भारत में नक्सलवाद

जहाँ एक ओर सीमापार से आतंकवाद व चीनी विस्तारवाद तो वहीं दूसरी ओर भीतर से अलगाववाद और माओवाद जैसी कई चुनौतियाँ हमारी प्रगति की इस राह में रोड़े अटकाने में अहर्निश लगी हुई हैं। इन बाह्याभ्यान्तरिक समस्याओं में भी माओवाद या वामपंथी उग्रवाद से प्रेरित सशस्त्र विद्रोह हमारे लिए सबसे बड़ा नासूर बना हुआ है। आधी शताब्दी से भी अधिक समय पहले पनपी यह समस्या आज देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा संकट है।

The Narrative World    09-Jun-2023   
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हमारे भारतवर्ष ने स्वातंत्र्य प्राप्ति के बाद से ही मानवीय उद्यम के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति के नित-नए आयाम स्थापित किए हैं। और पिछले एक दशक में इसने प्रगतिपथ पर इतनी तेजी से कदम बढ़ाएँ है कि यह आज कई मोर्चों पर समूचे विश्व का नेतृत्व कर रहा है।


चाहे कोविड-19 संक्रमण की वैश्विक महामारी का दौर हो या फिर महामारी के बाद इससे उपजी विषमताओं का दौर हो, जब विश्व की तमाम शक्तियाँ भी स्वयं कोकिं कर्म किमकर्मेतिकी स्थिति में पा रहीं थी, तब भी हमने वैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक सभी क्षेत्रों में उन्नति के नए आयामों को छुआ है।


लेकिन जहाँ एक ओर सीमापार से आतंकवाद व चीनी विस्तारवाद तो वहीं दूसरी ओर भीतर से अलगाववाद और माओवाद जैसी कई चुनौतियाँ हमारी प्रगति की इस राह में रोड़े अटकाने में अहर्निश लगी हुई हैं।


इन बाह्याभ्यान्तरिक समस्याओं में भी माओवाद या वामपंथी उग्रवाद से प्रेरित सशस्त्र विद्रोह हमारे लिए सबसे बड़ा नासूर बना हुआ है। आधी शताब्दी से भी अधिक समय पहले पनपी यह समस्या आज देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा संकट है।


वैसे तो इस समस्या की जड़ें अतीत में काफी गहरी हैं, जिसके बीज 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ के वर्षों में रूस में उठी क्रान्ति के मूल प्रेरक तत्वों में निहित हैं। लेकिन यहाँ उतना पीछे न जाते हुए हम 1946 के तेलंगाना के किसान विद्रोह से ही प्रारंभ करेंगे।


किसान विद्रोह पराधीन भारत के लिए कभी नए नहीं रहे। यूरोपीयों के आगमन से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक ऐसे कई विद्रोहों को देश ने देखा। लेकिन तेलंगाना का किसान विद्रोह इनसे थोड़ा अलग था।


जब यह प्रारंभ हुआ तब भारत आज़ादी की दहलीज पर खड़ा था और जब यह चरम पर पहुँचा तबतक यद्यपि देश आज़ाद हो चुका था तथापि ब्रिटिश राज से चली आ रही जमींदारी परंपरा खत्म नहीं की जा सकी थी।


ऐसे में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से प्रेरित होकर किसानों ने जमींदारों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह कर दिया। भारत सरकार ने उस विद्रोह को सरलता से कुचल दिया लेकिन इससे किसानों के मन में विधिस्थापित सरकार के प्रति आशंकाएँ घर कर गई और कम्यूनिस्टों ने इसका लाभ उठाकर गोरिल्ला पद्धति से संघर्ष जारी रखा।


वर्ष 1951 में स्टालिन द्वारा साम्यवादी विचारों के प्रसार के लिए सशस्त्र विद्रोह की बजाए लोकतांत्रिक पद्धति का सहारा लेने को कहे जाने के बाद सीपीआई ने तेलंगाना विद्रोह समाप्त कर दिया।


