तियानमेन चौक नरसंहार : चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने लोकतंत्र की मांग करने वाले हजारों प्रदर्शनकारियों को मौत घात उतार दिया

चीन वही देश है जहां माओ त्से तुंग ने जनता को अच्छे दिन का सपना दिखाकर क्रांति में उनका समर्थन हासिल किया था और बाद में उसी लाखों करोड़ों जनता को मौत के घाट उतार दिया। यह वही विचारधारा है जिससे प्रभावित होकर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में हिसक क्रांति के द्वारा माओवाद स्थापित करने की कोशिश हुई।

The Narrative World    04-Jun-2023
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चीन की राजधानी बीजिंग में तियानमेन चौराहे पर 4 जून को सेना ने गोलीबारी और टैंकों से कुचलकर छात्रों की हत्या कर दी, यह शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे आंदोलन के ख़िलाफ़ सबसे अमानवीय, बर्बर घटना थी।


1989 में चीन में राजनैतिक व आर्थिक सुधार की माँग को लेकर जन आंदोलन हुआ था, जिसके पीछे ज़्यादातर छात्र ही थे। इस आंदोलन ने इतनी व्यापकता हासिल की थी कि तियानमेन चौक पर सरकार के विरोध में एक लाख से ज़्यादा प्रदर्शनकारी इकट्ठे हो गए थे।


इस विद्रोह को कुचलने के लिए 19 मई को चीन सरकार ने मार्शल लॉ लगाया था और 4 जून को तोपों, बंदूकों व टैंकों से गोलीबारी कर हजारों प्रदर्शनकारियों को मौत के घाट उतार दिया था।


आंदोलन की शुरुआत सुधारवादी छवि के कम्युनिस्ट नेता हू याओबांग की 15 अप्रैल 1989 को मौत में होने के बाद हुई, बड़ी संख्या में छात्र कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय के बाहर इकट्ठे हो गए।


हू याओबांग चीन के ईमानदार और सुधारवादी नेता थे जिन्हें पार्टी महासचिव के पद से 1987 में अपमानजनक तरीके से हटा दिया गया था। उनकी जनता में छवि अच्छी थी, लोकप्रिय थे।


छात्र उनको श्रद्धांजलि देने के लिए कम्यूनिस्ट पार्टी कार्यालय के जिन्हुआ गेट पर एकत्र हो गए। 1985 के बाद चीन के लोगों में चीन के भविष्य को लेकर गहरी चिंताएं थीं। उस समय की चीनी सरकार की नीतियां भी लोगों को सोचने पर मजबूर कर रही थी।


देश में हर तरफ महंगाई, भ्रष्टाचार, नई अर्थव्यवस्था के लिए शिक्षित युवाओं के रोज़गार को लेकर सीमित सोच, प्रेस की स्वतंत्रता का हनन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन जैसे कई मुद्दों पर लोग नाराज़ थे।


जब छात्र आंदोलन को गति मिलने लगी, तब चीन के राष्ट्रपति जेंग जिनपिंग के नाम सरकारी समाचार पत्र पीपुल्स डेली में संपादकीय छपी जिसमें छात्र आंदोलन को पार्टी विरोधी और देश विरोधी बताया। इससे छात्र और भड़क गए।


इन मुद्दों पर चीनी सरकार और पार्टी एकमत नहीं थी, पार्टी के भीतर गुटबाजी चल रही थी। पार्टी के महासचिव झाओ जियांग के उदारवादी प्रस्ताव के विरुद्ध प्रधानमंत्री लि पेंग और उनके सहयोगियों ने झाओ के प्रस्ताव को नकारते हुए चीन में मार्शल लॉ लागू कर दिया।


छात्र 15 मई से भूख हड़ताल शुरू कर दी थी, इससे जनता और भड़क उठी, इन प्रदर्शनों को इतना जन समर्थन मिला कि 3 और 4 जून 1989 को तियानमेन स्क्वायर पर एक लाख से ज़्यादा प्रदर्शनकारी इकट्ठे हो गए थे।

“ऐसी बात नहीं थी कि चीन के छात्र आंदोलन को शांतिपूर्ण सुलझाने के प्रयास नहीं हुए, कम्यूनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव झाओ जियांग पोलिटब्यूरो की बैठक में कई सुधारात्मक प्रस्ताव दिए जिसमें भ्रष्टाचार की जांच करने एक आयोग बनाने और नया प्रेस कानून बनाने का था जिसमें समाचार पत्रों पर लगे समाचार संकलन, संपादकीय लेखन व टिप्पणियों के लिखने पर प्रतिबंध में कुछ ढील देने के सुझाव थे।”


झाओ छात्रों के आंदोलन को समझदारी पूर्वक बिना बल प्रयोग के सुलझाने के पक्षधर थे। लेकिन चीन के निरंकुश शासकों ने उलटे झाओ को पार्टी महासचिव के पद से हटा दिया , उन्हें बंदी बना लिया। यह सारी बातें झाओ की पुस्तक द प्रिज़नर ऑफ स्टेट में विस्तार से लिखी गई हैं।


चीन वही देश है जहां माओ त्से तुंग ने जनता को अच्छे दिन का सपना दिखाकर क्रांति में उनका समर्थन हासिल किया था और बाद में उसी लाखों करोड़ों जनता को मौत के घाट उतार दिया।


यह वही विचारधारा है जिससे प्रभावित होकर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में हिसक क्रांति के द्वारा माओवाद स्थापित करने की कोशिश हुई।


यह माओ की वही विचारधारा और शासन तंत्र है जिसको ब्रह्म वाक्य बनाकर भारत के जनजातीय क्षेत्रों में सरकार के खिलाफ विद्रोह कर रखा है।


नया लोकतंत्र का नारा लगाकर जो गरीब निर्दोष जनजातियों की हत्या कर रहे हैं, वे क्या भारत में चीन की तानाशाही, निरंकुश, बर्बर सत्ता स्थापित करने का सपना देख रहे हैं।


भारत के सशस्त्र मओवादियों को वैचारिक, बौद्धिक, संसाधन से मदद देने वाले उनके एजेंट बड़े शहरों में बैठे हैं।


ये वही लोग हैं जो देश की सरकारों को संविधान विरोधी, जन विरोधी करार देते हैं। छोटी छोटी घटनाओं पर न्यायालय पहुँच जाते हैं, सड़कों पर उतरते हैं, लेख लिखते है और भारतीय सत्ता और प्रशासन को अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाते हैं।


दलितों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनीति करते हैं, उन्हें व्यवस्था के विरूद्ध उकसाते हैं। यही वे लोग हैं जिन्होंने कोरोना संकट से निपटने जब लॉकडॉउन किया गया तो मजदूरों में अफवाह फैलाकर अराजकता पैदा करने की कोशिश की।


वो लोग जो चीन की विचारधारा और शासन प्रणाली को भारत पर हिंसा के दम पर थोपने का सपना देख रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि जिस देश के एजेंट हैं, उस देश में जनता को कौन से अधिकार प्राप्त हैं?


अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है, विरोध को बर्बरता से कुचल दिया जाता है, जनता केवल मूक दर्शक, डरी सहमी एक समूह है जो तानाशाही निरंकुश सत्ता को सहने के लिए मजबूर हैं। अगर आप लोकतंत्र की बात करेंगे तो तियानमेन चौक की घटना की तरह गोली से उड़ा दिए जाएंगे।

 
लेख

शशांक शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार