विश्वव्यापी हिंदू संस्कृति - भारतीय धर्मानुयायी कंबोडिया

सांस्कृतिक दृष्टि से कंबोडिया पूर्व एशिया के सभी देशों की तुलना में भारत के अधिक निकट है। यह सारा क्षेत्र अमेरिका और चीन की शक्ति संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है। कंबोडिया इस खतरे से भयभीत है और तटस्था की नीति अपना कर किसी प्रकार अपनी जान बचा रहा है।

The Narrative World    16-Jul-2023   
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एक समय भारत के राष्ट्रपति माननीय डॉ राजेंद्र प्रसाद वंहा गए और अंकोरवाट मन्दिर को देखकर मुग्ध हो गए। इस मंदिर में एक कमरा जादू जैसी विशेषता का है उसमें घुसकर कोई अपने हृदय पर हाथ मारे तो प्रतिध्वनि "ओम()" जैसी गूँजती है। शरीर के अन्य किसी भाग पर हथेली मारो तो वैसा गुंजन नहीं होता। एक बार जवाहरलाल नेहरू भी वहां पहुंचे थे और इस विलक्षणता को देखकर चकित रह गए थे।

 

ऐसी ही और भी कितनी विशेषताएं इस मंदिर के अवशेषों में हैं। चूने का उपयोग कम ही हुआ है। पत्थर रखकर उसे इतनी मजबूती से बनाया गया है कि इतना लंबा समय बीत जाने पर भी उसमें हिलने -डुलने की कमजोरी नहीं आई। खुदाई अभी भी चालू है। हिंदू देवी- देवताओं की मूर्तियां जितनी कलापूर्ण इसमें बनाई गई है, उसकी तुलना में भारत में बने कम मंदिर ही दिखाई देते हैं।

 

मंदिरों, स्मारकों, दुर्गो, भवनों की शिल्प कला में पूरी तरह भारतीयता का समावेश है। वे ऐसे लगते हैं मानो भारत में बने हो अथवा भारतीयों ने वहां पहुंचकर बनाए हो। भारत में बनी इस प्रकार की इमारतों और कंबोडिया के इन भवनों में तुलना की जाए तो प्रतीत होता है कि किसी ने किसी की हूब-हू नकल करने का प्रयत्न किया है।


समय ने बहुत कुछ पलट दिया है। अब वहां की जनता पर पहले जैसी हिंदू धर्म की छाप नहीं है। मुसलमान और ईसाई धर्मों ने भी अपनी गहरी जड़ें जमा ली हैं; फिर भी जो कुछ बचा है उससे यह स्पष्ट है कि वहां बौद्ध और हिंदू संस्कृति का लोप नहीं हुआ है।


अभी भी जो बचा है उसे सींचा ,संभाला जा सके तो यह मुरझाया वृक्ष पुन: पूर्वकाल की तरह हरा- भरा हो सकता है।


'टेप प्रानम ' में मिले लेख से प्रतीत होता है कि यशोवर्मन के बनाए " सौगाताश्रय वीया बिहार" में वैष्णव और शैव धर्म की भांति ही बौद्ध धर्म ही पढ़ाया जाता था। सूर्यवर्मन के शासनकाल में हिंदू धर्म की भांति बौद्ध धर्म को भी राजाश्रय मिला था। यही नीति अन्य शासक एवं विद्यालय भी अपनाते रहे थे।

 

कंबोडिया की वर्णव्यवस्था नवीन जातियों का उद्गम, विवाह प्रथा, वेशभूषा, खान-पान, वस्त्र, आभूषण,पात्र स्त्रियों की स्थिति ,मृतक संस्कार आदि पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि वन्हा ब्राह्मण धर्मी पुरोहितों का प्रावधान रहा होगा।


वहां ब्राह्मण धर्म प्रचार के लिए और क्षत्रिय शासन- व्यवस्था के लिए पहुंचे थे। उन्होंने विवाह उसी देश की स्त्रियों से किए और अपने वंश चलाएं। चीनी इतिहासकार पीलियों के अनुसार - एक हजार के करीब विद्वान ब्राह्मणों का आधिपत्य था, इनमें शिव, कैवल्य, हिरण्यदास ,अगस्त ,दिवाकर, ऋषिकेश, बामशिव, शिवाचार्य ,त्रिभुवनराज, लौज यूधिस्तिर , जयेंद्र पंडित, योगेश्वर, पृथ्वीइंद्र पंडित, गुण पंडित ,कविंद्र ,विशालाक्ष आदी के नाम विशेष उल्लेखनीय।


क्षत्रिय वहां पहुंचकर विशुद्ध क्षत्रिय नहीं रह गए थे, उनके विवाह शादी ब्राह्मणों के साथ होते थे। अस्तु उन्हें 'ब्रह्मा क्षत्र ' कहा जाता था। कितने ही राजाओं ने अपनी कन्याएं पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ विवाह थी।


इसी प्रकार कई ब्राह्मण कन्याये भी राज परिवारों में सम्मिलित होकर क्षत्रिय संतान की माता बनी थी। पहले वहां चार ही वर्ण थे, पीछे उनके वंश मिश्रण से 3 जातियां और बन गई। इस प्रकार वहां 7 जातियों का सप्त वर्णों का प्रचार हो गया। इसका वर्णन इलियट के ग्रंथ - "भारत का उसके इतिहासकारों द्वारा इतिहास" पुस्तक में विस्तार पूर्वक दिया गया है।


