चीन की षड्यंत्रकारी साम्राज्यवादी नीतियां

बीते एक शताब्दी में अति वामपंथी विचारधारा पर चलने वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की अगुवाई में चीनी वामपंथी सरकार ने रक्तपात के बलबूते सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के अतिरिक्त अपने साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की अभीपूर्ति पर ही सबसे अधिक बल भी दिया है।

The Narrative World    10-Jun-2023   
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वामपंथी विचारधारा के मूल में साम्राज्यवाद सदैव ही निहित रहा है। पिछले एक दो दशकों में चीन की बढ़ती शक्ति के साथ यह विश्व के सामने प्रतिलिक्षित भी हुआ है।


बीते एक शताब्दी में अति वामपंथी विचारधारा पर चलने वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की अगुवाई में चीनी वामपंथी सरकार ने रक्तपात के बलबूते सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के अतिरिक्त अपने साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की अभीपूर्ति पर ही सबसे अधिक बल भी दिया है।


हालांकि इस संदर्भ में बड़ी समस्या यह है कि चीन की यह साम्राज्यवादी नीति किसी एक तानाशाह, किसी विशेष कालखंड अथवा किसी एक क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं है, अपितु मूल रूप से यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सतत रूप से चलने वाली अघोषित नीति है, जिसकी जद में पूरा विश्व है।


यहां अघोषित से आशय यह है कि औपचारिक रूप से चीन स्वयं को एक संप्रभु समाजवादी राष्ट्र मानता है, जबकि चीन की सरकार यानी कि सीसीपी जिस वामपंथी विचारधारा की पैरोकारी करती है उसमें राष्ट्र जैसी कोई अवधारणा तो है ही नहीं।


इसे विरोधाभास अथवा विशिष्ट व्यवस्था का नाम देना, जैसा कि चीन के वर्तमान तानाशाह शी जिनपिंग दुहराते रहते हैं, भी किसी छलावे से ज्यादा और कुछ भी नहीं और मूल रूप से पार्टी का उद्देश्य प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष से विश्व भर में वामपंथी विचारधारा के नाम पर अपनी साम्राज्यवादी नीतियों का प्रसार ही है।


अब गंभीर समस्या यह है कि हालिया कुछ वर्षो से चीनी तानाशाही व्ययस्था की ये नीतियां वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए गंभीर चुनौती बनकर उभरी है, जो अफ्रीका से लेकर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र एवं श्रीलंका से लेकर कैरिबियन राष्ट्रों तक को प्रभावित कर रहा है।


इस क्रम में चीन की सत्ता व्यवस्था सुदूरवर्ती छोटे छोटे राष्ट्रों में कर्ज जाल की नीति, सैन्य अड्डों की स्थापना से लेकर पड़ोसी राष्ट्रों के साथ सैन्य अतिक्रमण एवं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से टकराव से भी बाज़ नहीं आ रही।


हालांकि चीन इन टकरावों को बड़ी ही धूर्तता से द्विपक्षीय संबंधों का हवाला देकर छोटा मोटा विवाद बताते आया है जबकि वास्तविकता यही है कि यह विषुद्ध रूप से विश्व भर में वामपंथी विचारधारा की स्थापना की कवायद का ही हिस्सा है।


इसे ऐसे समझे कि जहां एक ओर चीन द्वारा अफ्रीका के कई छोटे-छोटे राष्ट्रों को अपनी कर्ज जाल की नीति में फंसाया गया है, तो वहीं निवेश रूपी कर्ज की इस नीति की जद में पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं म्यांमार जैसे कई उपमहाद्वीपीय राष्ट्र भी हैं।


चीनी कर्ज नीति से प्रभावित होकर द्वीपीय राष्ट्र श्रीलंका की स्थिति तो जगजाहिर ही है, इसके अतिरिक्त मालदीव और नेपाल जैसे छोटे राष्ट्रों में भी चीन अपना प्रभुत्व बनाने का पुरजोर प्रयास कर रहा है।


इसके अतिरिक्त वैश्विक आपूर्ति कड़ी के लिए बेहद महत्वपूर्ण समझे जाने वाले हिंद प्रशांत क्षेत्र में एकल आधिपत्य की नीति पर आगे बढ़ते हुए चीन प्रशांतीय राष्ट्रों में भी निवेश रूपी कर्ज एवं द्विपक्षीय संबंधों के माध्यम से अपने लिए संभवानाएं तलाश रहा है।


सोलोमन आइलैंडस के साथ हुआ समझौता एवं प्रशांतीय राष्ट्रों के साथ हुई वार्ता चीन की इसी कवायद का भाग है।


इन छोटे छोटे राष्ट्रों में कर्ज जाल की नीति से चीन का उद्देश्य इन राष्ट्रों की संप्रभु भूमि को अपनी सैन्य महत्वाकांक्षा के लिए उपयोग करने की है, ताकि आवश्यकता पड़ने पर चीन इन राष्ट्रों में स्थापित किए गए अपने सैन्य अड्डो का उपयोग उसे चुनौती देने वाली शक्तियों के विरुद्ध कर सके।


