श्री राम कथा को सर्वप्रथम संस्कृत काव्य में लिपिबद्ध करने वाले महा ऋषि वाल्मीकि, एक किरात (पर्वतों में रहने वाले नागवंशी) थे, जिनका मुख्य जीविकोपार्जन आखेट करना था। वाल्मीकि शब्द की उत्पत्ति, वाल्मिका से होती है, जिसका अर्थ “ चींटियों की मिट्टी की मांद“/anthill है, जो की आंध्र प्रदेश के जनजातीय समाज का एक टोटम (गोत्र) है, वाल्मीकि जी के अन्य नाम ऋक्ष, प्राचेत्सा भी हैं।
पुराणों के अनुसार, अधिकांश जनजातियाँ विंध्य पर्वत के दक्षिण में सघन वनों में निवासरत थी, जिनके सभी के भौगोलिक आधिपत्य थे। श्री वाल्मीकि कृत रामायण में जिस भौगोलिक क्षेत्र का वर्णन होता है, वो गंगा के दक्षिण का विंध्य क्षेत्र है। वाल्मीकि जिस तमसा नदी के किनारे निवास किया करते थे, वह भी विंध्य पर्वत से निकलती थी।
विंध्य्पर्वत शृंखला को रामायण क़ालीन संदर्भ से देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता हैं, पूर्वी व पश्चिमी घाटों की पर्वत शृंखलाओं को भी विंध्याचल ही कहा है, तभी विंध्याचल के दक्षिणी छोर पर सागर का वर्णन किया गया।
वाल्मीकि कृत रामायण में, नारद ऋषि प्रथम श्लोक में ही कहते हैं की, प्रभु राम की कथा वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी जनश्रुति के रूप में कही जाती रही है, कई इतिहासकार प्रथम लिखित रामायण को 800 वर्ष ईसापूर्व का मानते हैं। तब तक वाल्मीकि रामायण, मौखिक रूप से प्रचारित होती रही होगी तो भी इसे हज़ारों वर्ष बीत चुके होंगे।
इतने वर्षों बाद भी प्रत्येक जनजातीय व दक्षिण भारत के कण कण में प्रभु राम कथा इस तरह जीवित थी जैसे कुछ वर्षों पुरानी बात हो। यह तब तक सम्भव नहीं जब तक उनकी श्री राम से आत्मीय, अनुभूतिक सांस्कृतिक स्मृतियाँ ना जुड़ी हों। जनजातीय लोक गीतों में, श्री राम के प्रति जो वत्सल भाव है, उसकी अनुभूति मतंग आश्रम में निवासरत माता शबरी (शबर / सान्वरा जनजाति) प्रसंग से मिलती है।
रामायण जनश्रुतियों में कई जनजातियों का उल्लेख है, जो अपने टोटम (गोत्र) से जाने जाते रहे हैं, महर्षि वशिस्ठ की कामधेनु गाय के लिए राजा विश्वमित्र को हराने वाले जनजातीय ही थे, जिसका संस्कृत ग्रंथों में आरण्य में निवासरत जनजातियों को किरात, निषाद, वानर व अन्य नाम से लिखा गया, महाभारत काल में इनके संदर्भ आज के नामों से मेल खाते हैं, इनकी भौगोलिक स्तिथि एकदम वो हि है जो आज भी वहाँ निवासरत हैं।
प्रथम लिखित राम कथा वाल्मीकि कृत है, जो “क़र्मप्रधान“ रूप में लिखी गई है, इसलिए अधिक मौलिक है, वास्तविकता के नज़दीक भी है, इसमें उल्लेखित जनजातीय समुदायों के लोग जैसे जटायु, जामवन्त, वानर व अन्य जो जनजातीय टोटम हैं।
जिस प्रकार “कश्यप“ कछुआ भी एक जनजातीय गोत्र है, मगर जैसे “कश्यप“ को कछुए रूप में नहीं, मानव रूप में स्वीकार किया, अन्य टोटम को भी उनके मानव रूप में स्वीकार करें, तो नए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी रामकथा एक एतिहासिक दस्तावेज सिद्ध होती है।
