नक्सलियों-माओवादियों की कथित 'जनताना अदालत' और कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा

सबसे पहली बात यह है कि माओवादियों के इस कथित जन अदालत में माओवादी आतंकी संगठन के कई बड़े आतंकी नेता शामिल हुए थे, जिसे इन्होंने छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के सीमावर्ती क्षेत्र में लगाया था। वीडियो जारी कर माओवादियों ने यह संदेश देने का प्रयास किया कि यह तथाकथित जनताना अदालत वाकई में जनता की इच्छाओं से संचालित होती है और इसमें लिया गया हर निर्णय जनता का निर्णय होता है

The Narrative World    18-May-2023   
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एक देश
, दो विधान, जब हम यह सुनते या पढ़ते हैं तो हमें सबसे पहले अनुच्छेद 370 में संशोधन के पूर्व का कश्मीर याद आता है। लेकिन अभी भी देश के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां भारतीय संविधान को धता बताकर अवैध रूप से 'फर्जी अदालत' चलाई जा रही है।


इन फर्जी अदालतों को प्रतिबंधित माओवादी आतंकी संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के द्वारा संचालित किया जा रहा है, जो भारतीय लोकतंत्र, संविधान, गणतंत्र और स्वाधीनता पर विश्वास नहीं करते हैं। इन माओवादी आतंकियों ने भारतीय लोकतंत्र को माओतंत्र में बदलने के लिए बीते कई दशकों से सशस्त्र युद्ध छेड़ रखा है, जिसे ये आतंकी 'क्रांति' के रूप में परिभाषित करते हैं।


खैर, हम बात कर रहे हैं माओवादियों द्वारा चलाए जा रहे फर्जी अदालत की। माओवादी अपने इस फर्जी अदालत को 'जनताना अदालत' का नाम देते हैं, और यही वो स्थान है जहां बिना अपील, दलील और वकील के निर्दोषों को अपनी इच्छा से माओवादी सजा सुना देते हैं।


बीते दशकों से लगातार माओवादी आतंकी अपने इस फर्जी जनताना अदालत के माध्यम से सैकड़ों निर्दोषों की हत्या कर चुके हैं। इस जनताना अदालत को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के द्वारा संचालित किया जाता है और पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (माओवादियों की सशस्त्र इकाई) के द्वारा इसमें निर्दोषों की हत्या की जाती है।


माओवादी आतंकियों ने अपने इस फर्जी अदालत का बीच-बीच में कुछ विडियो भी जारी करते हैं, जिसमें ऐसा दिखाया जाता है कि माओवादी ग्रामीणों की सलाह के बाद अपना फ़ैसला सुना रहे हैं।


माओवादियों द्वारा जारी किए गए ऐसे ही एक वीडियो में माओवादियों का कहना था कि जिस व्यक्ति को उन्होंने बांधकर रखा था वह पूर्व में माओवादी रह चुका है और सरेंडर कर मुख्यधारा से जुड़ चुका है, लेकिन वह पुलिस मुखबिरी में लगा हुआ है। इसी कथित मुखबिरी के आरोप में माओवादियों ने उसका अपहरण कर लिया था और उसे जंगल में अपने साथ लेकर चले गए थे।


वीडियो के माध्यम से माओवादियों ने ऐसा दिखाने का प्रयास किया था कि ग्रामीणों की मांग पर माओवादी आतंकियों ने बंदी बनाए गए पूर्व माओवादी को रिहा करने का फैसला लिया है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन सब के पीछे एक बड़ा प्रोपेगैंडा वॉर है, जिसे समझना आवश्यक है।


सबसे पहली बात यह है कि माओवादियों के इस कथित जन अदालत में माओवादी आतंकी संगठन के कई बड़े आतंकी नेता शामिल हुए थे, जिसे इन्होंने छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के सीमावर्ती क्षेत्र में लगाया था। वीडियो जारी कर माओवादियों ने यह संदेश देने का प्रयास किया कि यह तथाकथित जनताना अदालत वाकई में जनता की इच्छाओं से संचालित होती है और इसमें लिया गया हर निर्णय जनता का निर्णय होता है।


यदि ऐसा है तो माओवादियों ने इस्घ्त्ना से पूर्व तीन जनजाति नागरिकों की हत्या अपने इस फर्जी जनताना अदालत में की थी तब उन्होंने वीडियो जारी क्यों नहीं किया था? सिर्फ इतना ही नहीं, जब बिहार में दो ग्रामीण दंपति (4 सदस्य) को तथाकथित जनताना अदालत के फैसले के बाद फांसी पर लटका दिया था, तब इस फर्जी अदालत का वीडियो क्यों सामने नहीं आया?


गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार इससे पूर्व भी वर्ष 2013 से 2015 के बीच माओवादियों ने अपने इस फर्जी जनताना अदालत के माध्यम से 53 लोगों की हत्या की थी। माओवादियों ने इन हत्याओं को 5 राज्यों में अंजाम दिया था।


यदि वर्षवार आंकड़ों की बात करे तो वर्ष 2013 में माओवादियों ने विभिन्न विषयों को लेकर 63 फर्जी जन अदालत लगाए थे जिनमें उन्होंने 20 लोगों की हत्या का फरमान सुनाया था। इसके अलावा वर्ष 2014 में 54 फर्जी जन अदालतों में 15 लोगों की हत्या की गई और वर्ष 2015 में 41 जन अदालतों में 18 निर्दोषों को माओवादियों ने मौत के घाट उतार दिया था। ये सभी तथाकथित जन अदालतें छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा और आंध्रप्रदेश में लगाई गई थी।


