जानिए माओवाद (नक्सलवाद/कम्युनिस्ट आतंक) के अंतिम लक्ष्य को !

इनमें से मार्क्सवाद अन्य दोनों विचारों की जननी रही है, जबकि माओवाद चीनी तानाशाह माओ जेदोंग के विचारों एवं दोनों ही अन्य विचारों का सम्मिश्रण माना जा सकता है

The Narrative World    10-Feb-2023   
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भाग (1) - (पृष्टभूमि)
 
 
अमूमन ये चर्चा सुनाई पड़ती है कि देश को 4 दशकों से भी अधिक समय तक हिंसा एवं रक्तपात में झोंकने वाले माओवादियों (नक्सलियों / कम्युनिस्ट आतंकियों ) का आखिर अंतिम लक्ष्य क्या है, इस संदर्भ में इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने आप जेएनयू में गलबहियां करते घूमते छात्र कॉमरेडों से लेकर बस्तर के सुदूर जंगलो में अपने ही समाज को मुख्यधारा से दूर रखने की पैरोकारी करने वाले पीएलजीए के कॉमरेडों तक से पूछ लें उत्तर में आपको शोषण एवं अत्याचार की कहानियों से सम्मिश्रित जल जंगल एवं जमीन के प्रपंच की थ्योरी के अतिरिक्त और कुछ भी ना मिलेगा।
 
थोड़ा और कुरेदने पर आपको इसमें ऊंच नीच, जात पात, क्षेत्र एवं भाषा के आधार पर कुतर्कों से सम्मिश्रित विरोधाभासी विमर्शों की एक पूरी परिपाटी दिखाई देगी, मूल रूप से विरोधाभासी विमर्शों से संयोजित यह थ्योरी ही दशकों से माओवाद के पूरे संयंत्र के पक्ष में हुए दुष्प्रचार की रीढ़ रही है जिसके बल बूते ही विशुद्ध रूप से हिंसक राजनीतिक महत्वकांक्षा से ओत-प्रोत इस विचारधारा को कॉमरेडों द्वारा कथित ब्राह्मणवाद, मनुवाद, पितृसत्तामक व्यवस्था के विरुद्ध किये जाने वाले जन संघर्ष के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है।
 
यदि इस थ्योरी की ही बात करें तो इसमें दोराय नहीं कि यह पूरा संघर्ष ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतःस्फूर्त शुरू हुआ संघर्ष ही होना चाहिए, तो क्या यही वास्तविकता भी है, क्या असल में ग्रामीण क्षेत्रों में शोषण एवं अत्याचार ही केवल पिछले दो दशकों में 20000 से अधिक लोगों की मौत का कारण रहे माओवाद समस्या का मूल आधार है या फिर इस पूरे प्रपंच की वास्तविकता कुछ और ही है, कहीं ऐसा तो नहीं कि जनजातियों के जल जंगल जमीन के कथित संरक्षण को आधार बनाकर देशवासियों की आंखों में धूल झोंकने का यह षड़यंत्र मूल रूप से आलीशान बंगलो एवं वातानुकूलित कक्षों में बैठकर माओवादी विद्रोह की दशा दिशा तय करने वाले उन कॉमरेडों की ही देन है जो अब तक इसे ग्रामीण क्षेत्रों से उभरा जन आंदोलन दिखाने पर आमादा रहे हैं।
 
तो दरअसल इसमें संशय नहीं कि माओवाद अथवा लेनिनवाद या फिर मार्क्सवाद, विश्व भर के कम्युनिस्टों द्वारा फैलाई गई परिपाटी का आधार रही यह तीनों ही विचारधाराएं मूल रूप से विदेशी हैं जिनमे से एक का आधार यूरोप (मार्क्सवाद), दूसरे का रूस (लेनिनवाद) एवं तीसरे का चीन (माओवाद) से संबंध रहा है, इनमें से मार्क्सवाद अन्य दोनों विचारों की जननी रही है, जबकि माओवाद चीनी तानाशाह माओ जेदोंग के विचारों एवं दोनों ही अन्य विचारों का सम्मिश्रण माना जा सकता है।
 
समान रूप से इन सभी विचारों में सत्ता पाने के लिए हिंसक प्रयागों को स्वीकृति दी गई है, हालांकि वर्तमान में विश्व मे जहां कहीं भी कम्युनिस्ट सक्रिय हैं वे वहां सत्ता पाने के लिए केवल इन तीनों ही विचारों तक सीमित नहीं हैं अपितु बदलते वैश्विक परिदृश्य में कम्युनिस्टों ने अपने रणनीति में रैडिकल विचारों के पक्षधर अलिंसकी एवं इटालियन कम्युनिस्ट दार्शनिक ग्रामस्की की सांस्कृतिक मार्क्सवाद की थियोरिज को प्रमुखता से स्थान दिया है।
 
