भाग -३ (हिंसक विचारों की अभिपूर्ती)
इस श्रृंखला के पिछले दो भागों में हमने जाना कि किस प्रकार माओवाद (नक्सलवाद) समेत पूरे कम्युनिस्ट तंत्र ने स्वतंत्रता के उपरांत पांच दशकों में सुनियोजित ढंग से विभिन्न फ्रंटल समुहों एवं अतिवादी संगठनों के माध्यम से भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को उसकी जड़ो से उखाड़ने का पूरा मोड्यूएल खड़ा किया, इस भाग में बात, अपनी जड़ें मजबूत करने के बाद उनकी द्वारा की गई हिंसा एवं लक्षित कर के किए गए राजनीतिक प्रयोगों पर।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में राजनीतिक अथवा गैर राजनीतिक रूप से कम्युनिस्ट जहां कहीं भी मजबूत हुए उन्होंने वहां जमकर हिंसा एवं रक्तपात को बढ़ावा दिया, मूलतः इसे दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, पहली श्रेणी राजनीतिक हिंसा की है जो विभिन्न कालखंडों में भारत के अलग अलग राज्यों में रही कम्युनिस्ट सरकारों से संबंधित है, इस क्रम में पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा एवं केरल में कम्युनिस्ट सरकारों द्वारा प्रायोजित राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास रहा है।
अकेले पश्चिम बंगाल की ही बात करें तो कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार के दौरान यहां 50 हजार से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई, इस राज्य प्रायोजित हिंसा में आनंदमार्गियों से लेकर मरीचझांपी में हिन्दू शरणार्थियों का नरसंहार समेत बंटाला दुष्कर्म प्रकरण जैसी जघन्यता शामिल है, केरल में तो राजनीतिक हत्याओं का क्रम 1960-70 के दशक से निरंतर चला आ रहा है जहां अतिवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट कैडरों द्वारा ढ़ाई गई बर्बरता के सैकड़ो उदाहरण हैं, कम्युनिस्ट शासन के दौरान कमोबेश यही स्थिति त्रिपुरा की भी रही है यहां तो राजनीतिक वेंडेटा के नाम पर महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के कई वीभत्स उदाहरण देखे जा सकते हैं।
यह सभी उदाहरण इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं कि भले ही भारत जैसे लोकतंत्र में दुष्प्रचार एवं जातिगत भेदभाव की खाई गहरी कर के कम्युनिस्ट बंदूकों के बजाए बैलेट से ही सत्ता कब्जाने में सफल रहे हों इसमें संदेह नहीं कि सत्ता कब्जाने के बाद उनका मोड्स ऑपेरंडी अपने आकाओं (लेनिन, स्टालिन एवं माओ) द्वारा बताए गए राजनीतिक हिंसा के मार्ग का अनुसरण करना ही रहा है, यानी यदि एक बार सत्ता में आये तो हिंसा के माध्यम से विपरीत विचारधारा के अस्तित्व तक को मिटा देना कम्युनिस्ट सरकारों की टाइम टेस्टेड नीति का हिस्सा रही, इस क्रम में पश्चिम बंगाल एवं त्रिपुरा से तो सत्ता में दशकों बने रहने के उपरांत ही सही कम्युनिस्टों का किला तो ढ़ह गया किंतु केरल में कम्युनिस्टों की सत्ता एवं राजनीतिक हिंसा की नीति अभी भी यथावत बनी हुई है।
इसमें भी संदेह नहीं कि भले ही कम्युनिस्टों के एक वर्ग ने सुनियोजित नीति के तहत भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था मंर भागेदारी दिखाकर कई राज्यों में दशकों अपनी सरकारें चलाई हो हालांकि इस तंत्र के वृहद स्वरूप को देखें तो आप ये पाएंगे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत राजनीतिक सत्ता इस पूरे तंत्र के लिए प्रायोजित क्रांति (लोकतंत्र हटाकर तानाशाही स्थापित करने के लिए) के लिए अपनी जड़ें मजबूत करने का ही उपक्रम रही हैं, ऊपर ऊपर से राजनीतिक रूप से सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टियां इसे नकारती आई हैं पर राजनीति का नौसिखिया भी इस बात को भलीभांति समझता-बुझता है कि कम्युनिस्टों के लिए अंतिम लक्ष्य कथित क्रांति से इतर और कुछ भी नहीं।