इसका प्रभाव यह हुआ कि सीपीआई के प्रति कथित सर्वहारों में अविश्वास घर कर गया और इसकी परिणति सीपीआई के विभाजन के रूप में हुई। वर्ष 1964 में सीपीआई के सातवें कांग्रेस में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डियामार्क्सिस्ट (सीपीआई-एम) का गठन हुआ।


1962 के भारत-चीन युद्ध के समय सीपीआई-एम द्वारा चीनी कम्यूनिस्ट सरकार की निन्दा किए जाने और फिर 1967 में संयुक्त मोर्चे की सरकार के एक घटक के रूप में शामिल होने से इसके सदस्यों में पुनः मतभेद उत्पन्न हुए।


चीन के साम्यवादी शासक माओत्से तुंग से प्रभावित कुछ सदस्यों का यह मानना था कि भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेना अर्थात् साम्यवादी विचारधारा के प्रति द्रोह करना है। चारू मजूमदार इन सदस्यों में से एक था, जिसके द्वारा जेल में लिखे गए उग्र लेखों ने आज नक्सलवाद कही जाने वाली विचारधारा को जन्म दिया। हालाँकि अब भी कम्यूनिस्टों में जोड़-तोड़ होने शेष थे।


सीपीआई-एम के सत्ता में शामिल होने के कुछ महीनों बाद 1967 में ही वह प्रमुख घटना घटित हुई जिसे भारत में नक्सलवाद का जन्म माना जाता है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक गाँव में भूमिहीन किसानों ने हाथों में तीर-कमान लेकर जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।


पुलिस द्वारा इस विरोध को दबाते ही चारू मजूमदार, कानु सान्याल और जंगल संथाल जैसे कम्यूनिस्ट नेताओं ने एक विद्रोही आदोलन का सूत्रपात कर दिया, जिसे नक्सली आंदोलन कहा गया। कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार सीपीआई-एम कुछ न कर सकी और आन्दोलन ने गति पकड़ ली।


इसके बाद 1969 में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डियामार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट का गठन चारू मजूमदार द्वारा किया गया। वास्तव में यह एक माओवादी दल था, जिसने यह नाम महज छलावे के लिए रखा था। ऐसा मानने का कारण भी हैवह यह कि इस धड़े का तो नारा भी माओ से प्रेरित था।


यह नारा था – China’s Chairman is our Chairmen. Chinese path is our path.(अर्थात् चीन का अध्यक्ष ही हमारा अध्यक्ष है और चीन का पथ ही हमारा पथ है।) इस नक्सल विद्रोह को जल्द ही चीन का समर्थन प्राप्त हुआ और चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी के मुखपत्र पीपल्स डेली ने इसकी मुक्तकंठ प्रशंसा भी की।


चीन से मिले इस समर्थन के बाद माओवादियों के हौसले और बढ़े, लेकिन भारत की सैन्य कार्रवाई और चारू मजूमदार को गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद यह विद्रोह समाप्त हो गया।


लगभग दो दशको तक शांत रहने के बाद नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में एकबार फिर यह माओवादी विचार उभर आया। इस बार आन्ध्रप्रदेश में पीपल्स वॉर ग्रूप (PWG) नामक माओवादी सशस्त्र विद्रोह खड़ा हुआ।


पुलिस कार्रवाई ने इस विद्रोह को कुचल दिया और फिर यह समझा जाने लगा कि यह समस्या समाप्त हो गयी। लेकिन, माओवाद ने एक बार फिर सर उठाया लेकिन इस बार अधिक सुसज्ज और संगठित होकर यह सामने आया।


