घुमंतू जनजातियों का योगदान समझना आवश्यक है

वास्तव में तो यह विमुक्त समुदाय भारत का स्वतंत्रता सेनानी घोषित होना चाहिए था। इन लोगों ने देश की आजादी की लड़ाई चुपचाप लड़ी, अपने साथ-साथ अपने परिवारों की भी बलि दे दी, अपराधी घोषित हो कर नारकीय जीवन जीया, लेकिन हम इतने कृतघ्न निकले कि 15 अगस्त को इनका सम्मान तो दूर एक बहुत बड़े वर्ग को सम्मान के साथ जीने का हक भी नहीं दे पा रहे हैं।

The Narrative World    08-Apr-2023   
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अपने देश का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो घुमन्तु व विमुक्त समुदायों से आता है। आज अत्यंत दयनीय दशा में रह रहे समाज में सबसे पिछड़े ये वो लोग हैं, जिन्होंने अपने पूरे कला-कौशल के माध्यम से इस देश को संवारा और हर क्षेत्र में ऊँचाइयों तक पहुँचाया। जब व्यापार इनके हाथों में था तब भारत का न केवल निर्यात में सर्वाधिक योगदान था, अपितु दुनिया की जीडीपी में भी हमारा योगदान सर्वाधिक रहा। जो ब्रिटिश काल से घटते-घटते आज बहुत कम हो गया है। भारत के आज के राष्ट्रीय राजमार्ग व सिल्क रूट को स्थापित


करने में भी इन व्यापारिक समुदायों का बड़ा योगदान रहा है। एक ओर जहाँ समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा, वहीं दूसरी ओर धर्म, संस्कृति को पुष्ट करने में भी इनकी महती भूमिका रही है।


देशभक्ति व देशप्रेम तो मानो इनके खून में ही था। 1857 का समर तो बहुत बाद की बात है, इनमें से कई समुदाय तो ऐसे हैं, जिनका इतिहास राणा प्रताप से जुड़ा हुआ है। इनमें से बहुत से 450 वर्ष पहले से ही अपने स्वधर्म व स्वाभिमान की रक्षा के लिये निर्वासित होकर जंगलों में चले गये थे।


मालवा में रहने वाला एक समुदाय है, जो बाछड़ा के नाम से जाना जाता है। लम्बे समय तक अभिशप्त जीवन जीने वाले ये लोग अपना इतिहास सम्राट पृथ्वीराज चौहान से जोड़ते हैं। सम्राट के अवसान के बाद उनका साथ देने वाले पुरुषों को मौत के घाट उतारा गया व महिलाओं की सरेआम दुर्दशा की गयी।


झांसी में रहने वाली कंजर बस्ती के बुजुर्ग अपना इतिहास महारावल रतनसिंह व महारानी पद्मावती से जोड़ते हैं, जब अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के बाद उन्हें चित्तौड़ से भागना पड़ा। उनके मन में आज भी मेवाड़ के महाराणा के दर्शन की इच्छा बनी हुई है। आज भी हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू आदि पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोग अपना इतिहास राजस्थान से जोड़ते हैं। ये सब लोग वहाँ क्यों गये, कब गये, यह शोध का विषय होना चाहिए।


ब्रिटिश शासनकर्ताओं ने जिस धूर्तता से हमारे सामाजिक ताने-बाने को क्षतिग्रस्त किया व इतिहास में भ्रान्त धारणाओं को स्थापित किया वह एक बहुत बड़ा षड्यंत्र था। एक बहुत बड़े देशभक्त समुदाय को अपराधी घोषित करके अभिशप्त जीवन जीने को कर दिया गया।


आज आवश्यकता है कि 1871 में बने आपराधिक जनजाति अधिनियम के पीछे की सच्चाई सबके सामने लाई जाए। इन्हें 1871 में आपराधिक क्यों घोषित किया गया ? इनका अपराध मात्र यही था कि ब्रिटिश शासकों की गुलामी को इन्होंने स्वीकार नहीं किया तथा क्रान्तिकारियों का साथ दिया, जिसकी सजा ये आज तक भुगत रहे हैं।


1932 में एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी जॉर्ज मैक्मोन अपनी पुस्तक 'अंडरवर्ल्ड ऑफ इंडिया' में उनके लिए लिखता है " वे एकदम मैले-कुचैले समाज की गंदगी व किसी खेत में घास चर रहे पशुओं के समान हैं! " ब्रिटिश लोगों की इन समुदायों के बारे में यह धारणा शायद समझी जा सकती है, लेकिन यह बात आज भी समझ से परे है कि आजाद भारत के अधिकारी लोग भी इनके साथ वैसा ही तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य देश के लिए और क्या हो सकता है ?


वास्तव में तो यह विमुक्त समुदाय भारत का स्वतंत्रता सेनानी घोषित होना चाहिए था। इन लोगों ने देश की आजादी की लड़ाई चुपचाप लड़ी, अपने साथ-साथ अपने परिवारों की भी बलि दे दी, अपराधी घोषित हो कर नारकीय जीवन जीया, लेकिन हम इतने कृतघ्न निकले कि 15 अगस्त को इनका सम्मान तो दूर एक बहुत बड़े वर्ग को सम्मान के साथ जीने का हक भी नहीं दे पा रहे हैं।


आजादी के 75 वर्ष बाद भी ये फुटपाथ पर या कचरे के ढेरों के पास रहने को मजबूर है। आज भी इनके बच्चे शिक्षा से कोसों दूर है आज भी बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसके पास कोई सरकारी दस्तावेज नहीं हैं। कौन करेगा इनकी चिन्ता ? शासन के द्वारा इनके लिए बनी हुई कल्याणकारी योजनाएँ क्या हैं, इनको पता ही नहीं है।


इस सम्बन्ध में किसी की तो जवाबदेही तय होनी चाहिए। इन लोगों ने जिस समाज की उन्नति के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया वह समाज ही आज इनको हेय मान रहा है, अपनी बस्ती के पास रहने तक नहीं देता।


जिस देश में गिद्ध जैसे पक्षी का भी श्रद्धापूर्वक अपने हाथों अंतिम संस्कार करने की परम्पराएं रही हैं, वहाँ आज इन घुमन्तु विमुक्त समुदाय के लोगों को अपने परिजनों के शव को अंतिम संस्कार के लिए कन्धे पर लेकर इस गांव से उस गांव भटकना पड़ता है। कहाँ चली गयी मानवता ?


केवल शासन को दोष देना पर्याप्त नहीं है, केवल प्रशासन को कोसने से काम नहीं चलेगा। आज आवश्यकता है हम सबको मिलकर विचार करने व सामूहिक प्रयत्न करने की।


कभी इन्होंने अपना धर्म निभाया, आज आवश्यकता है कि हम भी अपना धर्म निभाकर इन्हें सामाजिक सम्मान प्रदान करें।

 
लेखक
 
दुर्गादास