कैसे श्री राम ने जनजातियों की सेनाओं को एकत्रित किया, व कई गुना शक्तिशाली रावण की सेना को परास्त किया, पूरी रामकथा, श्री राम व जनजातियों के चौदह वर्षों के वनवास का जीवंत साक्ष्य बन जाता है।
यहाँ तक कि विंध्याचल अर्थात् आज के मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के जनजाति, माता कौशल्या को अपनी ही पुत्री मानते हैं, गोंडी जन्म, विवाह लोकगीतों में उनके सांवले रंग का होने के लिए उनका जनजातियों का भांजा मानना उनके जनजातियों से सहोदर सम्बन्धों को दर्शाता है। कई लोक गीत तो ये भी कहते हैं, वनवास उनका ननिहाल आगमन था, व रावण जैसे अनीति राज्य से जनजातियाँ को मुक्ति हेतु श्री राम वनवास आए।
कई गोंडी विवाह लोकगीत जो लक्ष्मण पर हैं कहते हैं की देखो हमारे भांचा श्री ने सुख में दुःख में भी अपनी पत्नी का साथ नहीं छोड़ा लक्ष्मण तुम कितने निर्दयी हो। या फिर कई लोकगीत माता सीता को कहते हैं की क्यूँ नहीं वे लक्ष्मण की वधु साथ ले आईं अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है वे एक सुंदर जनजाति कन्या से लक्ष्मण जी का विवाह कर दें।
आज के परिवेष में, जनजातियों को प्रभु श्री राम से तोड़ने का एक वैश्विक षड्यंत्र चल रहा है, जिसके कर्ता व लाभार्थी दोनों ही मिशन आधारित हैं, उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए जनजातियों के योगदान देने से रोकने के लिए कई प्रपंच खड़े करने शुरू किए थे।
मगर वे अनभिज्ञ हैं कि राम कथा जनजातियों के बिना अधूरी है, किस प्रकार वे अपने जन्म विवाह व उत्सवों के लोक गीत बिना रामायण और महाभारत के पात्रों के बिना गाएँगे, एक पुस्तक वाले ग्रंथ के भौगोलिक क्षेत्र, नाजरथ (मध्य पूर्व एशिया) के रेगिस्तान से भारत के जनजातियों का कैसे कोई सांस्कृतिक सम्बंध हो सकता है।
रामायण में वानर, ऋक्ष ( रीछ / भालू ), जटायु ( गिद्ध ) राजाओं का उल्लेख है, सभी स्वतंत्र क्षेत्रपति हैं, वानर राज सुग्रीव की राजधानी गोदावरी के दक्षिण में पंपा नदी पर स्तिथ है, ये पंपा वर्तमान की केरल में बहने वाली पंपा नहीं, बल्कि कोई अन्य नदी है।
राजधानी व अन्य वर्णन अनुसार, वानर जनजाति, गोंड (कोईतूर, खोंड, कोया) जनजाति से मेल खाती है, गोंड जनजाति समुदाय तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना, महाराष्ट्र, ओरिसा, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, झारखंड, बिहार व मध्यप्रदेश में आज भी वनों में निवास करते हैं, इन सभी क्षेत्रों में निवासरत गोंड समुदाय, स्वयं को कोयतूर (पहाड़ी योद्धा) के नाम से चिन्हित करता है, जिन्होंने रामायण व महाभारत दोनों काल के युद्धों में अपना योगदान दिया।
तमिलनाडु के कोयमबटूर शहर का नाम “कोयम पुथुर “ करने का प्रस्ताव पारित हुआ, जिसका अर्थ “कोयाओं का नगर“ है। माता सीता अपहरण समय में अपने स्वर्ण आभूषण, लंका के रास्ते में छोड़ दिए थे, वानर गोत्र (टोटेम) राजा सुग्रीव ने राजधानी किष्किंधा से सभी दिशाओं में, उन्होंने अपने गुप्तचर भेजे और सारे आभूषण प्राप्त कर लिए, श्री राम व लक्ष्मण को दिखाए। ये कार्य उन्होंने दो माह में किया था।
