आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौतियां

किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार से हो सकता है, लेकिन जब राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा बाहर से होता है तो यह पूर्ण रूप से राष्ट्रीय रक्षा के क्षेत्र में आता है। वहीं आंतरिक खतरा, देश के भीतर की सुरक्षा क्षेत्रों से संबंधित होता है।

The Narrative World    30-Jun-2023   
Total Views |

Representative Image
किसी भी राष्ट्र के जन्म के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रक्रिया का भी जन्म होता है, जो राष्ट्र के प्रत्येक पहलू से संबंधित होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा से तात्पर्य राष्ट्र की एकता, अखंडता, संप्रभुता एवं नागरिकों के जीवन एवं उनकी संपत्ति की रक्षा करने से है, जिसको सशस्त्र सेनाओं के द्वारा पूरा किया जाता है।


किन्तु किसी भी राष्ट्र को तभी सुरक्षित कहा जा सकता है जब वह आंतरिक खतरों से भी पूर्णतः अवमुक्त हो। यह उस स्तर के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है जहाँ राष्ट्र राष्ट्रीय आकांक्षाओँ के मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं से निपटने में सक्षम हो जाता है।


किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार से हो सकता है, लेकिन जब राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा बाहर से होता है तो यह पूर्ण रूप से राष्ट्रीय रक्षा के क्षेत्र में आता है। वहीं आंतरिक खतरा, देश के भीतर की सुरक्षा क्षेत्रों से संबंधित होता है।


भारत एक विशाल संघीय राष्ट्र है, जो अनेक संस्कृतियों को अपने में संजोए हुए है। यहाँ भिन्न-भिन्न जातियों, धर्मों, भाषाओं को बोलने वाले लोग निवास करते हैं। आजादी के बाद भारत एक संप्रभु, सशक्त केंद्रीय सरकार द्वारा शासित राष्ट्र है जहाँ केंद्र एवं राज्यों के मधुर संबंध से राष्ट्र की एकता को बल मिलता है।


परन्तु राष्ट्र की विशालता एवं प्रांतों के विकास का स्तर अलग-अलग होने से मूल्यों में विभिन्नता स्वाभाविक है। ऐसे में जब राज्य एवं केंद्र की विचारधाराएं विरोधी होती हैं, तो जिस क्षेत्र के लोगों को भेदभाव का अहसास होता है, वहाँ के लोगों में असंतोष की भावना का जन्म होना अनिवार्य है।


इस असंतोष को बढ़ावा देने में हमारी राजनैतिक व्यवस्था एवं चुनाव प्रक्रिया मुख्य रूप से उत्तरदायी है। असंतोष का प्रमुख कारण सिद्धांतविहीन राजनीति भी है, क्योंकि राजनीतिज्ञ चुनाव जीतने के लिये एवं सत्ता प्राप्त करने के लिए अदूरदर्शिता पूर्ण नीति अपनाते हैं


देश की एकता एवं अखंडता पर ध्यान न देकर जन-मानस की संवेदनशील भावनाओं को उद्वेलित करते हैं। साथ ही साप्रदायिकता एवं क्षेत्रीयता जैसी भावनाओं को भड़का कर चुनाव जीतने का प्रयास करते हैं। जनमानस की यही असंतोष की भावना राष्ट्र के लिए गंभीर खतरा पैदा कर देती है।


देश की आंतरिक सुरक्षा को आज जिस एक आंदोलन से सबसे बड़ी चुनौती मिल रही है, वह है- नक्सलवाद। नक्सलवाद का जन्म साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन से हुआ।


धीरे-धीरे चारू मजूमदार और कानू सान्याल जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के नेतृत्व में नक्सलवाद का विस्तार पूरे पश्चिम बंगाल में हुआ, लेकिन सत्तर के दशक के दमन और राज्य में वामपंथी पार्टियों के सत्तारूढ़ होने के बाद भूमि सुधार कार्यक्रम के लागू होने के साथ ही आंदोलन पड़ोसी राज्यों में भी अपने पैर पसारता चला गया और आज देश के दर्जन भर से अधिक राज्यों में नक्सलवादी गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं जो राष्ट्र के लिए सिरदर्द बनी हुई है


प्रभावित राज्यों में कई तरह की समितियाँ व टास्क फोर्स गठित जा चुकी हैं और प्रभावित राज्यों के लिए कई विकास योजनाएँ प्रारम्भ की गई हैं, लेकिन स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।


