भील एक जंगली (वन निवासी) जाति है और मेवाड़ में उनकी बड़ी आबादी है। इस जाति के लोग बहुधा शहरों से दूर पहाड़ी प्रदेश में पहाड़ियों की चोटियों पर भील एक दूसरे से दूर झोंपड़े बनाकर रहते हैं।
बहुत से झोंपड़े मिल- कर एक पाल (पल्ली) कहलाती है और उसका मुखिया पालवी (पल्लीपति) या गमेती कहलाता है, जिसकी आज्ञा में प्रत्येक पाल के लोग रहते हैं । ये लोग पशुपालन, खेती, शिकार और घास या लकड़ी बेचकर अपना निर्वाह करते हैं।
उदयपुर के राज्यचिह्न में एक तरफ़ राजपूत और दूसरी तरफ़ भील बना हुआ है, जिसका अभिप्राय यही है कि उक्त राज्य के मुख्य रक्षक राजपूत और भील रहे हैं।
प्राचीन काल से ही ये स्वामिभक्त लोग युद्ध आदि के समय राजाओं की बड़ी सेवा करते, पहाड़ों में रहे हुए लोगों, राजपरिवारों और सरदारों के परिवारों की रक्षा करते, शत्रु की रसद आदि लूटते तथा मौके मौके पर उनसे लड़ते भी थे।
राजा के राज्याभिषेकोत्सव के अन्त में एक भील-मुखिया अपने अंगूठे को तीर से चीरकर अपने रुधिर से राजा के राज्य-तिलक करता था। इस रीति का पता महाराणा अमरसिंह (दूसरे) तक तो लगता है।
ये लोग भैरव, देवी, नाग, शिव, ऋषभदेव आदि देवताओं के उपासक होते हैं। इनके शस्त्र तीर, 'कामठा' (बांस का बना हुआ धनुष), तलवार और कटार हैं। अब बन्दूक का भी ये लोग उपयोग करने लगे हैं तथा बचाव के लिए ढाल रखते हैं। ये एक लड़ाकू जाति है। इनकी स्त्रियां भी लड़ाई के समय अपने प्रतियों के साथ रहकर उनको भोजन देने, जल पिलाने और शत्रु की तरफ़ से आये हुए तीरों को एकत्र कर उनको देने की सहायता करती हैं एवं कभी कभी वे लड़ती भी हैं।
महाराणा सज्जनसिंह के समय ई० स० १८८१ (वि० सं० ११३८ ) में भीलों का उपद्रव हुआ और राज्य की सेना से लड़ाई हुई उस समय एक भीलनी ने ऐसे ज़ोर से तीर चलाया कि वह एक ऊंट का पेट फोड़कर पार निकल गया।
इनके बालक लड़के भी अपने पशु चराते समय छोटे छोटे कामटों से तीर चलाने का अभ्यास करते हैं। एक लड़का आकाश में कंडा फेंकता है तो दूसरा उसको नीचे आते हुए अपने तीर से बेधने का प्रयत्न करता है।
मेवाड़ में जिनको आजकल भील कहते हैं वे सब के सब भील नहीं हैं, किन्तु उनमें 'मीने' भी हैं। साधारण जनता और राजकीय अहलकार उन सबको भील कहते हैं, परन्तु ये दोनों जातियां भिन्न भिन्न हैं और विशेष जांच करने से ही उनके बीच का भेद मालूम हो सकता है। मीने, मेव और मेरों के समान क्षत्रपों सैनिकों में से हैं और भील यहां के निवासी, जिनमें कुछ राजपूत भी मिल गये हैं।
भील और भीलनियां नाचने, गाने और मद्य पीने के बड़े शौकीन होते हैं और वे बहुधा अपनी जाति के वीर पुरुषों के संबन्ध के गीत गाते हैं। उनका विवाह अग्नि की साक्षी से पुरोहित (गुरु) द्वारा होता है। ये लोग प्रत्येक जानवर का मांस खाते हैं और कहत वगैरह के समय गाय को भी खा जाते हैं।
इनमें एकता विशेषरूप से होती है और ढोल बजाने या किलकारी करने से ये लोग सशस्त्र एकत्र हो जाते हैं। ये लोग स्त्रियों का बड़ा आदर करते हैं और आपस की लड़ाइयों में शत्रु की स्त्री पर कभी प्रहार नहीं करते। शपथ पर भी ये लोग बड़े दृढ़ होते हैं। केसरियानाथ (ऋषभदेव) के केसर का जल पीने पर कभी झूठ नहीं बोलते। अपने घर आये शत्रु का भी ये स्वागत करते हैं। ये लोग मेवाड़ में अस्पृश्य नहीं माने जाते।
प्राचीनकाल में भिन्न भिन्न जातियों या वर्णों में परस्पर छूतछात नहीं थी। वे एक दूसरे के हाथ का भोजन करते थे। छूतछात और खानपान के परहेज़ का प्रभाव पीछे से पड़ा है।
सन्दर्भ: उदयपुर राज्य का इतिहास: महामहौपाध्याय राय बहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, 1928, पृ. 1113-1115
लेख
डॉ मन्नालाल रावत
उप परिवहन आयुक्त, राजस्थान