इस पर भी जनजातीय परम्पराएँ हैं, कि माता सीता की मुसीबतों में स्वर्ण आभूषणों ने विपत्ति में माता सीता का साथ छोड़ दिया था, इसका गूढ़ है अधिक धन संग्रह विपत्ति को आकर्षित करता है, इसलिए आज भी गोंड महिलाएँ सोने की अपेक्षा, चाँदी के आभूषण पहनती हैं, और गुदना (टेटू) करवाती हैं, जो विपत्ति में भी, अल्पता में भी उनका साथ नहीं छोड़ते।
जामवन्त को ऋक्षराज कहा गया है, (भालु) गोत्र, जनजातियों से वाल्मीकि रामायण में निकटतम सम्बंध, अफ़्रीकी मूल की जनजातियों से है, जो आज की इरुला व सिद्धी जनजातियों से सम्बंधित हैं, इनका विस्तार कर्नाटक व तमिलनाडु में है। जामवन्त इरुला जनजाति की पुत्री जामवती से श्री कृष्ण ने विवाह किया था ऐसी मान्यता है। अन्य ग्रंथों में सागर मंथन में कई बार जामवन्त अथवा ऋक्षराज ( इरुला ) जनजातियों का वर्णन मिलता है।
जटायु व संपाती राजा दशरथ के मित्र थे, इनका वर्णन कोंडा जनजाति से मिलता है। जटायु ने रावण से पहले तर्क किया, उनका संवाद न्याय दर्शन का उदाहरण है तथा संदेश देता है अनीति, अत्याचार व महिलाओं की लड़ाई में मृत्यु निश्चित होने पर भी युद्ध करना चाहिए। आंध्र प्रदेश के “लेपाक्षी" ( ले पक्षी - उठो पक्षी ) ग्राम में श्री राम ने उनका अंतिम संस्कार किया था। केरल के जटायुमंगलम में भी जटायु रावण युद्ध होना प्रचलित है, कुरूंबा व अन्य जनजातीय जटायु को पूजनीय मानती हैं।
रामायण काव्य का उद्देश्य “धर्म सिद्धांतों को आचरण द्वारा प्रचारित करना था" ना कि इतिहास व लेखकों को महत्व देना, इसिलिये वर्तमान रामायण के कई रूप भारत के कई भागों में प्रचलित हैं। जनजातियों में विशेषकर मध्य्भारत में रामायण व महाभारत को “रामायणी “ व “छत्तीसगढ़ी पड़वानी" के रूप में लोक काव्य के रूप में मंचन किया जाता रहा है। इनमे श्री राम का वर्णन आदर्श राजा के मानवीय रूप में किया जाता है, जो इन्हें अपने ही समाज के अंग के रूप में प्रस्तुत करते हैं व उनका आज भी अनुशरण करते हैं :
बुद्धीमान मधुराभाषी पूर्वभाषी प्रियंवद: ।
वीर्यवान न च वीर्येण महता स्वेन विस्मित : ।।
सत्यवादी महेष्वासो वृद्धसेवी जितेंद्रिय : ।
स्मितपूर्वाभिभाषी च धर्मं सर्वात्मनाश्रित: ।।
( वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड )
श्री राम के प्रति उनका प्रेम व वात्सल्य इतना प्रगाढ़ है कि उन्होंने, उनको अपने से अलग देवता रूप स्वीकार ही नहीं किया। जनजातियों और श्री राम दोनों के आराध्य देव शिव / महादेव हैं , यह भी उनकी श्री राम के प्रति आस्था को स्थापित करता है। जनजातीय काव्य जनजातियों के लिए भक्ति के साथ धर्म, सत्य व ज्ञान के भंडार भी हैं, जिसमें भौगोलिक, राजनीतिक, प्रशासनिक व आर्थिक कई विधाओं का समावेश है।