अब एक बात विचार कीजिए कि आखिर किसी भी कथित जनताना अदालत में माओवादियों द्वारा हत्या का आदेश देने वाले मामले का कोई वीडियो बाहर आया क्या? इसका उत्तर है, नहीं! लेकिन इसका कारण क्या है? दरअसल इसके पीछे कार्य करता है माओवादी-कम्युनिस्ट तंत्र का प्रोपेगैंडा वॉर।


माओवादी आतंकी अपने जनताना अदालत को भारत सरकार, भारतीय संविधान और भारतीय न्यायपालिका के समानांतर स्थापित करना चाहते हैं, जो कि एक असंवैधानिक प्रक्रिया है। इस क्रम में अपनी असंवैधानिक गतिविधियों को सही ठहराने के लिए माओवादी कथित 'जन' का सहारा लेते हैं।


अपने प्रभावी क्षेत्र में माओवादी अपनी प्रणाली या व्यवस्था को 'जनताना सरकार' कहते हैं, अपने आतंक को न्यायोचित ठहराने के लिए उसे 'जनयुद्ध' या 'जनक्रांति' कहते हैं, और इसी तरह अपने असंवैधानिक फर्जी अदालत को माओवादी 'जनताना अदालत' का नाम देते हैं, ताकि इसे जनता की अदालत के रूप में पेश किया जा सके।


लेकिन सच्चाई यही है कि माओवादी आतंकियों द्वारा चलाए जा रहे इस फर्जी जनताना अदालत में जनता की कोई भागीदारी नहीं होती। माओवादी भ्रम फैलाने के लिए भय एवं दबाव की प्रक्रिया को अपनाकर इसमें ग्रामीणों को शामिल करते हैं, जिससे उनके दो उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है, पहला तो यह है कि माओवादियों के इस फर्जी अदालत में ग्रामीणों के शामिल होने से इसे 'जन समूह का अदालत' कहना आसान हो जाता है, और दूसरा यह है कि ग्रामीणों के भीड़ के बीच में छोटे-बड़े माओवादी आतंकी आसानी से छिप जाते हैं, जिसके कारण उनकी पहचान नहीं हो पाती।


इसके अलावा यदि पुलिस या सुरक्षाबलों को इस जनताना अदालत का क्षेत्र पता भी चल जाए तो भी ग्रामीण नागरिकों की उपस्थिति को देखते हुए सुरक्षाबल या पुलिसकर्मियों के लिए किसी भी तरह का ऑपरेशन चलाना आसान नहीं होता, जिसका फायदा भी माओवादियों को मिलता है।


दरसअल माओवादियों के द्वारा चलाए जा रहे प्रोपेगैंडा वॉर में 'परसेप्शन' का अत्यधिक महत्व है, कि आखिर उनके द्वारा प्रसारित किए जा रहे सामग्रियों में वो क्या संदेश देना चाहते हैं। माओवादी अपने कथित 'जनताना अदालत' को बार-बार न्यायोचित ठहराने का प्रयास करते हैं, लेकिन सच्चाई हर बार सामने आ ही जाती है।


माओवादियों के द्वारा चलाए जाने वाले इस फर्जी जन अदालत को अंग्रेजी में 'कंगारू कोर्ट' कहा जाता है, यदि हम इसकी परिभाषा को ही समझ लें तो माओवादी आतंकी संगठन के द्वारा चलाए जा रहे इस फर्जी अदालत को समझा जा सकता है।


कंगारू कोर्ट की परिभाषा है, एक ऐसा कोर्ट जो अनुचित, पक्षपाती है और जो ऐसे व्यक्तियों द्वारा संचालित किया जा रहा है जिन्होंने कानून को अपने हाथ में ले लिया है, और यह उस समूह के द्वारा किया जा रहा है जिसके नेतृत्वकर्ता नकली, भ्रष्ट और कानून की परवाह नहीं करते।


अब आप समझ सकते हैं कि माओवादियों के द्वारा संचालित यह फर्जी जनताना अदालत वास्तविकता में आतंकी संगठन का एक टूल है, जिसके माध्यम से वो अपनी आतंकी गतिविधियों को सही ठहराने का प्रयास करते हैं।


इसके अलावा इस जनताना अदालत के पीछे का विचार भी समझना आवश्यक है। दरअसल भारत में माओवादी जिस विचार का अनुसरण करते हैं, वह लोकतंत्र विरोधी, गणतंत्र विरोधी, तानाशाही, अधिनायकवादी और सत्तालोभी होने के साथ-साथ रक्तपिपासु विचारधारा है।


भारत के ये तथाकथित नक्सली, असल में चीनी कम्युनिस्ट तानाशाह माओ ज़ेडोंग के विचारों का अनुसरण करते हैं, इसीलिए इन्हें माओवादी कहा जाता है। माओ के विचार में लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं है, एवं माओ ने अपने कार्यकाल के दौरान अपने सभी विरोधियों की या तो हत्या करवा दी थी, या उन्हें जेल में बंद करवा दिया था। इसके अलावा माओ ने विचार दिया था कि 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।'


वर्तमान में भारत के नक्सली-माओवादी इसी विचार का अनुसरण करते हुए बंदूक का उपयोग कर भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को उखाड़ फेंक माओवादी शासन की स्थापना करना चाहते हैं, और यह जनताना अदालत उसी माओ शासनतंत्र प्रणाली का एक हिस्सा है।