वर्ष 2004 में PWG, माओइस्ट्स सेंटर ऑफ़ सेंट्रल इण्डिया (MCCI), सीपीआई-एमएल के साथ कई छोटी-बड़ी माओवादी टुकड़ियों ने मिलकर कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डियामाओइस्ट और इसकी सैन्य इकाई पीपल्स लिबरेशन गोरिल्ला आर्मी (PLGA) गठित की। पिछले दो दशकों से सीपीआई माओइस्ट ही भारत में वामपंथी उग्रवाद की सूत्रधार बनी हुई है।


हालांकि यह प्रश्न बारबार उठता है कि आखिर माओवाद यहाँ पनपा ही क्यों और ऐसा क्या है कि बार-बार समाप्त होने के बाद यह फिर उठ खड़ा हो जाता है? इसका प्रधान कारण है - भूमि सुधार के प्रति सरकारों की उदासीनता।


बंगाल सरकार के राजस्व विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार 1953 में कुल 11लाख 70हजार करोड़ एकड़ की कृषि भूमि थी जिसमें से 10 लाख 90 हजार एकड़ भूमि पर जमींदारों का स्वामित्व था। इसके अलावा 1971 की जनगणना के अनुसार भारत में तकरीबन 60 प्रतिशत जनसंख्या भूमिहीन थी और भूमि के एक बड़े भाग का स्वामित्व महज 4 प्रतिशत लोगों के पास था।


तो जैसा कि हमने देखा जहाँ-जहाँ भूमिहीन किसानों में असंतोष व्याप्त था, वहीं-वहीं माओवादियों ने अपनी जमीन तैयार की। ऊपर से भ्रष्ट अफ़सरशाही और राजनीतिक प्रतिबद्धता में कमी ने उस भूमि में खाद का काम किया, जिसके चलते माओवाद की जड़ें देश के एक बड़े भूभाग में तेजी से फैली और आज स्थिति यह है कि देश के छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा, बिहार, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और केरल राज्यों के कुल 90 वामपंथी उग्रवाद से पीड़ित है।


एक समय तो प्रभावित जिलों की यह संख्या 200 तक भी पहुँच गई थी। 1967 के बाद से लेकर आनेवाले चार दशकों तक सरकारों ने भी इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया था, जिसके कारण नक्सलवादरूपी यह पौधा केवल ऊपर से ही मरा प्रतीत होता, लेकिन भीतर-ही-भीतर जड़ें फैलाकर फिर हरा-भरा हो जाता।


इतना लंबा इतिहास यहाँ देने का प्रयोजन केवल इतना ही था कि वामपंथी उग्रवाद की वर्तमान स्थिति को जानने से पहले पाठकवृन्द इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से पूरी तरह अवगत हो जाएँ। लेकिन अब हम वामपंथी उग्रवाद के वर्तमान स्वरूप पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।


आज सीपीआई-माओइस्ट के केन्द्रीय ढाँचे में सेंट्रल कमिटी, पोलित ब्यूरो और सेंट्रल मिलिट्री कमीशन शामिल है। पीलजीए में तीन प्रमुख बल हैंमुख्य बल (जिनमें कंपनियाँ, पलटन, हत्या दस्ते आदि सम्मिलित हैं), सहायक बल (जिनमें विशेष गोरिल्ला दस्ते, जिलास्तरीय कार्रवाई बल या हत्या दस्ते शामिल हैं), और बेस फोर्स (जिनमें पीपल्स मिलिशिया, आत्मरक्षा दल आदि शामिल हैं)


इसके अतिरिक्त अपने कथित आधिपत्य के क्षेत्रों में सीपीआई द्वारा रिवॉल्यूशनरी पीपल्स कमेटीज़ (RPC) नाम से सिविल प्रशासनिक मशीनरी की स्थापना भी की जाती है। ऐसा माना जाता है कि आज सीपीआई की सशस्त्र इकाई PLGA में 20 हजार कैडेट्स शामिल हैं, जिनमें से लगभग आधे हार्डकोर लड़ाके हैं।