यही कारण है कि प्रशांतीय क्षेत्र में चीन का बढ़ता हस्तक्षेप ऑस्ट्रेलिया एवं छोटे छोटे लोकतांत्रिक राष्ट्रों की संप्रभुता के लिए प्रत्यक्ष चुनौती बनकर उभरा है।


इन सुदूरवर्ती क्षेत्रो में चीनी साम्राज्यवादी व्यवस्था जनित समस्याओं के अतिरिक्त चीन अपने पड़ोसी राष्ट्रों की संप्रभुता के लिए भी उतनी ही बड़ी चुनौती बनकर उभरा है।


इस क्रम में अगर अपवाद स्वरूप कुछ राष्ट्रों को छोड़ दें तो चीन ने भूटान, जापान, वियतनाम समेत कई राष्ट्रों को सीमा विवाद में उलझाए रखा है।


इसके अतिरिक्त दक्षिण चीन सागर या ताइवानी जलडमरूमध्य क्षेत्र में फिलीपींस, इंडोनेशिया, ब्रुनेई जैसे छोटे छोटे संप्रभु राष्ट्रों के साथ भी चीन अपनी दादागिरी दिखाते ही रहता है।


भारत के संदर्भ में बात करें तो बीते वर्षों से पूर्वी लद्दाख में दोनों राष्ट्रों की सेनाएं आमने सामने खड़ी हैं, जिस को लेकर विभिन्न दौरों की सैन्य वार्ता के बावजूद कोई ठोस समाधान नहीं निकला है।


विशेषज्ञों की माने तो चीन का प्रयास इस विवाद को और लंबा खींचने एवं मौका देखकर सीमित युद्ध के माध्यम से संप्रभु भारतीय भूमि अधिग्रहित करने का है।


वार्ता के इतर सीमा पर चीन की हरकतें इस ओर संकेतित भी करती हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि जहां एक ओर चीन सैन्य वार्ता के माध्यम से विवाद सुलझाने की बात कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर चीन धड़ल्ले से सीमाई क्षेत्रों में आधारभूत संरचनाओं का निर्माण कर रहा है।


इस संदर्भ में भारत दौरे पर आए अमेरिकी सैन्य कमांडर ने भी भारतीय सेना प्रमुख से भेंट के उपरांत मीडिया से बात करते हुए कहा था कि सीमा पर चीन द्वारा किए जा रहे आधारभूत संरचनाओं का निर्माण बेहद चिंताजनक है। इसके अतिरिक्त यह भी जानकारी है कि चीन द्वारा पूर्वी लद्दाख से लगती हुए अपने होटन एयरबेस पर अत्याधुनिक युद्धक विमानों की तैनाती भी की गई है।


भारत के अतिरिक्त चीन लंबे समय से विवाद का केंद्र रहे ताइवान पर भी हालिया कुछ वर्षो में बेहद आक्रामक दिखाई दिया है। हालिया दिनों में ताइवान को लेकर चीनी सरकार द्वारा जारी किए गए बयान भी इसी ओर इशारा करते हैं कि ताइवान को लेकर चीन की तैयारी किसी भी तरह उसके जबरन अधिग्रहण की ही है।


इसके अतिरिक्त चीन वैश्विक स्तर पर अपनी धाक मजबूत करने को कैरिबियन देशों से लेकर छोटे छोटे यूरोपीय राष्ट्रों पर भी डोरे डाल रहा है।


पाकिस्तान के माध्यम से अरब राष्ट्रों एवं तालिबान के साथ उसकी संलिप्तता की गुप्त नीति की परतें तो धीरे धीरे सामने आ ही रही है।


इसके अतिरिक्त इस्लामिक कटटरपंथियों के माध्यम से लोकतांत्रिक राष्ट्रों में अराजकता के निर्माण को लेकर भी चीन की संलिप्तता उजागर हुई है।


कुल मिलाकर चीन अपनी साम्राज्यवादी नितियों की अभिपूर्ती के लिए यथासंभव प्रयास कर रहा है जिसके लिए उसने सैन्य सशक्तिकरण, कर्ज जाल की नीति एवं रूस की सहायता से गुटीय राजनीति की समावेशी राह चुनी है।


इसका अंतिम उद्देश्य स्वयं को महाशक्ति के रूप में उभारकर विश्व मे अतिवादी वामपंथी व्यवस्था को स्थापित करने का है। इसलिए यह बेहद आवश्यक है कि चीन एवं उसके साथ दूसरे राष्ट्रों के साथ चल रहे विवादों को वैश्विक खतरे की तरह ही पहचाना जाए किसी द्विपक्षीय विवाद की तरह नहीं।