हिंदुओ! यह समय है सभी को खुद में समाहित करने का, 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' को सार्थक करने का

कभी महावीर तो कभी गौतम तो कभी नानक। यह हमारे ही थे, आज भी हमारे ही हैं, पर उनके समुदायों से भी, और हममें से भी अनेकों ऐसे हैं जो हमारे एकात्म को नकार देते हैं। हम अपनों को ही स्वयं से दूर करने में इतने प्रवीण हो चुके हैं कि सबको अपने में समाहित करने वाली बात को सोचना भी हास्यास्पद लगता है।

The Narrative World    29-Jan-2023   
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मेरे परिचित एक राजा जी हैं। मतलब सच के सम्राट वगैरह नहीं, पर हाँ, उनके कई पीढ़ी पहले के एक पूर्वज किसी बड़े महाराजा के यहां दरबारी थे।


उन्होंने किसी बात से खुश होकर बीस-तीस गाँव उन्हें दे दिए। उन्होंने उन गाँवों की सम्पत्ति से और सम्पत्ति बनाई। उनके बच्चे उनसे भी आगे निकले। सम्पत्ति बढ़ते-बढ़ते बहुत ही ज्यादा हो गई।


पीढियां बीती, पर उस वंश की जिजीविषा, मेहनत करने का जिगरा धीरे-धीरे कम होता गया। वंशजों को लगा कि पहले से ही इतना है, तो बेमतलब अपना हाड़ तोड़ने की क्या जरूरत।


वे बैठे-बैठे रोटी खाने लगे और अपनी वर्तमान तथा भूतकाल की सम्पत्ति पर गर्व करते रहे।


मेरे मित्र राजा जी उसी वंश के चश्मोचिराग हैं। पहले का सहस्रांश भी नहीं बचा है, पर कई कोस में सबसे अमीर फिलहाल वही हैं।


खटिया पर बैठकर हुक्का पीते हैं और नवाबी झाड़ते हैं। उन्हें ध्यान ही नहीं कि खजाना खत्म हो रहा है और एक समय आएगा कि उनका नामलेवा कोई न बचेगा।


हिन्दू समूदाय भी लगभग उन राजाजी जैसा ही है। जगतपिता ने भारतभूमि जैसी जगह उन्हें दी जो संसार भर में सबसे अधिक अनूठी और उपजाऊ है।


सारे संसार में जो कुछ भी है, वह इस एक अकेले देश में मिल जाएगा। पहाड़, समुद्र, रेत, मैदान, जंगल, हर रंग के मौसम, हर रंग के लोग।


इन सबका भरपूर उपयोग किया पूर्वजों ने। जो मिला था, उसे बढाते-बढ़ाते इतना बढाया कि वह संसार में सबसे बड़ा हो गया।


फिर क्या हुआ? वही, जो उन राजाजी के साथ हुआ था। जो मिला था, और जिसे समृद्ध किया गया था, उस सम्पत्ति को पर्याप्त मान खटिया पर बैठ हुक्का तोड़ने लगे। दिमाग को ठस्स कर लिया। रिसता गया सब, धीरे-धीरे सब छूटता गया, छूटता जा रहा है, पर किसे फिक्र है?


कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, पर आँख मूँद कर भरोसा किये बैठे हैं और क्या हो रहा है, क्या खो रहा है, क्या छीजता जा रहा है, पता ही नहीं।


बस दूसरों को, दूसरे पक्ष को गाली देने भर को रह गए हैं हम। सोचिए तो सही कि हम क्यों कभी महान थे! हम स्वयं को आर्य कहते हैं।


आर्यों का ध्येय वाक्य है कृण्वन्तो विश्वमार्यम" (ऋग्वेद 9.63.5) अर्थात सारे संसार को आर्य बना दो। क्या मतलब है इसका? यही न कि सारे संसार को अपनी तरह बनाओ।


हम जानते हैं, या कम से कम मानते हैं कि कभी कई मानव जातियां थी जिनमें राक्षस, नाग, असुर, यक्ष इत्यादि थे, जिन्हें धीरे-धीरे स्वयं में समाहित कर लिया गया।


हिंदू ग्रन्थ और पुराण भरे पड़े हैं इन मानवों की विभिन्न जातियों से। अगस्त्य, गौतम, पराशर, व्यास जैसे ऋषियों का ध्येय ही था कि जो भी आर्य नहीं है, उसे आर्य बनाओ।


दाशराज के युद्ध जैसी एकाध घटनाओं को छोड़ दें तो यह सेवा के बल पर, अपने चरित्र के बल पर, विश्व बंधुत्व और सबको समान मानने की अवधारणा के बल पर ही सम्भव हो पाया था।


अपनी बुराइयों को झटक कर बाहर फेंकने और दूसरों की अच्छाइयों को झट से स्वीकार करते जाने से हमारा दायरा बढ़ता गया।


फिर हमने स्वयं को परिपूर्ण मान लिया। शताब्दियों तक स्वयं को परिमार्जित करते रहने के अपने अभ्यास को भुला बैठे। यह सत्य है कि वर्तमान की अच्छाई समय के साथ कभी बुराई भी बन सकती है, अतः कुछ बुराइयां देखकर ही हमारे भीतर से ही नए अंकुर फूटे।