इसके अतिरिक्त माओवादियों ने वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए भी कई तरीके अपनाएँ हैं। सबसे महत्वपूर्ण तरीका है - रिवॉल्यूशनरी टैक्स अपने कथित आधिपत्य के क्षेत्रों में वे लोगों, छोटे-व्यापारियों, खनन कंपनियों से टैक्स की उगाही करते हैं।


अब तो माओवादियों ने तस्करी जैसे अवैध धंधों से भी वित्तीय संसाधन जुटाने के प्रयास शुरु किए हैं। झारखंड से अफ़ीम और ओडिशा से भांग की तस्करी और उनका अवैध व्यापार संचालित कर ये धन एकत्रित कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अलगाववादी ताकतों के साथ-साथ भारत विरोधी विदेशी ताकतों से भी इन्हें सहायता मिल रही है।


वामपंथी उग्रवाद की निरंतर बढ़ती घटनाओं के बाद भी सरकारों की आँखें तभी खुली जब माओवादी हिंसा की आँच राजनेताओं तक पहुँचने लगी। माओवादियों द्वारा 2003 में आन्ध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की हत्या के प्रयास, 2009 में बंगाल की लालगढ़ घटना, 2010 में छत्तीसगढ़ में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या, 2013 में छत्तसीगढ़ की झीरम घाटी में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं की हत्या आदि कुछ प्रमुख वारदातें थी, जिन्होंने सरकारों को वामपंथी उग्रवाद के प्रतिकार हेतु प्रेरित किया।


और फिर इसके बाद वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्यों और केन्द्र ने संघवाद का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए माओवाद के प्रतिकार हेतु एक नीति बनाई। भारत की नक्सलविरोधी नीति मूलतः दो बिन्दुओं पर केन्द्रित हैपहला, जनमानस का विश्वास अर्जित करना, और दूसरा, माओवादियों के विरुद्ध आक्रामक रवैया अपनाना।


इसके लिए जहाँ नक्सलप्रभावित जिलों में विकास की कई परियोजनाएँ शुरु की गई हैं, वहीं माओवादियों के विरुद्ध पुलिस एवं अर्धसैनिक कार्रवाइयाँ भी की जा रही है। प्रौद्योगिकी, बुनियादी ढाँचे, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से जुडी तमाम विकास परियोजनाओं के माध्यम से सरकारे युवाओं की माओवादी समूहों में भर्ती को कम करने में सफल होती दिख रही हैं।


इसके अलावा राज्यों ने आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए पुनर्वास की आकर्षक योजनाएँ बनाकर कैडर को कमजोर करने की नीति भी अपनायी है।


2017 में भारत सरकार द्वारा माओवाद से निपटने की बेहतर रणनीति, विकास में सामुदायिक सहभाग और बेहतर केन्द्र-राज्य समन्वय स्थापित करने की दृष्टि सेसमाधान (SAMADHAN : S – Smart policing and leadership, A – Aggressive Strategy, M – Motivationa and Training, A – Actionable Intelligence, D – Dashbord for Development and Key Performance Indicators, H – Harnessing Technology for Development and Sequrity, A – Action Plan for Each Theatre, N – No Access to Finanacing)’ का सूत्र दिया गया है, जो बेहतर विकास और आक्रामक प्रतिकार की नीति को ही अपनाकर वामपंथी उग्रवाद का अंत करने की प्रतिबद्धता दिखा रहा है।



सरकारों के इन प्रयासों का काफी अच्छा प्रभाव दिख भी रहा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय की वर्ष 2021-22 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार वामपंथी उग्रवाद की घटनाओं व इनके भौगोलिक विस्तार में काफी कमी आई है।


इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013 की तुलना में वर्ष 2021 में वामपंथी उग्रवाद से जुड़ी घटनाओं में जहाँ 55 प्रतिशत की कमी (1136 से घटकर 509) हुई है, वहीं इन घटनाओं में होने वाली मौतों में 63 प्रतिशत (397 से 147) की कमी हुई है।