आंतरिक सुरक्षा को एक और बड़ी चुनौती देश में लगातार बढ़ रही क्षेत्रवादी प्रवृत्ति से मिल रही है। क्षेत्रीयता का तात्पर्य उन प्रवृत्तियों सें है जिसके अंतर्गत विभिन्न भाषायी, जातीय व क्षेत्रीय समुनय राजनैतिक प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से स्वायत्तता की माँग करते हैं।


भारत में मुख्य रूप से असम, नागालैंड, मिजोरम, पंजाब तथा जम्मू-कश्मीर राज्य मुख्य रूप से क्षेत्रीय आंदोलनों में प्रभावित रहे हैं। स्वाधीनता के पश्चात सन् 1950 के प्रारम्भिक दशक में कुछ सीमित क्षेत्रों में ही क्षेत्रीय अलगाववाद की प्रवृत्ति देखी गयी। सर्वप्रथम पूर्वोत्तर भारत में नगा विद्रोहियों ने अलग राज्य की स्थापना हेतु विद्रोह किया, उसके पश्चात मद्रास में विशाल आन्ध्रा आंदोलन तथा द्रविड मुनेत्र कषगम का पृथक्‌वादी आंदोलन हुआ तथा अकाली दल ने इस तरह का विद्रोह किया कि स्वहित के स्थान पर राष्ट्रहित को ताक पर रख दिया गया और हमारी राष्ट्रीय अखंडता खतरे में पड़ गयी।


धीरे-धीरे इन आंदोलनों की सीख अन्य राज्यों में फैलती गयी और ये आंदोलन हिंसक रूप लेने लगे। हरियाणा और पंजाब के बंटवारे के साथ-साथ पूरा असम भी छोटे-छोटे अनेक राज्यों में विभक्त हो उठा। तत्पश्चात् उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, बिहार से झारखंड और मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ को अलग राज्य दिये जाने की माँग भी जोर पकड़ती रही, जिसके लिये व्यापक जन आंदोलन चलाया गया।


जगह-जगह तोड-फोड़ एवं बद का रास्ता अपनाया गया। यही नहीं सरकारी संपत्ति को भी नुकसान पहुंचाया गया तथा आंदोलनकारियों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। ज्ञातव्य है कि आंदोलन को क्षेत्रीय दल बराबर समर्थन देते रहे।


लंबे संघर्ष के बाद उत्तरांचल, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य अस्तित्व में आये। उग्र क्षेत्रवाद के कारण विभिन्न क्षेत्रों के मध्य तनाव व टकराव पैदा होता है। यह भावना राष्ट्रीय एकता के विकास में एक प्रबल विरोधी तत्व ही नहीं, अपितु देश में व्यापक अराजकता के लिए उत्तरदायी है।


बंगाल बंगालवासियों के लिए, महाराष्ट्र महाराष्ट्रवासियों के लिए, गुजरात गुजरातवासियों के लिए, उत्तराखण्ड उत्तराखण्डवासियों के लिए झारखंड झारखंडवासियों के लिए जैसे नारे, देश के अमन चैन के लिए खुली चुनौती हैं।


दूसरी तरफ असम में बांग्लादेशी शरणार्थियों की हो रही घुसपैठ ने यहाँ के जन-मानस को चिंतित कर रखा है कि कहीं वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक बन के न रह जाए। असमवासियों द्वारा इन विदेशियों की पहचान कर इन्हें असम से बाहर निकालने की माँग जोर पकड़ती जा रही है।


भाषावाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख एक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है। भाषा व मातृभूमि दो ऐसी चीजें हैं जिससे मनुष्य का जन्मजात प्रेम होता है और इसको भूलना व छोड़ना आसान नहीं है।


भारत में हिन्दी, मराठी, गुजराती, उडिया, असमी, राजस्थानी, बंगाली, पंजाबी, नेपाली, मणिपुरी, तेलुगू, कोंकणी, कन्नड़ मलयालम आदि 22 भाषायें भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल की गई हैं, जिसमें हिन्दी भाषा सर्वत्र बोली और समझी जाती है।


लेकिन केंद्र सरकार द्वारा जब सरकारी काम-काज में हिन्दी भाषा का प्रयोग करने का आदेश जारी किया गया तो दक्षिण भारत में इसका कड़ा विरोध हुआ। ज्ञातव्य है कि तमिलनाडु में तो भाषायी प्रश्न को लेकर भारत से अलग होने की माँग भी की गई थी।


तोड़-फोड़ व आगजनी के साथ ही कुछ हिन्दी प्रेमियों को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया गया। इस समस्या को लेकर भारत दो भागों में विभाजित हो गया - एक उत्तरी भारत और दूसरा दक्षिणी भारत। यद्यपि भारत की राष्ट्रभाषा समिति ने तीन सूत्रीय फॉर्मूले को अपनाने का सुझाव दिया जिससे क्षेत्रीय भाषाओं की सुरक्षा हो सके। इसके अलावा एक विदेशी भाषा मुख्यतः अंग्रेजी तथा उस राज्य में बोली जाने वाली भाषा और हिन्दी शामिल है।


यह देखा गया है कि समय-समय पर भाषा सम्बन्धी उलझन राष्ट्रीय एकता एवं समृद्धि के लिए अपशकुन बन जाता है। एक अन्य समस्या जो आंतरिक सुरक्षा को समय-समय पर चुनौती देती रहती है, वह है जातिवाद। भारत में विभिन्न जाति व धर्म के लोग निवास करते हैं। प्राचीन भारत में वृहत्तर भारत की अवधारणा एवं अनेकता में एकता की प्रवृत्ति ने धीरे-धीरे जातिवाद व क्षेत्रवाद की भावना को प्रोत्साहित किया है


सामाजिक न्याय व दलित उत्थान हेतु मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने तथा जातिगत आरक्षण हेतु देश की कई राज्य सरकारों के मध्य प्रारम्भिक प्रतिस्पर्धा ने संपूर्ण भारतीय सामाजिक-व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है। आज देश के अंदर विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ जातिवाद के नाम पर अपनी पहचान बनाने में लगी हैं


यही नहीं, संवैधानिक चुनाव भी जातिवाद के नाम पर लड़े जा रहे हैं। फलतः ऐसी स्थिति में देश के अंदर अराजकता जैसी घटनाएं घटित होना स्वाभाविक है, जिससे देश की सुरक्षा को खतरा महसूस किया जा सकता है। हाल ही में राजस्थान में हुआ गुर्जर-मीणा संघर्ष इस तथ्य को भलीभांति उजागर करता है।


सन् 1980 में त्रिपुरा में मतांतरित समूहों के द्वारा बंगाली हिन्दुओं को जिस तरह से मारा-पीटा गया, वह सबसे ज्यादा खौफनाक घटना थी, जिसमें करीब कई घरों को आग के हवाले कर दिया गया था। आज भी मतांतरित समूहों के द्वारा आये दिन छिट-पुट घटनाये होती रहती हैं, जिनके समाधान के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने चाहिए।


देश की आंतरिक सुरक्षा को सांप्रदायिकता का घुन भी अक्सर खोखला करता रहता है। सांप्रदायिकता की परिणति भारत और पाकिस्तान के निर्माण के समय से ही हुई और दोनों राष्ट्र आज तक एक-दूसरे के विरोधी बने हुए हैं। भाषावाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख एक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है।

सांप्रदायिकता का अर्थ ऐसी विचारधारा से है, जिसके अंतर्गत किसी संप्रदाय विशेष के लोग न्यूनाधिक रूप से धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक, समान ढांचे में विश्वास रखते हों। भारत में विभिन्न धर्मावलंबी रहते है और अपने-अपने हितों के लिए विभिन्न संप्रदायों से संबद्ध हो गये हैं और इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दशा भी भिन्न है।


आज संप्रदायवाद की भावना दो विभिन्न समुदायों के मध्य कटुता एवं पारस्परिक विरोध उत्पन्न करने के साथ-साथ दूसरे धर्मों का शोषण करती है, जिसका उद्देश्य धार्मिक न होकर राजनैतिक होता है। सांप्रदायिकता महामारी की भांति फैल रही है।


अतः उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जब तक देश के अंदर पनप रही कुरीतियों को पनाह मिलती रहेगी, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, तब तक देश की आंतरिक सुरक्षा किसी न किसी प्रकार से असुरक्षित रहेगी; क्योंकि राष्ट्र के अन्दर आपसी मनमुटाव, वैमनस्य, तनाव देश की आंतरिक सुरक्षा को बाधित करने की प्रथम कड़ी होती है।

लेख

Representative Image

आदित्य मिश्रा

यंगइंकर
पत्थलगांव, जशपुर