जानिए माओवाद (नक्सलवाद/कम्युनिस्ट आतंक) के अंतिम लक्ष्य को!

21 Feb 2023 17:26:51
 
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भाग - ४ ( प्रयोगशाला एवं वर्तमान स्थिति )
 
विश्व भर में जहां कहीं भी माओवाद (नक्सलवाद/कम्युनिस्ट आतंक) पनपा वहां उसका प्रयास माओ के दिये हुए सिद्धांतो के माध्यम से क्रांति (कथित) लाना एवं अंततः सत्ता में काबिज होना ही रहा है, भारत के उत्तरी पड़ोसी नेपाल एवं चीन (जहां माओ ने सबसे पहले यह प्रयोग किया) तो इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रहे जहां लाखों लोगों की हत्याओं के बाद माओ ने चीन में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना की, समानता की इस कथित क्रांति के परिणामस्वरूप सत्ता में आये माओ जेदोंग ने कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के बाद जो किया, वैसा क्रूर इतिहास विश्व में किसी अन्य स्थान पर शायद ही देखने सुनने को मिलता है।
 
आज सात दशकों के उपरांत भी हिंसा एवं रक्तपात का यह क्रम चीन में अब भी जारी है, इसमें भी संदेह नहीं कि चीन की इस कथित क्रांति के परिणाम रूस की कम्युनिस्ट क्रांति से भी वीभत्स हुए जिसने वर्तमान में विश्व के सामने कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद का प्रत्यक्ष खतरा खड़ा किया हुआ है, जो अपने नागरिकों एवं अल्पसंख्यकों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विषयों पर क्रूरता की पराकाष्ठा पार करने से भी नहीं हिचकता, दुर्भाग्य से दशकों से भारत के भीतर भी एक वर्ग (कम्युनिस्ट अतिवादियों का) वैसी ही एक क्रांति के माध्यम से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को मिटाने पर आमादा है।
 
बीते दशकों में इस वर्ग ने क्रांति के लिए दो मोर्चों पर योजनाबद्ध रूप से कार्य किया जिसके अंतर्गत जहां एक ओर कम्युनिस्टों के इस वर्ग ने सशस्त्र संघर्ष के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) जैसे समूह खड़े किए तो वहीं दूसरी ओर इसने सांस्कृतिक मार्क्सवाद के जरिये देश के जनमानस के भीतर भ्रामक विमर्शों को खड़े करने का भी खूब प्रयास किया, इसी क्रम में कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने इस्लामिक चरमपंथियों, खालिस्तानियों उत्तरपूर्व एवं कश्मीरी अलगाववादियों से नजदीकी गठजोड़ स्थापित करने के अतिरिक्त ब्राह्मणवाद, दलित उत्पीड़न, अन्य जातीय विद्वेष, आर्य-द्रविडं सिद्धांत, जनजातियों के भीतर अलगाववादी भाव, मुग़लो के महिमामंडन जैसे विमर्शों को गढ़ कर पूरे सामर्थ्य से इसका दुष्प्रचार किया ताकि समाज को भेदभाव के आधार पर छोटे छोटे समुहों में बांटकर उसे भारत विरोधी एक बहुत बड़े वर्ग के रूप में परिवर्तन किया जा सके।
 
“यह इस देश विरोधी परिपाटी के परिणामस्वरूप ही था कि बीते वर्षों में देश में कथित असहिष्णुता, सीएए -एनआरसी, एवं अभी दो वर्ष पूर्व कथित किसान आंदोलनों जैसे प्रपंचों को गढ़ा गया जहां इस्लामिक चरमपंथियों से लेकर खालिस्तानियों तक कि व्यापक संलिप्तता दिखाई पड़ी, यहां यह भी समझने की आवश्यकता है कि वर्ष 2014 के पूर्व अपने वृहद लक्ष्य की ओर तेजी से कदम बढ़ाते इस कममुनिस्ट तंत्र ने वर्ष 2014 के बाद अपने सामाजिक प्रयोगों को व्यवहारिक रूप से लागू करने का भरसक प्रयास किया है ताकि विपरीत परिस्थितियों में क्रांति की संभावनाओं के विषय में वास्तविक स्थिति का ठीक ठीक अनुमान लगाया जा सके।”
 
 
 
यही कारण है कि उक्त सभी प्रयोगों में आपको जेएनयू के कॉमरेडों से लेकर बस्तर में बंदूकें ताने घूम रहे कॉमरेडों के बीच प्रत्यक्ष कॉर्डिनेशन दिखाई देगा, इस संदर्भ में किसान आंदोलन के विषय में प्रतिबंधित माओवादी संगठन सीपीआई (माओइस्ट) की संलिप्तता को तो उन्होंने अपने आंतरिक वितरण के लिए तैयार किये डॉक्यूमेंट में स्वीकार भी है, एक पहलू सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जात-पात एवं भेदभाव की राजनीति करने वाले दलों से भी संबंधित है जिनसे कम्युनिस्ट तंत्र की नजदीकी उन्हें अपने उद्देश्यों को साधने के लिए चलाए जा रहे देश विरोधी मुहिम को लोकतांत्रिक चोला ओढ़ाने में वांछित सहयोग प्राप्त होते रहा है।
 