श्री चटर्जी की - "कंबोज में भारतीय संस्कृति का प्रभाव" ग्रंथ में इस समय वहां पुरुषों में धोती, कमर में फेंटा और कंधे पर दुपट्टा डालने का प्रचलन बताया गया है। उस काल में उपलब्ध चित्रों में तत्कालीन शासकों और नागरिकों को इसी वेशभूषा का अभ्यथ दिखाया गया है। महिलाएं लहंगा पहनती थी। चीनी इतिहासकार पीलियो - "चे ओ टाकुअन" की कथा में स्त्रियों के आभूषणों में हार, कर्णफूल, छल्ले, कंगन, बाजूबंद, करधनी, नूपुर आदि का उल्लेख है।


विशेष अवसरों पर मेहंदी रचाती थी। पुरुष गले में हार और कानों में कुंडल पहनते थे। स्त्रियों में जूड़ा बांधने और माथे पर चंदन लगाने का रिवाज था। ऐसी वेष- भूसा विशुद्ध रूप से भारतीय परंपरा के अनुकूल है। चीन इतिहास के ग्रंथ "तांग वंश का इतिहास" में तत्कालीन खाद्य पदार्थों ,गीत, वाद्य, नृत्य आदि जैसा वर्णन है। उससे स्पष्ट है कि उस समय वहां की प्रथा में पूरी तरह भारतीयता का समावेश था।

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मुर्दों को जलाने अथवा नदी में प्रवाहित करने, श्राद्ध- तर्पण,मृतात्माओं को संतुष्ट करने जैसे मरणोत्तर विधि-विधान का वर्णन, मृतक के शोक में उनके वंशज सिर के बाल मुडवाते थे। विवाह अग्निसाक्षी में उनकी परिक्रमा करते हुए संपन्न होते थे। बच्चों के कर्ण छेदन और सिर के बाल मुड़ाने के समय उत्सव होते थे।

 

इन दिनों कंबोडिया का राजधर्म बौद्ध है। जनता प्राय बुद्ध धर्मावलंबी ही है। पर पूजा ग्रहों में वहां धनुषधारी 'राम' और' हनुमान' जी की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। सरकारी मुद्रा पर हनुमान जी छपे हैं। सेना के ध्वज पर भी हनुमान जी विराजे हैं।


राजधानी 'नाम पेन्ह' के आधुनिकतम खेल स्टेडियम पर हनुमान जी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। हनुमान जी वहां के मानस देवता हैं। कंबोडिया में बौद्ध धर्म व हिंदू धर्म का ऐसा सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। मानो वे दोनों शरीर में जुड़े दो हाथ हैं। बर्मा और थाईलैंड की तरह ही कंबोडिया की वर्णमाला भी देवनागरी के अनुसार बनी है। अक्षरों की प्रकृति में थोड़ा अंतर है। वहां की भाषा में संस्कृत शब्दों की प्रधानता है यहां के इस विद्यालय में संस्कृत और पाली। भाषा पढ़ाने की विशेष व्यवस्था है।


सांस्कृतिक दृष्टि से कंबोडिया पूर्व एशिया के सभी देशों की तुलना में भारत के अधिक निकट है। यह सारा क्षेत्र अमेरिका और चीन की शक्ति संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है। कंबोडिया इस खतरे से भयभीत है और तटस्था की नीति अपना कर किसी प्रकार अपनी जान बचा रहा है।

 

राजधानी 'नाम पेन्ह' तथा आस-पास के नगरों में भारतीय भी बहुत हैं। उनमें से अधिकांश सिख धर्मानुयायी हैं। कितने ही गुरुद्वारे बने हैं और 'गुरुग्रंथ साहिब' का पाठ नित्य होता है।

 

राजतिलक के अवसर पर थाईलैंड की तरह कंबोडिया के राजा को भी धोती- कुर्ता पहनाया जाता है। विशेष अवसरों पर भी वे इसी पोशाक को पहनते हैं।

 

कंबोज की राजभाषा 14 वीं सदी तक संस्कृत रही है। यह वहां पर उपलब्ध शिलालेखों से स्पष्ट है। वहां अभी भी बच्चों का ' मुंडन संस्कार' बड़ी धूमधाम से होता है। और कटे हुए बालों को ताम्रपत्र में बंद करके 'मेकांग' नदी में बहाया जाता है, जो वहां गंगा की तरह पवित्र मानी जाती है।


कंबोडिया के शासकों का राज्याभिषेक वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ शैव ब्राह्मणों द्वारा संपन्न होता है। उस समय राज्य अधिकारी के एक ओर शिव की मूर्ति रखी जाती है और दूसरी ओर विष्णु की।


ज्योतिषी हर शुभ कार्य का मुहूर्त निकालते हैं। सामान्यतया गुरुवार सर्व शुभ माना जाता है। ' दीक्षा संस्कार ' वहां भी होते हैं। मांगलिक अवसरों पर महिलाएं रोली और अक्षत से मस्तकों पर तिलक लगाती हैं।

 

कंबोडिया की वर्तमान जनसंख्या मात्र 70 लाख है। बौद्ध धर्म को राज्य आश्रय प्राप्त है। वहां के प्राय सभी नागरिक बौद्ध धर्मावलंबी हैं। कंबोडिया के सर्वेसर्वा राजकुमार सिंहनुक ने एक बार दुखी होकर भारी मन से कहा था - "भारत हमारी माता है। दुर्भाग्य से हमारी माता ने हमारी परवाह करना छोड़ दिया और हम आश्रय विहीन होते जा रहे हैं।"


लेख


डॉ नितिन सहारिया