सरकारों की विकासोन्मुखी पहलों के चलते बड़ी संख्या में वामपंथी उग्रवादी हिंसा का मार्ग छोड़ मुख्यधारा में लौटे हैं। भौगोलिक विस्तार की बात करें तो वर्ष 2013 में जहाँ 10 राज्यों के 76 जिलों के 330 पुलिस स्टेशनों में वामपंथी उग्रवाद की रिपोर्टें प्राप्त हुई थी, वहीं 2021 में 8 राज्यों के 46 जिलों के 191 पुलिस स्टेशनों में ऐसी रिपोर्टें प्राप्त हुई हैं। वर्ष 2018 में जहाँ 90 जिले नक्सल प्रभावित जिलों की सूची में थे, वहीं 2021 में यह संख्या 70 हो गई है।


एक ओर जहाँ विकासपरक योजनाओं और उनके सफल क्रियान्वयन से सरकारों ने वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में लोगों का विश्वास अर्जित किया है वहीं वामपंथी उग्रवादियों ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आम जनता को ढाल बना कर और आतंक फैलाने के लिए उनकी हत्या कर लोगों के बीच अपनी भूमि गँवा दी है।


और यही सबसे महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि सरकारें तो पहले भी वामपंथी गतिविधियों को रोकने में कामयाब हो चुकी थी, पर उग्रवादियों ने लोगो का भरोसा कायम रखा था। इसलिए यह सही वक्त है जब इस समस्या का समूल नाश किया जा सकता है।


परन्तु इनके साथ ही हमें अर्बन नक्सलियों पर भी ध्यान देना होगा जो इन उग्रवादियों के लिए देश में सहानुभूति और कैडर दोनों ही जुटाने में दिन-रात लगे हुए हैं। आलम ऐसा है कि जब-जब यह आतंकी विचारधारा दम तोड़ती दिखती है, तब-तब ये बुद्धिजीवी नक्सली शुक्राचार्य की तरह इसे संजीवनी देने में जुट जाते हैं। अतः इनकी भी काट हमें अवश्य ढूँढनी होगी।


अंत में, यह कहना समीचीन होगा कि सरकारों द्वारा किए जा रहे अथक प्रयासों और देश के अनेक वीर-सपूतों के बलिदान से आज वामपंथी उग्रवाद की उग्रता उल्लेखनीय रूप से कम अवश्य हुई है; लेकिन इसके अतीत को देखते हुए और कुछ दिनों पहले ही दंतेवाड़ा में हुए आइईडी धमाके जैसी लगातार होती आ रहीं हिंसक घटनाओं को देखते हुए यह कहना बड़ा कठिन है कि हमने इस नासूर का कोई रामबाण इलाज ढूँढ लिया है। (


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संदर्भ


Naman Rawat, “Naxalite Insurgency in India and Need for Holistic Counter Responses”, Counter Terrorist Trends and Analyses, Vol. 11, No. 5 (May 2019), pp. 13–19, International Centre for Political Violence and Terrorism Research.


Niranjan Sahoo, “Half a Century of India’s Maoist Insurgency : An Appraisal of State Response”, ORF Occasional Paper No. 198, June 2019, Observer Research Foundation.


“A Historical Introduction to Naxalism in India”, European Foundation for South Asian Studies (EFSAS), Amsterdem, 2019.


वार्षिक रिपोर्ट 2021-22, पृष्ठ 09-14, गृह मंत्रालय, भारत सरकार।


Website of the Left Wing Extremism Division, Ministry of Home Affairs, Government of India.


“Decisive Battle with Left-Wing Extremism : Rise of Peace, Stability and Development”, From Aspiration to Accomplishment - 8 Years, pp. 22 – 27, Ministry of Home Affairs, Government of India, 2022.


Left Wing Extremism, Preemp – Prevent – Protect : Security with Senitivity, p. 8, Ministry of Home Affairs, Government of India, 2017.


लेख

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ऐश्वर्य पुरोहित
यंगइंकर
शोधार्थी एवं विचारक