बस्तर के मधुकर

10 Feb 2023 20:39:41

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बात वर्ष 2005 की है जब अमूमन शांत माने जाने वाला छत्तीसगढ़ का बस्तर माओवादियों (नक्सलियों / कम्युनिस्ट आतंकियों) के हिंसा एवं आतंक से बुरी तरह प्रभावित था, लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति लक्षित कर के की जा रही हिंसा एवं अपने शांत आचरण से विपरीत गोलियों एवं बम धमाकों से आहत बस्तर के जनजातीय समुदाय ने कम्युनिस्टों के इस आतंक के विरुद्ध कमर कसने की ठानी।
 
इस मुहिम की अगुवाई करने वालों में एक ओर जहां बस्तर टाइगर के नाम से प्रसिद्ध महेंद्र कर्मा थे तो वहीं दूसरी ओर इस मुहिम की कमान बीजापुर के कुटुरु गांव के रहने वाले मधुकर राव ने संभाली, इस मुहिम से जुड़ने से पहले मधुकर पेशे से शासकीय शिक्षक थे हालांकि अपने ही क्षेत्र में विदेशी विचारधारा की घुसपैठ से आहत राव ने नक्सलियों से लोहा लेने शिक्षक की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और अंबेली से माओवादियों के विरुद्ध चलाई जा रही मुहिम " सलवा जुडूम" से जुड़ गए।
 
आने वाले वर्षों में मधुकर नक्सलियों के लिए दशहत का पर्याय बनकर उभरे, राव ने अपनी बुद्धिमत्ता, नेतृत्व कौशल एवं दृढ़ संकल्प से ना केवल माओवाद प्रभावित माने जाने वाले कई क्षेत्रों को माओवादीयों के दंश से मुक्त कराया अपितु यह भी सुनिश्चित किया कि माओवादी दुबारा इन क्षेत्रों में घुसपैठ ना कर सकें।
 
यह राव का अपने समुदाय, अपने समाज, एवं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति समर्पण ही था कि उन्होंने तीर कमान एवं पारंपरिक शास्त्रों के साथ माओवादियों की गरजती बंदूकों का निडरता से सामना किया, नक्सलियों के विरुद्ध इस निर्णायक संघर्ष में कई बार तो राव माओवादियों की सशस्त्र कैडरों से घिर भी गए, बावजूद इसके समाज के प्रति उनका समर्पण तनिक भी डीग ना सका।
 
हालांकि जंगलो में पारंपरिक शस्त्रों के साथ अपनी जान की बाज़ी लगाकर नक्सलियों से लोहा ले रहे राव एवं उनके साथियों को सलवा जुडूम की अपनी मुहिम में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2008 में इसे बंद किए जाने के आदेश के बाद पीछे हटना पड़ा, यह निर्णय चौंकाने वाला था, विशेषकर प्रत्यक्ष संघर्ष में कई मोर्चों पर माओवादियों को पीछे धकेलने वाले सलवा जुडूम से जुड़े ग्रामीणों के लिए यह मनोबल गिराने वाला था।
 
जबकि अपने दिल्ली स्थित कॉमरेडों की सहायता से इस निर्णय से उत्साहित नक्सलियों के लिए अब सलवा जुडूम से जुड़े ग्रामीण एवं नेता उनकी हिट-लिस्ट में सबसे ऊपर थे, राव जैसों के लिए यह हर पल मौत के साये में जीने जैसा था, हालांकि मुख्यधारा से दूर सुदूर जंगलो में समुदाय के हित के लिए जीवन समर्पित कर चुके राव ने इसे एक और चुनौती के रूप में स्वीकारा।
“राव जानते थे कि बस्तर को यदि नक्सलियों के आतंक से मुक्ति दिलानी है तो उसके लिए उन्हें एक शिक्षित पीढ़ी का निर्माण करना होगा, उन्हें यह बखूबी भान था कि जंगलो में बंदूकें ताने घूम रहे माओवादियों के पीछे की असली शक्ति उन शहरी कॉमरेडों की है जो मानवाधिकार का चोला ओढ़कर यहां युवाओं को दिग्भ्रमित करते हैं, उलूल-जुलूल तर्कों से उन्हें क्रांति का पाठ पढ़ाते हैं और अंत में अपने ही समुदाय में आतंक स्थापित करने उनके हाथों में बंदूकें थमा देते हैं।”
 
 
युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित होने से बचाने के इसी संकल्प को आत्मसात कर मधुकर ने बीजापुर के कुटुरु में पंचशील आश्रम की स्थापना की जहां वे जनजातीय समुदाय के बच्चों को आवासीय परिसर में शिक्षा देते आए, राव नक्सलियों की हिट-लिस्ट में थे इसलिए उन्हें अपनी रात थाने में बितानी पड़ती थी, यह उनका अपनी मातृभूमि के लिए समर्पण ही था जिसने इतने खतरों के बावजूद उन्हें अपने कर्तव्य पथ से कभी डिगने नहीं दिया।
 

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बीते मंगलवार को सीने में दर्द की शिकायत के बाद राव को बीजापुर लाया गया था जहां स्थिति बिगड़ने पर उन्हें वारंगल ले जाया गया, मंगलवार को उपचार के दौरान ही बस्तर की माटी के इस महान सपूत ने अंतिम सांसे ली, देर शाम ग्रामीणों ने नम आंखों से राव को अंतिम विदाई दी, उनका जाना बस्तर के माओवाद की जहरीली विचारधारा के विरुद्ध चलाई जा रही मुहिम में एक युग का अंत है, राव अब नहीं हैं पर उनके मूल्य एवं अपनी माटी के प्रति समर्पण की भावना लाखों युवाओं को नक्सलवाद के जड़ से खत्म होने तक संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहेगी……..!
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