'डेड सी' यानि 'मृत सागर' के उत्तरी किनारे से लगभग 18 मील दूर पश्चिम की पहाड़ पर एक शहर ईसा मसीह से लगभग 3500 साल पहले एक बस्ती रूप में बसा था। हिब्रू भाषा में इस शहर को कहा गया 'येरु-शालेम' (यानि अमन का क्षेत्र)। बाद में यही 'येरुशलेम' हो गया।
जब 'डेविड' (ईस्वी पूर्व 1010 से 970) 'इजरायल' के शासक बने तब उन्होंने इस शहर को 'इजरायल' की राजधानी बनाई और उनके बेटे 'सुलेमान' ने इस शहर को बहुत विकसित कर दिया और इस नगर की पूर्वी पहाड़ी पर अपना एक महल और 'प्रभु येहोवा' का एक मंदिर बनाया।
लेकिन वर्तमान में इसकी स्थिति यह है कि पहाड़ियों पर लगभग 35 एकड़ में एक मजहबी आयताकार परिसर फैला है, जिसे यहूदी 'टेम्पल माउंट' कहते हैं और मुसलमान मस्ज़िद-अक्सा कहते हैं। इसके अलावा इस परिसर पर ईसाईयों का भी दावा है।
दो वर्ष पूर्व इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच हुए विवाद में अल-अक्सा मस्ज़िद के नाम से स्थित इस मजहबी स्थल की महत्वपूर्ण भूमिका थी। दरअसल मजहबी अनुयायियों के लिए यह मस्जिद एक पवित्र स्थल है लेकिन यह पवित्र स्थल ठीक उसी पवित्रतम स्थल के नजदीक है जिसे इजराइल के बहुसंख्यक यहूदी समुदाय अपने आराध्य देव की स्थली मानते हैं।
यहूदियों का दावा इस पूरी जमीन (इजरायल) पर है, क्योंकि उनके धार्मिक ग्रंथ 'तौरात' के अनुसार ये पूरी भूमि अब्राहम के छोटे बेटों के संतानों की है और ये क्षेत्र 'प्रतिश्रुत भूमि' है, जिसे इसहाक़ के बेटे याकूब (जैकब) के 12 बेटों ने बसाया था।
'यहूदी' मानते हैं कि इसी 'टेम्पल माउंट' की जगह की मिट्टी लेकर 'येहोवा' ने 'एडम' को बनाया था, फिर 'अब्राहम' के छोटे बेटे 'इसहाक़' की क़ुरबानी वाली घटना इसी पहाड़ी की जगह पर हुई थी और यह जगह 'येहोवा' के द्वारा चिन्हित था और इसी की स्मृति में 'डेविड' के बेटे 'सोलोमन' ने लगभग 1,000 ईसापूर्व में यहां एक भव्य मंदिर बनवाया था। 'यहूदी' इसे 'फर्स्ट टेम्पल' कहते हैं।
दरअसल यहां प्राचीन काल में बने दो मंदिर अवस्थित हैं। इस्लाम की शुरुआत से सैकड़ों वर्ष पहले बाइबिल के अनुसार पहले मंदिर को किंग सुलेमान ने बनवाया था। ईसा पूर्व 586 में बेबिलोनियन सभ्यता के शासकों ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया। फिर उसके बाद जब यहूदी दोबारा मजबूत हुए तो उन्होंने 516 ईसापूर्व में इसी जगह पर एक और मंदिर बनाया और उस मंदिर को नाम दिया "सेकेंड टेम्पल"।
इस मंदिर के अंदरूनी हिस्से को यहूदी कहते थे- "होली ऑफ़ होलीज", अर्थात पवित्रतम जगह। इसमें केवल बड़े रब्बी ही प्रवेश कर सकते थे।
63 ईसवी में रोमी सेनापति 'पोम्पेय' ने 'जेरुसलेम' पर हमला कर उसे अपने अधीन कर लिया और फिर सन 70 ईसवी में रोमी गवर्नर 'टाईटस' ने 'सेकेण्ड टेम्पल ऑफ़ सोलोमन' को तोड़ दी और न सिर्फ तोड़ी बल्कि रोमनों ने कहा कि ये येरुसलेम ही मसला है इसलिए इस शहर का नाम-ओ-निशान ही मिटा देंगे और इसी के तहत उस 'जियान पर्वत' पर जुपिटर देवता की मूर्ति स्थापित की गयी और येरुशेलम का नाम बदलकर रख दिया "एलिया कैपिटोलिना"।
इसके बाद इसी ‘जेरुसलेम’ में 325 ईसवी में सम्राट 'कौन्सटेटाइन' ने उनके पवित्र पहाड़ी पर "चर्च ऑफ़ होली सिप्लचर' बनवा दिया गया। इसके बाद पहली सदी में रोमन शासक ने एक बार पुनः इस मंदिर को तोड़ दिया।
सन 70 ईसवी में हुई तोड़-फोड़ के बाद यहूदियों के लिए वहां केवल एक दीवार बची रही रही, जो आज भी मौजूद है और जिसे "वेस्टर्न वाल" के नाम से जाना जाता है। ये दीवार 'होली ऑफ़ द होलीज सेकेंड टेम्पल' के बाहरी अहाते का हिस्सा मानी जाती है।
चूँकि मंदिर तोड़ दी गयी और उसका कोई नक्शा उपलब्ध नहीं था, तो इस भय से यहूदी आज भी मंदिर के अंदर के हिस्से में नहीं जाते और गलती से भी वहां प्रवेश नहीं करते कि कहीं पवित्र आज्ञा भंग न हो जाये, इसीलिए आप देखते होंगे कि यहूदी इसी वेस्टर्न वाल के पास चिपककर प्रार्थना करते हैं।'
इसे ऐसे समझिए कि यहूदी आज लगभग 1900 साल बाद भी अपने पवित्र मंदिर से दूर हैं। 1967 में 5-10 जून तक चले अरब इजरायल युद्ध के बाद वहां के पूर्व प्रधानमंत्री "बेन गुरियन" पहली बार अश्रु दीवार (दीवार-ए-गिरिया) पर गये और लिपटकर रोने लगे और कहा - "आज मेरा जीवन पूर्ण हुआ, आज हमारा स्वप्न पूर्ण हुआ।"
लेख
अभिजीत सिंह
लेखक, स्वतंत्र विचारक