पुरातन संस्कृति के अनुसार वर्ण व्यवस्था जरूरी या नहीं?

20 Jun 2023 09:48:04

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वर्ण व्यवस्था को लेकर जिस तरह से तथाकथित समाज सुधारक, वामपंथी और पाश्चात्य संस्कृति के पैरोकारों ने चोट करते हुए सुनियोजित षड़यंत्र रचकर सनातन संस्कृति को तोड़ने का कुत्सित प्रयास किया, काफी हद तक वे सफल भी हो गए।


आज स्थिति ये है कि भारतवर्ष में समानता के अधिकार का दावा करने वालों ने वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। दरअसल वर्ण व्यवस्था के महत्व और अनिवार्यता पर किसी ने न तो कोई चिंतन किया और न ही ये जानने की कोशिश की।


जबकि वास्तविकता ये है कि शूद्र वर्ण समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था का आधार है, जिनके बिना समाज गतिमान नहीं हो सकता। इसीलिए शूद्र वर्ण पूरी वर्ण व्यवस्था का आधार भी है और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भी।


जिस तरह से वर्ण व्यवस्था रही, समाज के हर एक व्यक्ति को समानता का अधिकार मिला। इसी वर्ण व्यवस्था पर आपत्ति जताते कतिपय लोगों ने गहरा आघात किया। ये वो लोग थे, जिन्हें सनातन संस्कृति और समाज की एकजुटता को तोड़ना था।


हम अपने शरीर को एक समाज मानकर वर्ण व्यवस्था को समझने का प्रयास करें तो इसे समझने में आसानी होगी। वर्ण व्यवस्था ने जिस तरह से हमारे सामाजिक ढांचे को बनाकर रखा था, हर वर्ग व वर्ण समान रूप से सम्मानित होता रहा। एक वर्ण दूसरे के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता था।


शरीर रूपी समाज से वर्ण व्यवस्था को ऐसे समझते हैं :


ब्राह्मण - हमारा मस्तिष्क या हमारा सिर, जिसे थिंक टैंक माना जाता है। यहां हर कंस्ट्रक्टिव या विकासवादी सोच विकसित होती है। भगवान के पूजन से लेकर परोपकार की भावना तक मस्तिष्क में ही पैदा होती है।


क्षत्रिय - हमारे दोनों हाथ, जिनसे हम कर्म करते हैं। हमारे हाथ ही परिवार का पालन-पोषण और सुरक्षा एक क्षत्रिय की भांति करते हैं। जैसे क्षत्रिय वर्ण समाज या देश की सुरक्षा का प्रतीक हैं, वैसे ही हमारे हाथ भी हमारे शरीर रूपी समाज की रक्षा करते हैं।


वैश्य - हमारा पेट, जिसके लिए हम अपने शरीर के पोषण के लिए भोजन ग्रहण करते हैं, जो हमें ऊर्जा देता है। वैश्य वर्ण समाज में अर्थव्यवस्था के संतुलन को बनाए रखता है, वैसे ही हमारा पेट भी शरीर की अर्थव्यवस्था यानि हमारी ऊर्जा को बनाए रखता है।


शूद्र - हमारे दोनों पैर, जिससे हम चलते-दौड़ते हैं। हमें गतिमान रखने में हमारे पैर पूरे शरीर का आधार होते हैं। शूद्र वर्ण पूरे समाज को स्वच्छ बनाए रखने वाले कर्मवीर होता है, जो पूरे समाज का आधार भी है और पूरे समाज को गतिमान बनाए रखने के लिए लगातार काम करता है।


पिछले कुछ दशकों में समाज में शूद्र वर्ण को तुच्छ बताकर उन्हें समानता का दर्जा देने पर विवाद चलता रहा है, निश्चित रूप से ये कुछ वामपंथियों द्वारा छेड़ा गया। वामपंथियों की विचारधारा फैलाकर उन्होंने शूद्र वर्ण को तुच्छ बता दिया और किसी को आपत्ति भी नहीं हुई।


ये सनातन संस्कृति को तोड़ने का कुत्सित प्रयास रहा, लेकिन ये बात समाज के लोग समझ ही नहीं पाए। यदि हम पुरातन सनातन संस्कृति के मर्म को समझें तो हमें समझ आएगा कि वर्ण व्यवस्था क्यों बनाई गई थी। ये समझ विकसित होने के साथ ही वर्ण व्यवस्था पर विवाद भी समाप्त हो जाएगा।


पूरी वर्ण व्यवस्था पर नजर डालें तो सबसे महत्वपूर्ण वर्ण शूद्र ही है। ये वो वर्ण है, जिनके पास समाज को स्वच्छ रखने का जिम्मा था। वामपंथियों व तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपना एजेंडा साधने समाज में फैली गंदगी को केवल मल-मूत्र से हो जोड़कर प्रस्तुत किया, जबकि वास्तविकता ये है कि समाज में फैली वैचारिक, सामाजिक और भौतिक अशुद्धि को दूर करने शूद्र वर्ण ही आगे आया था।


उन्होंने इस कर्म तो तब अपनाया, जब समाज में भीषण गंदगी फैल गई थी। शूद्र वर्ण की व्याख्या ही तथाकथित बुद्धिजीवियों ने गलत तरीके से की और कुछ वर्षों पहले तक कांग्रेस की सरकार ने भी जमकर हवा भी दी।


वास्तविकता यही है कि सनातन संस्कृति में शूद्र वर्ण को वही सम्मान दिलाया, जो ब्राह्मण को मिला। ये एक व्यवस्था थी कि किसी त्योहार, मांगलिक कार्य, शोक कार्य आदि में शूद्र वर्ण के प्रतिनिधि की उपस्थिति के बिना कई रस्में, कई विधान पूरे ही नहीं किए जा सकते थे। आज भी कई समाजों में ये परंपरा कायम है।


आयोजन-अनुष्ठानों में उनके सम्मिलित होने का आभार मानकर स्नेह-सम्मान सहित भेंट देने की व्यवस्था थी। वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है और उन्हें उचित सम्मान देने की व्यवस्था भी सनातन संस्कृति में मौजूद है, लेकिन कुछ तथाकथित समाज सुधारकों ने शूद्रों को समाज से अलग जता दिया। शूद्र कभी भी दीन-हीन और समाज से अलग थे ही नहीं।


अंत में यही कहूंगा कि जिस तरह से वर्ण व्यवस्था को पुरातन सनातन संस्कृति ने विकसित किया था, उसे वापस उसी व्यवस्था में लेकर आना जरूरी है। वर्ण व्यवस्था को वापस लेकर आना इसीलिए जरूरी है। समाज में समानता का भाव तभी पैदा होगा, जब सभी वर्णों को समान रूप से सम्मान मिले।


लेख


ऋषि भटनागर
स्तंभकार, जगदलपुर

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