मणिपुर का संघर्ष

बीच की घाटी में रहनेवाले मैतेई हिंदुओं के लिये अलग कानून है। वे एसटी श्रेणी में शामिल नहीं हैं। वे जनरल की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उनकी ज़मीन कोई भी खरीद सकता है, कोई भी रह सकता है। इसी सुविधा के चलते पहाड़ के ईसाई घाटी में भी अपना विस्तार कर रहे हैं और घाटी के लोग अपनी ज़मीन खो रहे हैं।

The Narrative World    11-May-2023   
Total Views |

Representative Image

मणिपुर में अब गृह युद्ध जैसी स्थिति चल रही है। कोई कहता है जनजाति-अजनजाति की लड़ाई है,कोई कुछ और कहता है। लोग अलग-अलग दृष्टिकोण से चीज़ों की व्याख्या कर रहे हैं। पर कुल मिलाकर नुकसान हिंदुओं का ही हो रहा है और ईसाई फ़ायदे में चल रहे हैं।


मणिपुर नाम भी कितना सुंदर है। सच में वह भौगोलिक दृष्टि से 'मणि' की तरह है। चारों तरफ से वह पहाड़ों से घिरा है और मध्य भाग रिवर वेली है। बीच के घाटी का इलाका मैतेई हिंदुओं का है जो गौड़ीय वैष्णव है। बाकी पूरा पहाड़ी क्षेत्र अन्य अनुसूचित जनजातियों का है जो सौ प्रतिशत ईसाई है। तो भौगोलिक दृष्टि से हिंदू छोटे इलाके में चारों ओर से घिरा और दबा हुआ है।


उत्तर और उत्तर-पश्चिम की ओर ज्यादातर नागा ईसाई है और दक्षिण,दक्षिण-पश्चिम तथा पूर्व की ओर सभी कूकी ईसाई है (विभिन्न मिज़ो उप-जनजातीय ईसाइयों के लिये 'कूकी' एक शब्द है)


पहाड़ी क्षेत्र पर रहनेवाले हिल ट्राइब्स के लिये वह ज़मीन ट्राइबल लैंड के तौर पर संरक्षित है जहाँ कोई और ज़मीन नही ले सकता। चूँकि वहाँ सभी ईसाई है तो दूसरे शब्दों में वह ईसाइयों के लिये संरक्षित ज़मीन है। वहाँ हिंदू नहीं घुस सकते।


यही कारण है कि मणिपुर की डेमोग्राफी तेज़ी से बदल रही है। फ़िलहाल वहाँ 49% हिंदू और सन्मही है (ट्राइबल प्रकृति पूजक लोग), 42% ईसाई है और शेष मुसलमान है।


मणिपुरी मुसलमानों को मैतेई पंगल कहा जाता है (मैतेई भाषा में पंगल शब्द का सीधा अर्थ मुसलमान है) वे ज्यादातर मुग़ल सैनिक और स्थानीय महिलाओं से उत्पन्न वंशज है। साथ ही असम के दक्षिण के मुसलमान बहुसंख्यक ज़िलों और बांग्लादेश से गये हुए लोग हैं।


यह है मणिपुर की डेमोग्राफिक स्थिति जहाँ घाटी की केवल 15% ज़मीन पर सन्मही सहित 49% हिंदू और 9% मुसलमान रहते हैं और शेष 80%-85% पहाड़ी क्षेत्र पर 42% ईसाई रहते हैं।


पर मज़े की बात यह है कि जहाँ हिंदू ईसाइयों की जगह पर जाकर नहीं रह सकते पर वे आकर रह सकते हैं। और एक चीज़ होती है। वे ईसाई लोग प्रकृति पूजक जनजातियों को मारकर बाहर भी निकाल देते हैं। वैसे ही एक बार मिज़ोरम की एक प्रकृति पूजक जनजाति को निकाल दिया गया था। उन बेचारों को बाद में त्रिपुरा के हिंदुओं ने अपने संरक्षण में ले लिया था।


अब स्थिति यह है कि धीरे-धीरे पहाड़ी ईसाई और मुसलमान दोनों मिलकर मैतेई हिंदुओं को अपनी ज़मीन से बेदख़ल कर रहे हैं। हर जनगणना में हिन्दुओं की जनसंख्या वहाँ कम होती जा रही है और इसके उलट बाकियों की संख्या बढ़ रही है।


1901 में मणिपुर में हिंदू 96% थे, 1911 में 95%, 1921 में 94%, 1931 में 92%, 1941 में 89%, 1951 में 81%, 1961 में 74%, 1971 में 67%, 1981 में 63%, 1991 में 58%, 2001 में 54%, 2011 में 52% और अब 2021 में 49% रह गये हैं।


स्वतंत्रता के बाद तेज़ी से हिंदू जनसंख्या घटने लगी और अब पचास प्रतिशत से नीचे आ गयी है। यही हाल रहा तो कृष्णभक्त मणिपुर बहुत जल्द ईसा भक्त ईसाई राज्य बन जायेगा। कोई उपाय न किया गया तो यह होकर रहेगा।


अतिक्रमण से बचने के उपाय के तौर पर मैतेई हिंदुओं को भी एसटी श्रेणी में शामिल करने की बात जैसे ही उठी तो गिरजों की अगुआई में हिल ट्राइब्स ईसाइयों का भयंकर विरोध शुरू हो गया और दोनों पक्षों के झगड़े ने दंगे का रूप ले लिया।


मैतेई हिंदू लड़ तो रहे हैं, पर कब तक? ऐसी लड़ाइयों में बाकियों को पीछे से जिस तरह से सुनियोजित और सांगठनिक मदद मिलती है क्या हमें मिलती है? क्या हम एकजुट होते हैं? क्या हमारे पास कोई सुनियोजित कार्यशैली है?