यह इसी के परिणामस्वरूप था कि जहां एक ओर वृहद कम्युनिस्ट तंत्र का एक धड़ा राजनीतिक दलों के रूप में लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेंधमारी का प्रयास कर रहा था तो वहीं दूसरी ओर सांस्कृतिक मार्क्सवाद के जरिए वैचारिक सेंधमारी एवं वृहद सशस्त्र संघर्ष की पृष्टभूमि को भी समानांतर रूप से तैयार किया जा रहा था, इस क्रम में वर्ष 2004 में दो कम्युनिस्ट अतिवादी (माओवादी) सशस्त्र समुहों के विलय से अस्तित्व में आई कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कम्युनिस्टों की सशस्त्र क्रांति की अगुवा बनकर उभरी, उद्देश्य वृहद था जिसके तहत "भारत के अधिकांश राज्यों के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा एवं रक्तपात के माध्यम से समानांतर व्यवस्था स्थापित करके अपने शहरी कॉमरेडों के इशारे पर एक साथ क्रांति को व्यवहारिक रूप देकर सत्ता परिवर्तन।"
“अपने अस्तित्व में आने के उपरांत अगले एक दशक में भारत ने कम्युनिस्ट अतिवादियों के उस स्वरूप की झलक देखी जिसके उदाहरण कम्युनिस्ट कैडर अपने व्याख्यानों में दिया करते थे यह चीनी तानाशाह माओ के विचारों की व्यवहारिक अभिपूर्ती थी जिसने अपने उत्कर्षकाल में भारतीय गणराज्य की लगभग एक तिहाई संप्रभु भूमि को हिंसा के लाल रंग से रंग दिया था, इस क्रम में उत्तर में बिहार से लेकर दक्षिण में कर्नाटक की सीमाओं तक सांकेतिक रूप से स्थापित लाल गलियारे (रेड कॉरिडोर) अंतर्गत रानिबोदली, ताड़मेटला, एर्राबोर, चित्रकोंडा, दरभा, झीरम, सिल्दा, झधा, चिलखारी जैसे सैकड़ो नरसंहारों ने कम्युनिस्टों की इस अतिवादी विचारधारा को भारत के लिए आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से सबसे बड़े खतरे के रूप में स्थापित किया।”
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जब कभी भी कम्युनिस्ट अतिवादियों के समूह ने ऐसे जघन्य नरसंहारों को अंजाम दिया शहरी कॉमरेडों का एक धड़ा उसे जाति, रंग, नस्ल, भाषा एवं भगौलिक आधार पर हुए शोषण एवं अत्याचार की प्रतिक्रिया स्वरूप हुई हिंसा के रूप में परिभाषित कर उसे वैचारिक कवर फायर देने के लिए तैयार बैठा था, जिसकी पराकाष्ठा को दंतेवाड़ा में हुए 76 जवानों की नृशंस हत्या के उपरांत राजधानी दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कॉमरेड शिक्षकों एवं छात्रों द्वारा मनाए गए जश्न से बखूबी समझा जा सकता है।
यह अतिवादी कम्युनिस्टों द्वारा भारतीय समाज में भेदभाव को आधार बनाकर दशकों से पोषित की जा रही हिंसा का खौफनाक स्वरूप था, इसमें भी संशय नहीं कि इस वीभत्स स्वरूप के इतने शक्तिशाली होकर उभरने की पृष्ठभूमि दशकों से तैयार की जा रही थी जिसकी आहट को सेनारी, भागलपुर, दलेलचक-भगौड़ा जैसे नरसंहारों से बखूबी समझा जा सकता था दुर्भाग्य से सांस्कृतिक मार्क्सवाद जनित पोलिटिकल करेक्टनेस के कोढ़ एवं सस्ती वोट बैंक आधारित राजनीति ने क्रमशः केंद्र सरकारों को इस वृहद षड़यंत्र की व्यवहारिक अभिपूर्ती तक मूक दर्शक बनने एवं खानापूर्ति करने तक सीमित रखा……..!
अगले भाग में माओवाद पर प्रहार एवं आतिवादियों की वर्तमान स्थिति