एक मान्यता है विभीषण के राज्याभिषेक की, कहते हैं श्री राम ने लंका में प्रवेश नहीं किया था, क्यूँकि उनके वनवास को चौदह वर्ष पूर्ण नहीं हुए थे। उन्होंने लक्ष्मण जी को राज्याभिषेक के लिए भेजा, परंतु वे सपत्नीक नहीं थे, इसीलिए वे राज्यभिषेक नहीं कर सकते थे। श्री राम ने गंगा के दक्षिण का सारा राज्य किष्किंधा नरेश सुग्रीव को सौंप दिया इसलिए विभीषण का राज्य अभिषेक सुग्रीव ने किया।
विंध्यांचल व दक्षिण के राजा सुग्रीव हुए थे। स्मृतिस्वरूप इसलिए आज भी कई दक्षिणपंथी अनुष्ठानों में राजन स्वरूप में जनजातीय वर्ग ही आवश्यक है। भरत ने सुग्रीव को अपने भाई के रूप में मान्यता दी। जनजातीय समाज का श्री राम कथा में समान सहोदर स्थान है।
कई संदर्भ आज भी जनजातीय बहुल स्थानों से जुड़े हैं, मान्यता है जब राजा दशरथ की मृत्यु हुई तब भरत ने चित्रकूट के पास, उन्होंने श्री राम को वापस अयोध्या आने को आमंत्रित किया। जबलपुर के जाबालि ऋषि का प्रसंग वाल्मीकि रामायण में आता है और वे राजा द्वारा सत्य व अपने दिए वचन सामने रखते हुए भरत व जाबालि ऋषि की बात नहीं मानते। इस प्रसंग के ऊपर आज भी जनजाति समुदाय अपने वचन और सत्य का अनुसरण करता है। जबलपुर की जाबालि शिला ( बेलेंसिंग रौक ) की मान्यता थी। अभी तक किसी जनजाति ने श्री राम के समान अपना वचन नहीं तोड़ा है, इसीलिए जाबाली शिला टिकी हुई है।
मौलिक तमिल रामायण व मौलिक तेलुगु रामायण भी श्री राम के द्वारा माता सीता को परित्यज्ञ करने की किसी बात को नहीं समर्थित करते हैं। ये प्रसंग जिस उत्तर कांड के द्वारा जोड़े गए हैं वो मूल रामायण का हिस्सा नहीं हैं। इस उत्तर कांड को कालांतर में उत्तर मीमांसा/ पुराणिक काल में संलग्न किया गया हैं, साथ ही शंभूक प्रसंग को संभवतः बाद में जोड़ा गया जो प्रभु श्री राम के मर्यादा पुरुषोत्तम रूप से बिल्कुल मेल नहीं खाता। ये अध्याय वर्चस्व की लड़ाई के परिणाम स्वरूप जोड़े जाने सम्भव हो सकते हैं।
जनजातियों की पूजन पद्धति शैव व शक्ति मार्ग आधारित है उनके आहार नियमों को बदलना सम्भव नहीं है , जनजातियों को दिग्भ्रमित करने वालों को वाल्मीकि रामायण अध्ययन ज़रूर करना चाहिए :
सुराघट सहस्त्रेण मांसभूतौदनेन च ।,
यक्ष्ये त्वां प्रियताँ देवी पुरीं पुनरूपागता ।।
( माता सीता की माँ गंगा को प्रार्थना )
एणएयं मांसमाहत्य शालाँ यक्ष्यामहे वयम ।
कर्तव्यम वास्तुशमनम सौमित्रे चिरजीविभि : ।।
(चित्रकूट में श्री राम द्वारा लक्ष्मण जी को नयी कुटिया हेतु वास्तु शांति के लिए सामग्री लाने आदेश )
छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश में दशहरे का प्रचलन में भी एक संदर्भ है की लंका विजय उपरांत, श्री राम को चौदह वर्ष पूर्ण नहीं हुए थे, उन्होंने जनजातियों के साथ दस दिनों तक लंका विजय का उत्सव मनाया, इसीलिए सभी जनजातियों में दशहरे उत्सव का महत्व भी श्री राम के साथ जुड़ा हुआ है।
वन्दे सीतां च रामं च हनुमंतं च लक्ष्मनम ।
विभीषनम च सुग्रीवम वालमिकिम चाद्यसत्काविम ।।
लेख
लक्ष्मण राज सिंह "लक्ष्य"