इनमें से अलिंसकी के विचारों को शत्रु केंद्रित तथा ग्रामस्की के विचारों को सत्ता कब्जाने के लिए बनाई जाने वाली रणनीति के समीप पाया जा सकता है, जिसका सम्मिश्रण हमें अमेरिका से लेकर विश्व के ऐसे सभी लोकतांत्रिक देशों में देखने को मिला है जहां कम्युनिस्ट सक्रिय भूमिका में रहे हैं, इनमें भारत भी कोई अपवाद नहीं और समय समय पर भारत में मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, एवं सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने ना केवल अपने प्रसार के लिए जमीन तैयार की है अपितु वर्तमान में जो दिख रहा है वो इन सब के सम्मिश्रण से तैयार हुआ सशक्त कम्युनिस्ट तंत्र है जिसकी पहुंच बस्तर के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर राजधानी स्थित मीडिया समुहों, सिविल सोसाइटी समेत न्यायिक व्यवस्था तक में है, जो देश भर में अपने बलबूते अराजकता उत्पन्न करने का माद्दा रखती है, जिसने क्रमशः सरकारों की नीतियों को प्रभावित किया है और जो वर्तमान में भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को निगलने पर आमादा है।
 
अंग्रेजो से भारत को मिली स्वतंत्रता के उपरांत जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने, इसमें संशय नहीं कि नेहरू कम्युनिस्ट विचारों के समर्थकों में से एक थे जो वर्ष 1940 से पूर्व कम्युनिस्टों की वैश्विक बॉडी कमिंटरण के चहेते भी थे, कम्युनिस्ट विचारों के प्रति नेहरू का समर्पण उनकी कथित 'आदर्शवाद' की नीति में स्पष्ट दिखाई पड़ता है, दूसरी शब्दावली में नेहरू की आदर्शवाद की नीति कम्युनिस्ट विचारों से बेहद प्रभावित किसी स्टेट्समैन द्वारा कम्युनिस्ट विचार को अहिंसक रूप में परिभाषित करने जैसा है।
 
नेहरू की इस विरोधाभासी थ्योरी का आगामी वर्षो में भारतीय गणराज्य की नीतियों पर बेहद गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है जो मूल रूप से उस कालखंड में कम्युनिस्ट शासित वैश्विक महाशक्ति रूस की इच्छाओं के अनुरूप ही थी, दरअसल कमिंटर्न यह जानती थी कि भारत जैसे देश में विदेशी विचारधारा थोप कर रूस जैसी क्रांति की राह आसान नहीं, इसलिए उन्हें एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था जिसके हाथ में सत्ता जाने की संभावना हो ताकि उसके माध्यम से सत्ता का दुरुपयोग कर कम्युनिस्ट विचार के विस्तार के लिए जमीन तैयार की जा सके।
 

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परिणामस्वरूप आने वाले दो तीन दशकों में नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक भारत मे लेनिनवाद एवं मार्क्सवाद की साझी विरासत को राजनीतिक रूप से भारतीय समाजवाद एवं सांस्कृतिक रूप से ग्रामस्की जनित सांस्कृतिक मार्क्सवाद के रूप में अपनी जड़ें गहरी करने का खुला अवसर मिला फलस्वरूप 80 के दशक तक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों, कला निकायों, सरकारी प्रतिष्ठानों, कथित समाजसेवी संगठनों यहां तक कि न्यायिक व्यवस्था तक में कम्युनिस्ट विचारों का एक पूरा मकड़जाल बुन लिया गया ताकि इसके आधार पर वैचारिक रूप से भारत को उसकी सांस्कृतिक विरासत से काटकर कम्युनिस्ट अतिवाद जनित क्रांति के लिए तैयार किया जा सके।
 
यहां यह जान लेना आवश्यक है कि शताब्दियों से स्थापित प्रचलित सांस्कृतिक विमर्शों को चुनौती देकर भ्रामक विमर्शों को स्थापित करना ही सांस्कृतिक मार्क्सवाद है, जिसके माध्यम से समाज में अस्तित्व एवं विरासत को लेकर भ्रम की स्थिति खड़ी की जा सके, ग्रामस्की के मत में यही कल्चरल हेजेमनी का सिद्धांत है जहां सबसे पहले आप समाज को उसकी सांस्कृतिक विरासत के प्रति भ्रम की स्थिति में ले आते हैं और समानांतर रूप से उसे नए विकल्प देते हैं ताकि अपने अतीत पर भ्रम की स्थिति में नई गढ़ी हुई पहचान को अपनाना सहज लगे।
 

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“ऐसी ढेरों नई पहचान गढ़ने से समाज को बांटा जा सकता है और शताब्दियों से आपकी संस्कृति का आधार रहे विमर्शों को अलग थलग कर के आपको कन्फ्यूज्ड सोसाइटी के रूप में ढाला जा सकता है, कंफ्यूज़न अराजकता को जन्म देगी, अराजकता से चीन एवं रूस की क्रांति के तर्ज पर भारत में क्रांति की नींव डाली जा सकती है जिससे अंततः सत्ता कब्जाने का मार्ग प्रशस्त होगा, भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां सांस्कृतिक मार्क्सवाद के जरिये कम्युनिस्टों का प्रयास भारत की प्राचीन सनातनी विरासत को लेकर भ्रम खड़े करने में निहित रहा है…..……”
 
 
अगले भाग में भारत में माओवाद का विस्तार……!