्यम से हिंसा (नक्सलवाद/माओवाद) फैलाकर एवं शहरी कैडरों की सहायता से देश के वैचारिक विमर्श पर कब्जा स्थापित कर बैठे अपने गुर्गों के साथ माओ के सिद्धांतों को समर्पित तानाशाही व्यवस्था स्थापित करने की रही है
 
और इन सब मे यदि कोई सबसे बड़ी बाधा है तो वो जनमानस का अपने वास्तविक राष्ट्र नायकों के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण की भावना है जिसे दुष्प्रचारित इतिहास के साथ खत्म करने का अथक प्रयास किया जाता रहा है। मोटे तौर पर यह बहुसंख्यक समाज की जनभावनाओं को कुचलकर उसका इतिहास बदलने की कवायद रही है इसे ऐसे ही देखे जाने की आवश्यकता है।