यहां एक ही घर में नानक और बाबा श्रीचंद अवतरित हुए। सावरकर और गांधी समकालीन होकर भी एक- दूसरे से नहीं उलझे।
वर्ण और जाति व्यवस्था को हिंदू समाज के एक एकजुट होने तक यथारूप में रखने के हामी गुरूजी गोलवलकर और जाति व्यवस्था को समूल नष्ट करने की मंशा रखने वाले बाबा साहेब आंबेडकर ने भी कभी एक दूसरे की आलोचना नहीं की।
मैं जब दयानंद के आर्य समाज मंदिर में हवन करता हूं तो मैं आर्य समाजी रहता हूं, जब किसी वैष्णव जन की संगति में जाता हूं तो वहां वैष्णव हो जाता हूं, जब शिव के मंदिर जाता हूं तो शैव, जब शक्ति की उपासना करता हूं तो शाक्त, जब गुम्फाओं में जाता हूं तो बौद्ध हो जाता हूं।
जब असम के नामघरों में जाता हूं तो कृष्ण के निर्गुण निराकार रूप का आराधक बन जाता हूं, जब कबीर पंथ के मत में जाता हूं तो कबीर पंथी हो जाता हूं, रैदास के मंदिर जाकर रैदासी हो जाता हूं, संघ शाखाओं में जाकर स्वयंसेवक हो जाता हूं तो रामकृष्ण के मठ में जाकर वैसा हिंदू बन जाता हूं जो सेवक है और शाक्त है।
गांधी आश्रम में मैं गांधीवादी हूं और पावापुरी में जैन। बिरसा मुंडा का स्मरण करते हुए मैं वनवासी हूं और गुरुद्वारे में मत्था टेकते समय गुरुओं का सिख।
ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें जो विचार विरासत में मिले हैं वो इस रूप में है जहां हरेक एक- दूसरे का सम्मान करता है और जो मध्यस्त हो वो भी सारे विचारों को समाहित करते हुए न्याय देता है।
हिंदू होना वास्तव में यही समादार है, यही समन्वय है, अपनी भुजाएं फैलाकर सबको इस वर्तुल में समेट लेना है। जो लोग इस सार को नहीं समझते वो मूर्ख हैं। वर्तमान के जैन और वनवासी विवाद के समाधान की राह भी यही है।