“कभी महावीर तो कभी गौतम तो कभी नानक। यह हमारे ही थे, आज भी हमारे ही हैं, पर उनके समुदायों से भी, और हममें से भी अनेकों ऐसे हैं जो हमारे एकात्म को नकार देते हैं। हम अपनों को ही स्वयं से दूर करने में इतने प्रवीण हो चुके हैं कि सबको अपने में समाहित करने वाली बात को सोचना भी हास्यास्पद लगता है।”

 


इस्लाम और ईसाइयत भी हिंदुओं की तरह ही अपने विचारों का एक बंडल है। उनकी अपनी आइडियोलॉजी है और वे भी स्वयं का विस्तार करना चाहते हैं। यह न्याय की बात है, सबको अपना समुदाय विकसित करने का अधिकार है।


कोई भी मनुष्य यह चाहेगा कि उसके आसपास के लोग उसके जीवनमूल्यों को समझें, उसके जीवनमूल्यों को आत्मसात करें। वह चाहेगा कि जैसा जीवन वह जीता है, जैसी मान्यताएं उसकी हैं, संसार की मान्यता भी उसके जैसी हो जाये। वे लगे हुए हैं अपना विस्तार करने में, और क्यों न करें। करना ही चाहिए।


पर हम क्या करते हैं। कृण्वन्तो विश्वमार्यम तो भूल ही जाइये, हम तो जो हमसे ही छिटक कर दूर चले गए, उन्हें आजतक वापस लाने के लिए कोई तरीका तक नहीं सोच पाए हैं।


मांगलिक बच्चों की शादियां केले के तने से करके उसके दोष को दूर कर देने की शक्ति रखने वाला धर्म, मुसलमान या ईसाई बन चुके हिंदुओं को वापस हिन्दू बनाने की सरल विधि नहीं खोज सका है। छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें, तो उसे इच्छा ही नहीं कि वह स्वयं का विस्तार करे। या जो करते भी हैं, उनकी टाँग खींचने में उसे अलग ही आनन्द आता है।


आज दुनिया में कितने ही बौद्ध देश हैं। बुद्ध की जननी भारत है। बुद्ध के मां-बाप हिन्दू थे। बुद्ध की शिक्षाएं भी हिंदुओं की शिक्षाओं जैसी हैं। पूरे तिपिटक में मुझे तो कहीं भी अ-हिन्दू जैसी चीज नहीं दिखी। तो क्यों नहीं सारे बौद्धों को जोरशोर से हिन्दू कहकर, जो न मानते हों उन्हें भी सप्रमाण हिन्दू सिद्ध कर स्वयं को उनमें और उनको स्वयं में शामिल कर लेते।


अजब है कि सुन्नी मुसलमान और शिया मुसलमान भले ही एक-दूसरे को भिन्न मानते हों, पर जब इस्लाम की बात होगी तो वे दोनों ही स्वयं को इस्लामी मानते हैं, पर 'वैदिक हिन्दू' 'बौद्ध हिन्दू' को हिन्दू मानने को ही तैयार नहीं।


यह खुद के अंग को काटकर छिटकाने की आदत बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे 'सिख हिन्दू' के साथ भी वही बरताव दिख रहा है। यह आगे 'मांसाहारी हिन्दू', 'अनीश्वरवादी हिन्दू', 'जैन हिन्दू', 'मन्दिर न जाने वाला हिन्दू', 'साड़ी न पहनने वाली हिन्दू' सबके साथ दिखेगा।


तलवारों का जमाना गया, जितना जिसे करना था कर लिया। अब सब अलग तरीके ईजाद कर रहे हैं। यह करने से आपको किसने रोका है? ईसाइयों के धर्मांतरण से दिक्कत है तो क्यों नहीं आप भी वही तरीका अपनाते, जबकि आप देख रहे हैं कि यह तरीका सफल भी है!


क्रिसमस पर गाली देने भर से, सैंटा का मजाक उड़ाने भर से बात बन जाएगी, यह सोचना भी बेवकूफी है। पांच साल का बच्चा जब जिद करेगा कि क्रिसमस को गिफ्ट चाहिए, तो या तो आप मुकर जाएंगे कि यह हिंदुओं के खिलाफ बात है, या आप बच्चे का मन रखने के लिए उसे गिफ्ट दे देंगे।


मुकर गए, अर्थात आपने उसी आइडियोलॉजी का अनुसरण किया कि यह हमारे धर्म में हराम है। जैसे ही यह बात आप अपने बच्चे के मन में रोपेंगे, वह उसी पथ पर चलने लगेगा जिससे आपको और किसी भी सभ्य समाज को नफरत होती है।


बेहतर है कि उसे बताइए कि जीजस ने अपनी शिक्षा इसी भारतभूमि के महान ऋषियों से ली, इसी हिन्दू सभ्यता से निकले एक ऋषि गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित था वह। इसी शिक्षा को उसने अपनी भूमि पर फैलाया और अंत में वह इसी भारत में आकर कब्र में सो गया।


उपरोक्त बात मजाक नहीं है। तमाम शोध यही बात कहते हैं। पर अफसोस कि आप गौतम बुद्ध को तो अपना नहीं मान पा रहे, जीजस को कैसे स्वीकारेंगे।


खुद को फैलाइए, धीरे-धीरे सबको स्वयं में समाहित कर लीजिए। स्वयं को संकुचित करते जाएंगे तो एक समय बाद राजाजी के वंशजों की तरह आपका भी कोई नामलेवा नहीं बचेगा।