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क्या है वर्तमान स्थिति
 
 
इसमें संशय नहीं कि माओवाद के इस पूरे इकोसिस्टम से गंभीरता से निपटने की दृष्टि से वर्तमान केंद्र सरकार ने सार्थक प्रयास किये हैं और यह वर्ष 2014 के बाद केंद सरकार द्वारा जमीन पर हालात (सशस्त्र माओवादियों को लेकर) बदलने की कवायद ही थी जिसने माओवादियों के शहरी तंत्र (अर्बन नक्सलियों) को एल्गार परिषद जैसे आयोजनों में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजीव गांधी के तर्ज पर हत्या करने की योजना करने पर बाध्य किया था, यह और बात है कि इससे पहले कि इस तंत्र द्वारा ऐसी किसी हमले को अंजाम दिया जाता इस पूरे षड़यंत्र के उजागर होने से कम्युनिस्ट अतिवादियों के अर्बन समूह की यह सुनियोजित योजना धराशायी हो गई।
 
एल्गार के खुलासे के उपरांत माओवादियों के शहरी नेटवर्क पर हुई कार्यवाई के अतिरिक्त एक क्षेत्र जहां माओवाद के विष को समेटने में वर्तमान सरकार ने वांछित सफलता अर्जित की है वो माओवादियों के सशस्त्र समूह यानी सीपीआई माओइस्ट के विस्तार को समेटने में है जिसका प्रभाव अपने चरमकाल (वर्ष 2009) में लगभग 200 जनपदों से सिमटकर अब केवल 70 जनपदों तक सिमट आया है उसमें से भी केवल 25 जनपद ही ऐसे हैं जहां माओवादी प्रभावी रूप से स्थापित हैं।
 
इस सफलता के पीछे सरकार द्वारा सुनियोजित रूप से धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में फारवर्ड ऑपरेटिंग बेसेस के निर्माण एवं माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में युद्ध स्तर पर चलाये जा रहे विकास के कार्यों की निर्णायक भूमिका रही है जिसने ना केवल दशकों से माओवाद के गढ़ के रूप में पहचाने जाने वाले क्षेत्रों में माओवादियों को पीछे हटने को बाध्य कर दिया है अपितु क्षेत्र में हो रहे विकास से ग्रामीणों को दिग्भ्रमित कर उन्हें अपने साथ जोड़ने की माओवादियों की रणनीति को भी तगड़ा झटका लगा है।
 
परिणामस्वरूप देश के ज्यादातर ऐसे क्षेत्र जहां किसी समय अंतराल में स्थानीय जनसमर्थन के बलबूते माओवादियों की तूती बोलती थी वहां अब संगठन बेहद कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा है, इसे बीते एक आध वर्षो में माओवादियों द्वारा बौखलाहट में की जा रही निर्दोष ग्रामीणों की हत्या से भी बखूबी समझा जा सकता है जहां सुरक्षाबलों से प्रत्यक्ष रूप से लोहा लेने में असमर्थ दिखाई दे रहे माओवादी निर्दोष ग्रामीणों एवं विकास के पक्षधर रहे जन प्रतिनिधियों को अपना निशाना बना रहे।
 
इसमें संदेह नहीं कि बीते एक दशक में माओवादियों के आर्म्ड समूह के विरुद्ध सरकार द्वारा छेड़ी गई इस निर्णायक मुहिम के सकारात्मक परिणाम अब धीरे धीरे ही सही दिखाई पड़ने लगे हैं वहीं एल्गार परिषद को कम्युनिस्ट अतिवादियों के अर्बन समूह के पूरे फैलाव को समझने एवं इसपे अंकुश लगाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण विकास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, हालांकि इन सब के बावजूद यहां यह समझना बेहद आवश्यक है कि यह समूह केवल माओवादियों के सशस्त्र समूह सीपीआई (माओइस्ट) का ही हिस्सा भर है, और लोकतांत्रिक व्यवस्था में पैर पसारे बैठा समान विचारधारा के लिए कार्य कर रहे वृहद कम्युनिस्ट तंत्र की जड़े बेहद गहरी हैं,
 
यह जड़े आपको जेएनयू से लेकर, बॉलीवुड, महत्वपूर्ण सरकारी प्रतिष्ठानों, न्यायिक व्यवस्था, मीडिया, देशी विदेशी अधिकार समुहों यहां तक कि राजनीतिक दलों के भीतर तक गहराई से वयाप्त मिलेगी जिसका लक्ष्य केवल एक ही है यानी लाल किले पर लाल निशान और जब तक यह हो नहीं जाता तब तक देश से लेकर विदेशों तक फैले इस वृहद कम्युनिस्ट तंत्र का प्रयास अनवरत जारी रहेगा इसे ऐसे समझे कि यह ऐसे ही नहीं है कि कोई जॉर्ज सोरोस जैसा व्यक्ति सार्वजनिक रूप से आपकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार को हटाने के लिए 100 अरब डॉलर देने की घोषणा कर देता हो यह तो केवल एक बानगी भर है बृहद कम्युनिस्ट तंत्र का सामर्थ्य तो बेहद विशाल है जिसके निशाने पर केवल आपकी स्वतंत्रता आपकी अस्मिता आपकी पहचान है।
 
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